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गुरुवार, 27 सितंबर 2018

नवगीत संग्रह- 'सड़क पर' संजीव वर्मा 'सलिल'

भूमिका 
उत्सव मानती ज़िन्दगी 'सड़क पर'
राजेंद्र वर्मा 
रचना क्रम:
०१.  हम क्यों ?                २ 
०२. मन भावन सावन     २  
०३. मेघ बजे -१              १ 
०४. मेघ बजे - २            २ 
०५. मस्तक की रेखाएँ      १ 
०६. पाखी  समय का         १ 
०७. चंपा                       १
०८. लिखें हम 
०९. अब तो अपना  .
१०. आँज रही है  
११. जितनी आँखें  
१२. जो नहीं हासिल 
१३. चूहा झाँक रहा 
१४. आँखें रहते 
१५. गीत का  
१६. निर्झर सम  
१७. महका - महका 
१८. रंगों का नव पर्व 
१९. उत्सव का मौसम 
२०. चाह किसकी 
२१. मानव तो 
२२.ज़िंदगी के मानी 
२३. जीवन की जय बोल 
२४. हर चेहरे में  
२५. डर लगता है 
२६. अवध तन 
२७. सागर उथला 
२८. माटी में 
२९. जब तक कुर्सी 
३०. मैं अपना 
३१. सूना सूना 
३२.  महाकाल के 
३३. ओढ़ कुहासे की 
३४. दिल में अगर 
३५. पग की किस्मत 
३६. सारे जग को 
३७ बिक रहा ईमान 
३८ मौन निहारो 
३९. हम भू माँ की 
४०. राह हेरते 
४१. रंगों का 
४२. कहाँ जा रहे हो?
४३. सडक पर 
४४. दिशाहीन बंजारे 
४५. रंग हुए बदरंग 
४६. कैसी नादानी?
४७. दिल में अगर 
४८. भ्रम मत पालें 
४९. प्यार बिका है 
५०. नेह-नाता
५१. नेह नर्मदा तीर पर 
५२. मस्तक की रेखाएँ 
५३. अजब निबंधन  
५४. कोशिश कर कर हारा 
५५. क्या सचमुच स्वाधीन
=============

१. हम क्यों 

हम क्यों 
निज भाषा बोलें?

निज भाषा बोले बच्चा 
बच्चा होता है सच्चा 
हम सचाई से सचमुच दूर 
आँखें रहते भी हैं सूर 
फेंक अमिय 
नित विष घोलें 

निज भाषा पंछी बोले  
संग-साथ हिल-मिल डोले 
हम लड़ते हैं भाई से 
दुश्मन निज परछाईं के 
दिल में भड़क
रहे शोले

निज भाषा पशु को भाती 
प्रकृति न भूले परिपाटी 
संचय-सेक्स करे सीमित 
खुद को करे नहीं बीमित 
बदले नहीं  
कभी चोले 

पर भाषा पर होते मुग्ध 
परनारी देखें दिल दग्ध 
शांति भूलकर करते युद्ध 
भ्रष्टाचार सुहाता शुद्ध 
मनमानी 
करते डोलें  

अय्याशी में सुर प्यारे 
क्रूर असुर भाते न्यारे 
मानवता से क्या लेना 
हम न जानते हैं देना 
खुद को 'सलिल' 
नहीं तोलें 

२. मन भावन 

मन भावन 
सावन घर आया
रोके रुका न छली बली 

कोशिश के 
दादुर टर्राये
मेहनत मोर झूम नाचे
कथा सफलता नारायण की
बादल पंडित नित बाँचे
ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली 

सपनाते सावन 
में मिलते
अकुलाते यायावर गीत
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं 
टप-टप बूँदें नव संगीत 
आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले  नव गंध मिली  

हलधर हल धर 
शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं
हल कर ले सारे सवाल मिल
बाकी रहे बबाल नहीं
उम्मीदों के बादल गरजे 
बाधा की चमकी बिजली 

भौजी गुझिया 
सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ
छेड़-छाड़ सुन नेह भरी
सासू जी मन-मन मुस्कायें
छाछ-महेरी संग जिमाएँ 
गुड़ की मीठी डली लली 

नेह निमंत्रण 
पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के
श्वास-श्वास नंदन कानन
मिलते-मिलते आस गुजरिया 
रुकी मिलन की घड़ी टली 

नागिन जैसी 
टेढ़ी-मेढ़ी 
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल
चलना रपट न जाना मिल-जुल 
पार करो पथ की फिसलन
लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली 
नज़र नज़र से मिली भली 

गले मिल गये 
पंचतत्व फिर
जीवन ने अँगड़ाई ली 
बाधा ने मिट अरमानों की
सँकुच-सँकुच पहुनाई की
साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निंदिया रूठ जली 

३. मेघ बजे - १ 
 
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर 
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया 
नचे बेड़नी बिना लजे 
  
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी 
तोड़ कूल-मरजाद 
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे 
तनया तुरत तजे 

पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई 
जन्मे माखनचोर 
हरीरा भक्त पिये 
गणपति बप्पा, लाये 
मोदक हुए मजे 

टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर 
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली 
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल' 
जोड़ कर राम भजे 

४. मेघ बजे - २ 

मेघ बजे, मेघ बजे, 
मेघ बजे रे!
धरती की आँखों में
स्वप्न सजे रे!!

सोई थी सलिला 
अँगड़ाई ले जगी
दादुर की टेर सुनी
प्रीत में पगी 
मन-मयूर नाचता
न वर्जना सुने
मुरझाये पत्तों को 
मिली ज़िंदगी
झूम-झूम झर झरने 
करें मजे रे!

कागज़ की नौका
पतवार बिन बही
पनघट-खलिहानों की
कथा अनकही 
नुक्कड़, अमराई, खेत, 
चौपालें तर
बरखा से विरह-अगन
तपन मिट रही 
सजनी पथ हेर-हेर
धीर तजे रे!

मेंहदी उपवास रखे
तीजा का मौन
सातें-संतान व्रत
बिसरे माँ कौन?
छत्ता-बरसाती से
मिल रहा गले
सीतता रसोई में
शक्कर संग नौन
खों-खों कर बऊ-दद्दा
राम भजे रे! 


५. मस्तक की रेखाएँ 
 
मस्तक की रेखाएँ 
कहें कौन बाँचेगा? 
*
आँखें करतीं सवाल 
शत-शत करतीं बवाल 
समाधान बच्चों से 
रूठे, इतना मलाल 
शंका को आस्था की 
लाठी से दें हकाल  
उत्तर न सूझे तो 
बहाने बनायें टाल 
सियासती मन मुआ
मनमानी ठाँसेगा  
 
अधरों पर मुस्काहट 
समाधान की आहट
माथे बिंदिया सूरज 
तम हरे करे चाहत
काल-कर लिये पोथी
खोजे क्यों मनु सायत? 
कल का कर आज अभी
काम, तभी सुधरे गत
जाल लिये आलस 
कोशिश-पंछी फाँसेगा 
*
 
६. पाखी समय का

पाखी समय का
ठिठक पूछता है
कहाँ जा रहे हो?

उमड़ आ रहे हैं 
बादल गगन पर
तूफां में उड़ते 
पंछी भटककर
लिये हाथ में हाथ 
जाते कहाँ हो?
बैठे हो क्यों बंधु! 
खुद में सिमटकर 

साथी प्रलय से 
सतत जूझता और
सुस्ता रहे हो?

मलय कोई देखे
कैसे नयन भर
विलय कोई लेखे 
कैसे शयन कर
निलय काँपते देख 
झंझा-झकोरे
मनुज क्यों सशंकित 
थमकर, ठिठककर  

साथी 'सलिल' को 
नहीं सूझता देख
मुस्का रहे हो?
*

७. चंपा 
​बढ़े सियासत के बबूल
 
सूखा है चम्पा 
सद्भावों का
चलन गाँव में 
घुस आया है
 
शहरी जड़विहीन 
छाँवों का
 
पानी भरा टपरिया में
 
रिसती तली गगरिया में
बहू सो रही ए. सी. में-
 
खटती बऊ दुपहरिया में  

शासन ने 
आदेश दिया है 
मरुथल खातिर 
नावों का
जंग चरित्री-
सरिया में
बिल्डिंग तन गयी 
तरिया में
 
जंगल जला 
पहाड़ खुदे-
 
आग लगी है 
झिरिया में
 ​
तन ने मन 
नीलाम किया
ऊँचा 
है भाव 
अभावों का 
* 

८. लिखें हम 

*
आज नया
इतिहास 
लिखें हम 

अब तक 
जो बीता सो बीता 
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ-सुभीता
अब न कभी लांछित हो सीता 
भोग-विलास
न लक्ष्य 
रहे अब
हया, लाज
परिहास 
लिखें हम.

रहें न 
हमको कलश 
साध्य अब
कर न 
सकेगी नियति 
बाध्य अब
स्नेह-स्वेद
श्रम हो 
आराध्य अब
कोशिश होगी 
सतत 
साध्य अब

श्रम पूँजी 
का भक्ष्य 
न हो अब
शोषक हित
खग्रास 
लिखें हम

मिलकर 
काटें तम की 
कारा
उजियारे 
के हों 
पौ बारा
गिर उठ 
बढ़कर 
मैदां मारा
दस दिश 
गूंजे नित 
जयकारा

पीड़ा  
सहकर 
कोशिश- 
लब पर 
हास 
लिखें हम

*

९. अब तो अपना  
 
बहुत झुकाया 
अब तक तूने  
अब तो अपना 
भाल उठा

*
समय श्रमिक! 
मत थकना-चुकना
बाधा के सम्मुख 
मत झुकना.
जब तक मंजिल 
कदम न चूमे-
माँ की सौं
तब तक 
मत रुकना

अनदेखी 
करदे छालों की 
गेंती और 
कुदाल उठा

काल किसान! 
आस की फसलें
बोने खातिर 
एड़ी घिस ले 
खरपतवार  
सियासत भू में-
जमी- उखाड़
न मन-बल 
फिसले
 
पूँछ दबा 
शासक-व्यालों की 
पोंछ पसीना 
भाल उठा

ओ रे वारिस!
नये बरस के
कोशिश कर
क्यों घुटे 
तरस के?
भाषा-भूषा भुला
न अपनी-
गा बम्बुलिया 
उछल हुलस के

प्रथा मिटा 
साकी-प्यालों की 
बजा मंजीरा 
ताल उठा
*

१०. नयन में कजरा 

आँज रही है 
उतर सड़क पर
नयन में 
कजरा साँझ

नीलगगन के 
राजमार्ग पर
बगुले दौड़े 
तेज
तारे 
फैलाते प्रकाश 
तब चाँद 
सजाता सेज

भोज चाँदनी के 
संग करता
बना मेघ 
को मेज
सौतन ऊषा 
रूठ गुलाबी
पी रजनी 
संग पेज

निठुर न रीझा-
चौथ-तीज के 
सारे व्रत 
भये बाँझ

निष्ठा हुई 
न हरजाई
है खबर 
सनसनीखेज
संग दीनता के 
सहबाला
दर्द दिया 
है भेज

विधना बाबुल
चुप, क्या बोलें?
किस्मत 
रही सहेज
पिया पिया ने 
प्रीत चषक
तन-मन 
रंग दे रंगरेज

आस सारिका
गीत गये
शुक झूम 
बजाये झाँझ

साँस पतंगों 
को थामे
...

११. जितनी आँखें  
 
जितनी आँखें 
उतने सपने...
 
मैंने पाये कर-कमल
तुमने पाये हाथ
मेरा सर ऊँचा रहे,
झुके तुम्हारा माथ
प्राण-प्रिया तुमको कहा
बना तुम्हारा नाथ
हरजाई हो, चाहता
जनम-जनम का साथ
बेहद बेढब 
प्यारे नपने

घडियाली आँसू बहा
करता हूँ संतोष
अश्रु न तेरे पोछता
अनदेखा कर रोष
टोटा टटके टकों का
रीता मेरा कोष
अपने मुँह से कर रहा,
अपना ही जयघोष
सोच कर्म-फल 
लगता कँपने  
*

१२. जो नहीं हासिल

जो नहीं 
हासिल 
वही सब 
चाहिए

जब किया 
कम काम
ज्यादा दाम पाया
या हुए बदनाम 
या यश-
नाम पाया
भाग्य कुछ अनुकूल
थोड़ा वाम पाया

जो नहीं 
भाया
वही अब 
चाहिए

चैन पाकर 
मन हुआ 
बेचैन ज्यादा
वजीरों पर 
हुआ हावी 
चतुर प्यादा
किया लेकिन निभाया 
ही नहीं वादा

पात्र जो
जिसका 
वही कब 
चाहिए?

सगे सत्ता के 
रहे हैं 
भाट-चारण 
संकटों का 
कंटकों का 
कर निवारण
दूर कर दे विफलता 
के सफल कारण

बंद 
मुट्ठी में 
वही रब 
चाहिए 

कहीं पंडा
कहीं झंडा 
कहीं डंडा
जोश तो है 
गरम लेकिन 
होश ठंडा 
गैस मँहगी हो गयी
तो जला कंडा

पाठ-पूजा 
तज
वही पब 
चाहिए 

बिम्ब ने 
प्रतिबिम्ब से
कर लिया झगड़ा
मलिनता ने 
धवलता को
'सलिल' रगडा
शनिश्चर कमजोर
मंगल पड़ा तगड़ा

दस्यु के 
मन में 
छिपा नब 
चाहिए

* 

१३. चूहा झाँक रहा  


चूहा झाँक रहा हंडी में
लेकिन पाई 
सिर्फ हताशा

मेहनतकश के 
हाथ हमेशा 
रहते हैं क्यों 
खाली-खाली?
मोटी तोंदों के 
महलों में
क्यों बसंत 
लाता खुशहाली?

ऊँची कुर्सीवाले पाते 
अपने मुँह में 
सदा बताशा

भरी तिजोरी 
फिर भी भूखे
वैभवशाली 
आश्रमवाले 
मुँह में राम 
बगल में छूरी 
धवल वसन
अंतर्मन काले

करा रहा या 'सलिल' कर रहा
ऊपरवाला 
मुफ्त तमाशा?

अँधियारे से 
सूरज उगता
सूरज दे जाता 
अँधियारा
गीत बुन रहे 
हैं सन्नाटा,
सन्नाटा हँस  
गीत गुँजाता  

ऊँच-नीच में पलता नाता
तोल तराजू 
तोला-माशा

* 

१४. ऑंखें रहते 


आँखें रहते 
सूर हो गये
जब हम खुद से  
दूर हो गये
खुद से खुद की 
भेंट हुई तो-
जग-जीवन के
 नूर हो गये

सबलों के आगे 
झुकते सब
रब के आगे 
झुकता है नब
वहम अहम् का 
मिटा सकें तो-
मोह न पाते 
दुनिया के ढब
जब यह सत्य 
समझ में आया-
भ्रम-मरीचिका 
दूर हो गये

सुख में दुनिया 
लगी सगी है
दुःख में तनिक न 
प्रेम पगी है
खुली आँख तो 
रहो सुरक्षित-
बंद आँख तो 
ठगा-ठगी है.
दिल पर लगी 
चोट तब जाना-
संजीवित 
संतूर हो गये
* 

१५. गीत का  
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है

कोहरे से
गले मिलते 
भाव
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव

शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है

फूल-पत्तों पर
जमी है 
ओस
घास पाले को
रही है 
कोस

हौसला सज्जन
झुकाये सिर-
मानसी का
मान करता है

नमन पूनम को
करे 
गिरि-व्योम.
शारदा
निर्मल,
निनादित ॐ
नर्मदा का ओज
देख मनोज
'सलिल' सँग 
गुणगान करता है

* 

१६. निर्झर सम  


निर्झर सम 
निर्बंध बहो,
सत नारायण 
कथा कहो

जब से 
उजडे हैं पनघट
तब से 
गाँव हुए मरघट

चौपालों में 
हँसो-अहो

पायल-चूड़ी 
बजने दो
नथ-बिंदी भी 
सजने दो 

पीर छिपा-
सुख बाँट गहो

अमराई 
सुनसान न हो
कुँए-खेत
वीरान न हो

धूप-छाँव 
मिल 'सलिल' सहो

* 

१७. महका-महका 

महका-महका 
मन-मन्दिर रख 
सुगढ़-सलौना 
चहका-चहका 

आशाओं के 
मेघ न बरसे
कोशिश तरसे 
फटी बिमाई
मैली धोती 
निकले घरसे
बासन माँजे
कपड़े धोये 
काँख-काँखकर
समझ न आये
पर-सुख से 
हरषे या तरसे?

दहका-दहका 
बुझा 
हौसलों का अंगारा 
लहका-लहका 

एक महल 
सौ कुटी-टपरिया  
कौन बनाये? 
ऊँच-नीच यह 
कहो खोपड़ी
कौन बताये?
मेहनत भूखी
चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी 
मंजिल? सपने 
हों न पराये 

बहका-बहका 
सम्हल गया पग
बढ़ा राह पर 
ठिठका-ठहका

* 

१८. कम लिखता हूँ 

क्या?

कैसा है??
क्या बतलाऊँ?? 
कम लिखता हूँ
बहुत समझना 
 
पोखर सूखे
पानी प्यासा
देती पुलिस 
चोर को झाँसा
खेतों संग 
रोती अमराई
अन्न सड़ रहा 
फिके उदासा


है  

गरीब की

किस्मत पाना 

केवल छलना  
भूखा मरना



हुई तलाशी 

मिला न दाना
चमड़ी ही है 
तन पर बाना
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'
जिला प्रशासन
बना बहाना


जो 

जैसा है 

सँकुच छिपाऊँ 

झिझक बताऊँ 

नहीं झिड़कना 


शेष न जंगल

यही अमंगल
पर्वत खोदे 
हमने तिल-तिल
नदियों में 
लहरें ना पानी
न्योता मरुथल 
हाथ रहे मल


मत 

झुठलाना 
कुछ शर्माना 
विसंगति 
तनिक अटकना  


* 

१९. उत्सव का मौसम


उत्सव का मौसम 
बिन आये ही 

सटका है

मुर्गे की 

टेर सुन 
आँख मूँद 

सो रहे
ऊषा की 

रूप-छवि
बिन देखे 

खो रहे

ब्रेड बटर बिस्कुट 
मन उन्मन ने
गटका है 

नाक बहा

टाई बाँध 
अंगरेजी 

बोलेंगे
अब कान्हा 

गोकुल में 
नाहक ना 

डोलेंगे


लोरी को राइम ने 
औंधे मुँह 

पटका है


निष्ठा ने 

मेहनत से 
डाइवोर्स 

चाहा है
पद-मद ने 

रिश्वत का
टैक्स फिर 

उगाहा है


मलिन बिम्ब देख-देख 
मन-दर्पण 

चटका है


देह को 

दिखाना ही 
प्रगति 

परिचायक है
राजनीति 

कहे साध्य
केवल 

खलनायक है

पगडंडी भूल
राजमार्ग राह 

भटका है


मँहगाई 

आयी
दीवाली 

दीवाला है

नेता है

अफसर है
पग-पग 

घोटाला है

 
अँगने  को खिड़की 
दरवाजे से 

खटका है


* 

२०. चाह किसकी 

चाह किसकी है
कि वह 
निर्वंश हो?....

ईश्वर 
अवतार लेता
क्रम न 
होता भंग
त्यगियों में 
मोह बसता
देख 
दुनिया दंग
संग-संगति हेतु 
करते
जानवर बन 
जंग
पंथ-भाषा 
कोई भी हो
एक ही है 
ढंग

चाहता कण-कण
कि बाकी 
अंश हो

अंकुरित 
पल्लवित 
पुष्पित
फलित 
बीजित 
झाड़ हो
हरितिमा बिन 
सृष्टि सारी
खुद-ब-खुद 
निष्प्राण हो  
जानता नर 
काटता क्यों?
जाग-रोपे 
पौध अब
रह सके 
सानंद प्रकृति
हो ख़ुशी की 
सौध अब

पौध रोपें, 
वृक्ष होकर 'सलिल' 
कुल अवतंश हो 
 

* 

२१. मानव तो 


मानव तो करता है 

निश-दिन मनमानी
प्रकृति से छेड़-छाड़

घातक नादानी

काट दिये जंगल
दरकाये पहाड़
नदियाँ भी दूषित कीं
किया नहीं लाड़

गलती को ले सुधार

कर मत शैतानी
'रुको' कहे प्रकृति से 

कैसी नादानी??


पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत
धूल-धुआँ-शोर करे
प्रकृति को हताहत

घायल ऋतु-चक्र हुआ

जो है लासानी

प्रकृति से छेड़-छाड़

भ्रामक नादानी 

पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास
हमने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास
सूर्य तपे, कहे सुधर

बचा 'सलिल' पानी

नानक-कबीर थके 

सुन-गन ले बानी 


* 

२२. ज़िंदगी के मानी


खोल झरोखा, झाँक 
ज़िंदगी के मानी 

मिल जायेंगे
मेघ बजेंगे

पवन बहेगा
पत्ते नृत्य दिखायेंगे 
 

बाल सूर्य के सँग 

ऊषा आ 
शुभ प्रभात 

कह जाएगी
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ 

कर गौरैया
रोज प्रभाती 

गायेगी

टिट-टिट-टिट-टिट 

करे टिटहरी,  
करे कबूतर 

गुटरूं-गूं-
कूद-फाँदकर 

हँसे गिलहरी
तुझको 

निकट बुलायेगी 
                                                                                             
आलस मत कर

आँख खोल, हम 

सुबह घूमने जायेंगे


आई गुनगुनी 

धूप सुनहरी 
माथे तिलक 

लगाएगी. 
अगर उठेगा 

देरी से तो 
आँखें लाल 

दिखायेगी

मलकर बदन 

नहा ले जल्दी
प्रभु को भोग

लगाना है 
टन-टन घंटी 

मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी

मुक्त कंठ-गा भजन-आरती
सरगम-स्वर 

सध जायेंगे

मेरे कुँवर 

कलेवा कर फिर
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना

खेल-कूदना

अपना ज्ञान 

बढ़ाना है

अक्षर,शब्द, वाक्य

पुस्तक पढ़
तुझे मिलेगा 

ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर 

आगे चलकर 
तुझे सफलता 

पाना है

सारी दुनिया घर जैसी है
गैर स्वजन 

बन जायेंगे

* 

२३. जीवन की जय 
  

जीवन की
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन 
           तपता सूरज
           आँख दिखाता
           जगत जल रहा
           पीर सौ गुनी
           अधिक हुई है
            नेह गल रहा
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन 
             निशा उषा
             संध्या को छलता
             सुख का चंदा
             हँसता है पर
             काम किसी के
             आये न बन्दा
सब अपने
में लीन
तुझे प्यारी
अपनी धुन
            महाकाल के
            हाथ जिंदगी
           यंत्र हुई है
           स्वार्थ-कामना ही
           साँसों का
           मन्त्र मुई है
तंत्र लोक पर
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन


* 

२४. हर चेहरे में 



हर चेहरे में 
अलग कशिश है,
आकर्षण है 
 
मिलन-विरह में

नयन-बयन में

गुण-अवगुण या 

चाल-चलन में


कहीं मोह का
कहीं द्रोह का 
संघर्षण है


मन की मछली

तन की तितली

हाथ न आयी

पल में फिसली

 

क्षुधा-प्यास का
श्वास-रास का
नित तर्पण है


चंचल चितवन

सद्गुण-परिमल

मृदुल-मधुर सुर

आनन मंजुल


हाव-भाव ये 
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है 

गिरि-सलिलाएँ

काव्य-कथाएँ
कही-अनकही

सुनें-सुनाएँ


कलरव-गुंजन

माटी-कंचन
नव दर्पण है


बुनते सपने

मन में अपने

समझ न आते  

जग के नपने 

जन्म-मरण में
त्याग-वरण में
संकर्षण है

* 


२५. डर लगता है 


डर लगता है

आँख खोलते 


कालिख हावी है
उजास पर
जयी न कोशिश
क्षुधा-प्यास पर
रुदन हँस रहा 
त्रस्त हास पर
आम प्रताड़ित 
मस्त खास पर

डर लगता है 
बोल बोलते

लूट फूल को 
शूल रहा है
गरल अमिय को
भूल रहा है
राग- द्वेष का 
मूल रहा है
सर्प दर्प का 
झूल रहा है.

डर लगता है 
पोल खोलते

आसमान में
तूफाँ छाया
कर्कश स्वर में 
उल्लू गाया
मन ने तन को 
है भरमाया
काया का 
गायब है साया

डर लगता है
पंख तोलते


* 

२६. अवध तन 


अवध तन
मन राम हो 

आस्था सीता का 
संशय का दशानन
हरण करता है 
न तुम चुपचाप हो
बावरी मस्जिद 
सुनहरा मृग- छलावा
मिटाना इसको कहो 
क्यों पाप हो?

उचित छल को जीत 
छल से मौन रहना 
उचित करना काम 
पर निष्काम हो

दगा के बदले 
दगा ने दगा पाई
बुराई से निबटती
यूँ ही बुराई
चाहते हो तुम 
मगर संभव न ऐसा-
भलाई के हाथ 
पिटती हो बुराई 

जब दिखे अंधेर 
तब मत देर करना
ढेर करना अनय
कुछ अंजाम हो

किया तुमने वह 
लगा जो उचित तुमको
ढहाया ढाँचा 
मिटाया क्रूर भ्रम को
आज फिर संकोच क्यों? 
निर्द्वंद बोलो-
सफल कोशिश करी
हरने दीर्घ तम को

सजा या ईनाम का 
भय-लोभ क्यों हो?
फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ 
या वाम हो?


* 

२७. सागर उथला 

सागर उथला
पर्वत गहरा...

डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही
सौ पाए तो हैं अयोग्य
दस पायें वाहा-वाही
नाली का
पानी बहता है
नदिया का 
जल ठहरा

अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र
सत्य-असत्य न जानें-मानें
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र
बहस कर रहा 
है वकील 
न्यायालय
गूंगा-बहरा

मना-मनाकर भारत हारा
लेकिन पाक न माने
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का 
जाना नहीं
ककहरा


* 

२८.  माटी में 


काया माटी,

माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी

बजा रहे
ढोलक-शहनाई
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई

इमली कभी
चटाई-चाटी

आडम्बर करना
मन भाया
खुद को खुद से
खुदी छिपाया
पाया-खोया
खोया-पाया
जब भी दूरी
पाई-पाटी

मौज मनाना
अपना सपना
नहीं सुहाया
कोई नपना
निजी हितों की
माला जपना 

'सलिल' न दाँतों 
रोटी काटी

चाह बहुत पर
राह नहीं है
डाह बहुत पर
वाह नहीं है
पर पीड़ा लख
आह नहीं है
देख सचाई
छाती फाटी

मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते
बिन मतलब भी
पलते नाते

छाया लम्बी
काया नाटी 


* 

२९. जब तक कुर्सी 


जब तक कुर्सी
तब तक ठाठ

नाच जमूरा
नचा मदारी
सत्ता भोग
करा बेगारी
कोइ किसी का
सगा नहीं है
स्वार्थ साधने
करते यारी
फूँको नैतिकता
ले काठ

बेच-खरीदो
रोज देश को
साध्य मान लो
भोग-ऐश को
वादों का क्या
किया-भुलाया
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को
झूठ आचरण
सच का पाठ

मन पर तन ने
राज किया है
बिजली गायब
बुझा दिया है
सच्चाई को
छिपा रहे हैं
भाई-चारा
निभा रहे हैं
सोलह कहो
भले हो साठ

* 

३०. मैं अपना 


मैं अपना
जीवन लिखता
तुम कहते
गीत-अगीत है

उठता-गिरता
फिर भी चलता
सुबह ऊग
हर साँझा ढलता
निशा, उषा,
संध्या मन मोहें
दें प्राणों को
विरह-विकलता
राग-विराग
ह्रदय में धारे
साथी रहे
अतीत हैं

पाना-खोना
हँसाना-रोना
फसल काटना
बीजे बोना
शुभ का श्रेय
स्वयं ले लेना
दोष अशुभ का
प्रभु को देना
जान-मानकर
सच झुठलाना
दूषित सोच
कुरीत है

देखे सपने
भूले नपने
जो थे अपने
आये ठगने
कुछ न ले रहे
कुछ न दे रहे
व्यर्थ उन्हें हम
गैर कह रहे

रीत-नीत में
छुपी हुई क्यों
बोलो 'सलिल'
अनीत है?

* 

३१. सूना सूना 


सूना-सूना
घर का द्वार,
मना रहे
कैसा त्यौहार?

भौजाई के
बोल नहीं
बजते ढोलक
ढोल नहीं
नहीं अल्पना
रांगोली
खाली रिश्तों
की झोली
पूछ रहे:
हाऊ यू आर?
मना रहे
कैसा त्यौहार?

माटी का
दीपक गुमसुम
चौक न डाल
रहे हम-तुम
सज्जा हेतु
विदेशी माल
कुटिया है
बेबस-बेहाल
श्रमजीवी
रोता बेज़ार
मना रहे
कैसा त्यौहार?

हल्लो!, हाय!!
मोबाइल ने
दिया न हाथ
गले मिलने
नातों को
जीता छल ने
लगी चाँदनी
चुप ढलने
'सलिल' न प्रवहित
नेह-बयार
मना रहे
कैसा त्यौहार?


* 

३२. महाकाल के  


महाकाल के
महाग्रंथ का

नया पृष्ठ फिर 
आज खुल रहा

वह काटोगे
जो बोया है
वह पाओगे
जो खोया है

सत्य-असत, 
शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब 
आज तुल रहा

खुद अपना
मूल्यांकन कर लो
निज मन का
छायांकन कर लो

तम-उजास को
जोड़ सके जो
कहीं बनाया 
कोई पुल रहा?

तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?

स्नेह-सलिल 
कब सींचा?
बगिया में आभारी 
कौन गुल रहा?...

स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?

चित्रगुप्त की
कर्म-तुला पर
खरा कौन सा 
कर्म तुल रहा?

खाली हाथ?
न रो-पछताओ
कंकर से
शंकर बन जाओ

ज़हर पियो, हँस
अमृत बाँटो
देखोगे मन मलिन 
धुल रहा


* 

३३. ओढ़ कुहासे की  


ओढ़ कुहासे की चादर
धरती लगाती दादी
ऊँघ रहा सतपुड़ा 
लपेटे मटमैली खादी

सूर्य अँगारों की 
सिगड़ी है
ठण्ड भगा ले भैया

श्वास-आस संग
उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया

तुहिन कणों को
हरित दूब
लगती कोमल गादी

कुहरा छाया 
संबंधों पर
रिश्तों की गरमी पर
हुए कठोर 
आचरण अपने
कुहरा है नरमी पर

बेशरमी 
नेताओं ने
पहनी ओढी-लादी


नैतिकता की
गाय काँपती
संयम छत टपके
हार गया श्रम 
कोशिश कर-कर 
बार-बार अबके

मूल्यों की ठठरी 
मरघट तक
ख़ुद ही पहुँचा दी

भावनाओं को
कामनाओं ने
हरदम ही कुचला

संयम-पंकज 
लालसाओं के
पंक फँसा फिसला

अपने घर की
अपने हाथों
कर दी बर्बादी

बसते-बसते
उजड़ी बस्ती
फ़िर-फ़िर बसना है

बस न रहा
ख़ुद पर तो
परबस 'सलिल' तरसना है

रसना रस ना ले 
लालच ने
लज्जा बिकवा दी

हर 'मावस 
पश्चात् पूर्णिमा 
लाती उजियारा

मृतिका दीप
काटता तम की
युग-युग से कारा

तिमिर पिया
दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी


* 

३४ . दिल में अगर 



दिल में अगर 

हौसला हो तो
फिर पहले सी 

बातें होंगी

कहा किसी ने- 

'नहीं लौटता 
पुनः नदी में 

बहता पानी'

पर नाविक 

आता है तट पर
बार-बार ले 

नयी कहानी 

हर युग में 

दादी होती है 
होते हैं पोती 

और पोते

समय देखता 

लाड़-प्यार के
रिश्तों में दुःख-

पीड़ा खोते 

नयी कहानी 

नयी रवानी
सुखमय सारी 

रातें होंगी 

सखा-सहेली 

अब भी मिलते
बनते किस्से 

दिल भी खिलते

रूठ मनाना 

बात बनाना
आँख दिखाना

हँस-मुस्काना 

समय नदी के

दूर तटों पर
यादों की 

बारातें होंगी

तन बूढ़ा हो 

साथ समय के
मन जवान रख 

देव प्रलय के

'सलिल'-श्वास 

रस-खान, न रीते
हो विदेह सुन 

गान विलय के

ढाई आखर की 

सरगम सुन
कहीं न शह या 

मातें होंगी

* 

३५. पग की किस्मत 


राज मार्ग हो
या पगडंडी
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना

सावन-मेघ
बरसते आते
रवि गर्मी भर
आँख दिखाते
ठण्ड पड़े तो
सभी जड़ाते

कभी न थमता
पौ का फटना

मीरा, राधा,
सूर, कबीरा,
तुलसी, वाल्मीकि
मतिधीरा
सुख जैसे ही
सह ली पीड़ा

नाम न छोड़ा
लेकिन रटना

लोकतंत्र का
महापर्व भी
रहता जिस पर
हमें गर्व भी
न्यूनाधिक
गुण-दोष समाहित

कोई न चाहे-
कहीं अटकना

समय चक्र
चलता ही जाए
बार-बार
नव वर्ष मनाए
नाश-सृजन को
संग-संग पाए

तम-प्रकाश से
'सलिल' न हटना

थक मत, रुक मत,
झुक मत, चुक मत.
फूल-शूल सम-
हार न हिम्मत.
'सलिल' मिलेगी
पग-तल किस्मत

मौन चलाचल
नहीं पलटना

* 

३६. सारे जग को 


सारे जग को 
जान रहे हम,
लेकिन खुद को 
जान न पाये 

जब भी मुड़कर
पीछे देखा
गलत मिला 
कर्मों का लेखा 

एक नहीं 
सौ बार अजाने 
लाँघी थी निज 
लछमन रेखा

माया-ममता 
मोह-लोभ में
फँस पछताये 
जन्म गँवाये 

पाँच ज्ञान की 
पाँच कर्म की
दस इन्द्रिय 
तज राह धर्म की

दशकन्धर तन 
के बल ऐंठी
दशरथ मन में
पीर मर्म की

श्रवण कुमार 
सत्य का वध कर
खुद हैं- खुद से
आँख चुराये  

जो कैकेयी 
जान बचाये  
स्वार्थ त्याग 
सर्वार्थ सिखाये

जनगण-हित 
वन भेज राम को-
अपयश गरल 
स्वयम पी जाये

उस सा पौरुष 
जिसे विधाता
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये

* 

३७.  बिक रहा ईमान 

 
कौन कहता है कि
मँहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता 
बिक रहा ईमान है

जहाँ जाओगे 
सहज ही देख लोगे 

बिक रहा 
बेदाम ही इंसान है

कहो जनमत का 
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ 
भारी पोल है

कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू
व्यवस्था में हर कहीं 
बस झोल है


सत्य जिव्हा पर  

असत का 
गान है 

आँख का आँसू
हृदय की भावनाएँ
हौसला अरमान सपने 
समर्पण की कामनाएँ
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
इबादत को कहो 

कैसे तौल लोगे?

मंदिरों में

विराजित 

हैवान है 


आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम
मुफ्त बिकते 
कहो, सच या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते 
बिक़े होंगे मूल्य
बिक रहे हैं 
आज जो निर्मूल्य?

आदमी से

बेहतर तो 

श्वान है  


मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो 
मान लेता हूँ कि 
आदम जात से हो 
जात औ' औकात निज 
बिकने न देना
मुनाफाखोरों को 
अब टिकने न देना 

भाई से अब 

भाई ही  

हैरान है 


* 

३८.  मौन निहारो...


रूप राशि को 
मौन निहारो...

पर्वत-शिखरों पर

जब जाओ
स्नेहपूर्वक छू 

सहलाओ

हर उभार पर

हर चढाव पर-
ठिठको, गीत 

प्रेम के गाओ

स्पर्शों की 

संवेदन-सिहरन 
चुप अनुभव कर 

निज मन वारो

जब-जब तुम 

समतल पर चलना
तनिक सम्हलना

अधिक फिसलना

उषा सुनहली

शाम नशीली-
शशि-रजनी को 

देख मचलना

मन से तन का

तन से मन का- 
दरस करो

आरती उतारो

घाटी-गव्हरों में 

यदि उतरो
कण-कण, तृण-तृण 

चूमो-बिखरो

चन्द्र-ज्योत्सना

सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ

खुश हो निखरो

नेह-नर्मदा में 

अवगाहन-
करो 'सलिल' 

'पी कहाँ' पुकारो

* 

३९.  हम भू माँ की 


हम भू माँ की
छाती खोदें
वह देती है सोना
आमंत्रित कर रहे
नाश निज
बस इतना है रोना

हमें स्वार्थ
अपना प्यारा है
नहीं देश से मतलब
क्रय-विक्रय कर रहे
रोज हम
ईश्वर हो या हो रब
कसम न सीखेंगे
सुधार की
फसल रोपना-बोना

जोड़-जोड़
जीवन भर मरते
जाते खाली हाथ
शीश उठाने के
चक्कर में
नवा रहे निज माथ
काश! पाठ पढ लें
सीखें हम
जो पाया, वह खोना

निर्मल होने का
भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर
बने हुए हैं
स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर
किसने किया?
कटेगा कैसे?
'सलिल' निगोड़ा टोना
* 


४०.  राह हेरते 


पलक बिछाए
राह हेरते

जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.

आम आदमी
त्रस्त -टेरते

लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है
अंत न मालुम
अंध कुआ है

अन्यायी मिल
मार-घेरते

मुँह  में राम
बगल में छूरी
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी
जपना राम
हुई मजबूरी
जितनी गाथा
कहो अधूरी

अपने सपने
'सलिल' पेरते
* 


४१. रंगों का 

रंगों का फिर पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती 
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें
बोली अनुमानें मौन
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
* 

४२. कहाँ जा रहे हो?

पाखी समय का
ठिठक पूछता है
कहाँ जा रहे हो?

उमड़ आ रहे हैं 
बादल गगन पर
तूफां में उड़ते 
पंछी भटककर
लिये हाथ में हाथ 
जाते कहाँ हो?
बैठे हो क्यों बन्धु! 
खुद में सिमटकर
साथी प्रलय से 
सतत जूझता और
सुस्ता रहे हो?.

मलय कोई देखे 
कैसे नयन भर
विलय कोई लेखे 
कैसे शयन कर
निलय काँपते देख 
झंझा-झकोरे
मनुज क्यों सशंकित 
थमकर, ठिठककर  
साथी 'सलिल' का
नहीं सूझता देख
मुस्का रहे हो?...
* 

४३.
​ सड़क पर
 

सड़क पर 
सतत ज़िंदगी चल रही है

उषा की किरण का 
सड़क पर बसेरा
दुपहरी में श्रम के 
परिंदे का फेरा 
संझा-संदेसा
प्रिया-घर ने टेरा
रजनी को नयनों में 
सपनों का डेरा

श्वासा में आशा
विहँस पल रही है

कशिश कोशिशों की
सड़क पर मिलेगी
कली मेहनतों की
सड़क पर खिलेगी
चीथड़ों में लिपटी 
नवाशा मिलेगी
कचरा उठा 
जिंदगी हँस पलेगी

महल में दुपहरी 
बहक, ढल रही है
सड़क पर सड़क से
सड़क मिल रही है

अथक दौड़ते पग 
सड़क के हैं संगी 
सड़क को न भाती 
हैं चालें दुरंगी
सड़क पर न करिए
सियासत फिरंगी
'सलिल'-साधना से 
सड़क स्वास्थ्य-चंगी

सियासत जनता को  
नित छल रही है
* 


४४.
​ दिशाहीन बंजारे 


कौन, किसे, 
कैसे समझाये?
सब निज मन से 
हारे हैं

इच्छाओं की 
कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं
उस पर भी 
तुर्रा यह खुद को 
तीसमारखां पाते हैं

रास न आये 
सच कबीर का
हम बुदबुद 
गुब्बारे हैं

बिजली के 
जिन तारों से
टकरा पंछी 
मर जाते हैं
हम नादां 
उनका प्रयोगकर
घर में दीप 
जलाते हैं.

कोई न जाने 
कब चुप हों-
नाहक बजते 
इकतारे हैं

पान, तमाखू, 
ज़र्दा, गुटखा
खुद खरीदकर 
खाते हैं
जान हथेली 
पर लेकर
वाहन जमकर 
दौड़ाते हैं

'सलिल' शहीदों के 
वारिस या
दिशाहीन 
बंजारे हैं 
* 

४५. रंग हुए बदरंग 



रंग हुए बदरंग
मनाएँ कैसे होली?

घर-घर में राजनीति
घोलती ज़हर
मतभेदों की प्रबल
हर तरफ लहर
अँधियारी सांझ है
उदास है सहर
अपने ही अपनों पर
ढा रहे कहर
गाँव जड़-विहीन
पर्ण-हीन है शहर

हर कोई नेता हो
तो कैसे हो टोली?

कद से  भी ज्यादा है
लंबी परछाईं
निष्ठा को छलती है
शंका हरजाई
समय करे कब-कैसे
क्षति की भरपाई?
चंदा तज, सूरज संग
भागी जुनहाई
मौन हुईं आवाजें
बोलें तनहाई
कवि ने ही छंदों को
मारी है गोली

अपने ही सपने सब
रोज़ रहे तोड़
वैश्विकता क्रय-विक्रय
मची हुई होड़
आधुनिक वही है जो
कपडे दे छोड़
गति है अनियंत्रित
हैं दिशाहीन मोड़
घटाना शुभ-सरल
लेकिन मुश्किल है जोड़
कुटिलता वरेण्य हुई
त्याज्य सहज बोली
* 


४६.कैसी नादानी?

मानव तो करता है 
निश-दिन मनमानी.
प्रकृति से छेड़-छाड़
घातक नादानी...

काट दिये जंगल
दरकाये पहाड़
नदियाँ भी दूषित कीं
किया नहीं लाड़
गलती को ले सुधार
कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से 
कैसी नादानी??...

पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत
घायल ऋतु-चक्र हुआ
जो है लासानी...
प्रकृति से छेड़-छाड़
घातक नादानी...

पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास
हमने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास
सूर्य तपे, कहे सुधर
बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से 
कैसी नादानी??...
* 

४७. दिल में अगर  

दिल में अगर 

हौसला हो तो

फिर पहले सी

बातें होंगी


कहा किसी ने- 'नहीं लौटता 

पुनः नदी में बहता पानी'

पर नाविक आता है तट पर

बार-बार ले नयी कहानी


हर युग में दादी होती है
होते हैं पोती और पोते
समय देखता लाड-प्यार के
रिश्तों में दुःख-पीड़ा खोते

समय नदी के 

दूर तटों पर

यादों की 

बारातें होंगी

तन बूढा हो साथ समय के
मन जवान रख देव प्रलय के
'सलिल'-श्वास रस-खान, न रीते
हो विदेह सुन गान विलय के


नयी कहानी नयी रवानी

कहीं सदाशिव कहीं भवानी  

सखा-सहेली अब भी मिलते
छिड़ते किस्से, दिल भी खिलते

ढाई आखर की 

सरगम सुन

कहीं न शह या 

मातें होंगी

* 


४८. भ्रम मत पालें 

भ्रम मत पालें 
द्वापर युग में 
कौरव कुल था नष्ट हुआ 

वंश-वृक्ष कट गया 
किन्तु जड़ 
शेष रह गयी थी 
तब भी 
इसीलिये 
आँखों पर पट्टी  
बाँध न्याय होता 
अब भी

मंत्रालय में 
सचिवालय में 
अब भी शकुनि 
पैठा है 
दु:शासन 
खाकी वर्दी में 
कुचल दीन को 
ऐंठा है  

सत्य विदुर को 
तब भी दुःख था 
अब भी हर पल कष्ट हुआ 

तब भी लुटी 
द्रौपदी अब भी 
लुटी निर्भया 
अपनों से 
कृष्ण, न अर्जुन 
छले गए 
हौसले निरंतर 
सपनों से 

तब भी प्रतिभा 
ठगी गयी थी
अब भी हो 
नीलाम रही 
तब था गुरु 
स्वार्थों का कैदी
अब शिक्षा 
बेकाम रही  

धर्म हुआ था  
तब भी दूषित  
अब भी मजहब भृष्ट हुआ 

* 


४९. प्यार बिका है   

प्यार बिका है  
बीच बजार

परिधि केंद्र को घेरे मौन 
चाप कर्ण को जोड़े कौन 
तिर्यक रेखा तन-मन को 
बेध रही या बाँट रही?

हर रेखा में 
बिंदु हजार 

त्रिभुज-त्रिकोण न टकराते 
संग-साथ रह बच जाते 
एक-दूसरे से सहयोग
करें, न हो संयोग-वियोग

टिके वही 
जिसका आधार

कलश नींव को जब भूले 
नींव कहे: उड़ नभ छू ले    
छत को थामे ना दीवार 
खिड़की से टकराये द्वार 

बाँध बहा दे 
एक दरार     
* 


५०. नेह-नाता  


भूख का 

पेट का 

नेह-नाता अमर 


काँप रहा चुप शांति कबूतर 

तूफां में कंपित है कोटर 

शाखा पर चढ़ आया सर्प 

पाँच बरस फिर बड़ा गर्क 


लोक से  

तंत्र का  

कब नहीं था समर 

लड़ पड़े फावड़े-गेंतियाँ
सूखती रह गयी खेतियाँ 
आग देते लगा लाड़ले 
सिसकती ही रहीं बेटियाँ 

गाँव को 
छाँव को 
लीलता है शहर 

मंडियों में लुटे ख्वाब हैं 
रंडियों पे चढ़ी आब है
सिया-सत लूटती जा रही 
सियासत झूमती जा रही 

होश बिन 
जोश बिन 
किस तरह हो बसर?


*

​५१. 
नेह नर्मदा
 

         
त्रिपदिक नवगीत :  जनक छंद (३ पंक्तियाँ, प्रत्येक में १३ मात्राएँ, पदांत में लघु गुरु लघु या लघु लघु लघु लघु आवश्यक ]

                
नेह नर्मदा तीर पर
       अवगाहन कर धीर धर
           पल-पल उठ-गिरती लहर 
                  
कौन उदासी-विरागी
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?

          निष्क्रिय, मौन, हताश है. 
          या दिलजला निराश है?
          जलती आग पलाश है.

जब पीड़ा बनती भँवर,
       खींचे तुझको केंद्र पर,
           रुक मत घेरा पार कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
सुन पंछी का मशविरा,
मेघदूत जाता फिरा-
'सलिल'-धार बनकर गिरा.

          शांति दग्ध उर को मिली. 
          मुरझाई कलिका खिली.
          शिला दूरियों की हिली.

मन्दिर में गूँजा गजर,
       निष्ठां के सम्मिलित स्वर,
           'हे माँ! सब पर दया कर...
                   *
नेह नर्मदा तीर पर,
       अवगाहन का धीर धर,
           पल-पल उठ-गिरती लहर...
                   *
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.

          सिकता कण लख नाचते. 
          कलकल ध्वनि सुन झूमते.
          पर्ण कथा नव बाँचते.

बम्बुलिया के स्वर मधुर,
       पग मादल की थाप पर,
           लिखें कथा नव थिरक कर...
                   *


५२. मस्तक की रेखाएँ …

*
मस्तक की रेखाएँ
कहें कौन बाँचेगा?
*
आँखें करतीं सवाल
शत-शत करतीं बवाल।
समाधान बच्चों से
रूठे, इतना मलाल।
शंका को आस्था की
लाठी से दें हकाल।
उत्तर न सूझे तो
बहाने बनायें टाल।

सियासती मन मुआ
मनमानी ठाँसेगा …
*
अधरों पर मुस्काहट
समाधान की आहट।
माथे बिंदिया सूरज
तम हरे लिये चाहत।
काल-कर लिये पोथी
खोजे क्यों मनु सायत?
कल का कर आज अभी
काम, तभी सुधरे गत।

जाल लिये आलस
कोशिश पंछी फाँसेगा…
*

५३. अजब निबंधन

*
अजब निबंधन
गज़ब प्रबंधन

नायक मिलते
सैनिक भिड़ते
हाथ मिलें संग
पैर न पड़ते

चिंता करते
फ़िक्र न हरते
कूटनीति का
नाटक मंचन
*
झूले झूला
अँधा-लूला
एक रायफल
इक रमतूला

नेह नदारद
शील दिखाएँ
नाहक करते
आत्म प्रवंचन
*
बिना सिया-सत
अधम सियासत
स्वार्थ सिद्धि को
कहें सदाव्रत

नाम मित्रता
काम अदावत
नैतिकता का
पूर्ण विखंडन
***
५४. कोशिश कर-कर हारा  
*
कोशिश कर-कर हांरा 
लेकिन हाथ न आई। 
अँधियारे कब देख सका है 
निज परछांई?
*
मौत उजाले की होती 
कब-किसने देखी?
सौत अँधेरी रात 
हमेशा ही अदेखी। 
किस्मत जुगनू सी 
टिमटिम कर राह दिखाती। 
शरत चाँदनी सी मंज़िल 
पथ हेर लुभाती।  
दौड़ा लपका हाथ बढ़ा 
कर लूँ कुड़माई। 
कोशिश कर-कर हांरा 
लेकिन हाथ न आई। 
अँधियारे कब देख सका है 
निज परछांई?
*
अपने सपने  
पल भर में नीलाम हो गये। 
नपने बने विधाता  
काहे वाम हो गये? 
को पूछे किससे, काहे 
कब, कौन बताये? 
किस्से दादी संग गये  
अब कौन सुनाये?  
पथवारी मैया 
लगती हैं गैर-पराई। 
कोशिश कर-कर हांरा 
लेकिन हाथ न आई। 
अँधियारे कब देख सका है 
निज परछांई?
*
५५. क्या सचमुच?

*
क्या सचमुच स्वाधीन हम?

गहन अंधविश्वास सँग
पाखंडों की रीत
शासन की मनमानियाँ
सहें झुका सर मीत

स्वार्थ भरी नजदीकियाँ
सर्वार्थों की मौत
होते हैं परमार्थ नित
नेता हाथों फ़ौत

संसद में भी कर रहे
जुर्म विहँस संगीन हम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
तंत्र लाठियाँ घुमाता
जन खाता है मार
उजियारे की हो रही
अन्धकार से हार

सरहद पर बम फट रहे
सैनिक हैं निरुपाय
रण जीतें तो सियासत
हारे, भूल भुलाय

बाँट रहें हैं रेवड़ी
अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
दूषित पर्यावरण कर
मना रहे आनंद
अनुशासन की चिता पर
गिद्ध-भोज सानंद

दहशतगर्दी देखकर
नतमस्तक कानून
बाज अल्पसंख्यक करें
बहुल हंस का खून

सत्ता की ऑंखें 'सलिल'
स्वार्थों खातिर नम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*

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