कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा:
'नील वनों के पार' श्रृंगार की बहार  
आचार्य संजीव वर्मा सलिल'
*
[कृति विवरण: नील वनों के पार, गीतसंग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण, २००८, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, प्रकाशक-रचनाकार संपर्क- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
*
"नील वनों के पार" ख्यात नवगीतकार श्री निर्मल शुक्ल के ऐसे आरंभिक गीतों का संग्रह है जिनमें नवगीत की सामान्य से भिन्न आहट सुनाई देती है। शुक्ल जी जिस पृष्ठभूभि से साहित्य का संस्कार ग्रहण करते हैं वहाँ, सरलता और विद्वता की गंगो-जमुनी धारा सतत प्रवाहित होती रही है। उन्हें देशज बोली, प्रांजल भाषा और बैंक अधिकारी होने के नाते शब्द-शब्द की सटीकता पर सतर्क दृष्टि रखने का संस्कार मिला है। उनके हर गीत की हर पंक्ति में भाषिक प्रौढ़ता के दर्शन होते हैं। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्याराधक प्रो. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' के अनुसार "नवगीत पारंपरिक गीत का ही पूर्ण परिपक्व रसाढ्य फल है और परिपक्वता तथा मधुर-फलत्व के बिंदु तक पहुँचने के लिए एक रचना को लम्बी तपन-यात्रा-प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है... नील वनों के पार का प्रत्येक गीत इस तथ्य का प्रत्यायक है कि निर्मल जी ने गीत-साधना को संपूर्ण गरिमा और गंभीरता के साथ स्वायत्त किया है। परंपरा, प्रयोग और प्रगति ने इनके गीतों को शक्तिमत्ता प्रदान की है। अमिधा, लक्षणा और व्यंजना नामक शब्द-शक्तियों के संगम अर्थ के स्नातक हैं गीत-बटुक। इनके गीत जिस संवेदना-फलक पर अभिव्यक्त हुए हैं वह उदात्त अनुभूतियों और अवदात कल्पनाओं पर आधृत हैं।"

मंगलाचरण में "अहं शिवोस्मि" शीर्षक  गीत में कवि प्रार्थना करता है- 
"हे त्रिविध, त्रिपुरारि शंकर
अलख ज्योतित कीजिए 
रिक्त है मेरा कमंडल 
ज्ञान से भर दीजिए"। 

सर्वज्ञात है कि भोले भंडारी के लिए कुछ अदेय नहीं है। शिव प्रकृति के स्वामी हैं, अत: उन्हें प्रसन्न करने का सुगम उपाय प्रकृति का सौंदर्य-गायन करना ही हो सकता - 
पहन बिछौने 
मौलसिरी के,
तू भी नव परिधान 
वल्लरियों में 
हरसिंगार की 
गुँथी चादरें तान
यह कस्तूरी 
नहीं बावरे 
उनकी गंध समाई है। 

प्रकृति ऋतु-अनुसार ऋतुराज का स्वागत, श्रृंगार और मनुहार की डगर पर पग धरकर करने से नहीं चूकती। जीत में हार और हार में जीत की अनुभूति को अभिव्यक्त करती लेखनी, देह के महकने, साँस के बहकने के पलों में महमहाती मेंहदी की गुनगुनाहट की साखी देती है-
महमहाई  
जीत के 
कुछ हार की मेंहदी 
गात महके 
साँस बहकी 
खो गये 
अभिजात मन 
घोलकर संतूर के 
सुर-तार-सप्तक में 
यमन 
गुनगुनाई 
गीत 
उपसंहार की मेंहदी 

पर्व की तरह प्रतीत होते सुहाने दिनों में रात-रात भर जागकर गुलमोहर के लाल पत्तों को अंक में भरते दिन लाज से गड़ें, निराकार शब्दों के आकार नैनों में तिरने की कल्पना ही अधरों पर गुनगुने उपहार आधार भूमि बने यह स्वाभाविक है। निर्मल जी की प्रयोगधर्मी प्रवृत्ति बिंब संयोजन में लीक से हटकर अपनी राह आप बनाती है। 'मन हिरना को हँस बनाने' की कल्पना जितनी मौलिक है उतनी ही रोमांचक भी। प्रकाश के पंख को छूने के लिए कुमकुम की सौगंध खाकर, सोंधी हल्दी से सनी हथेली नेहातुर अनुगंध को आमंत्रित कर, मन को पावन नीर और तन को कैलाश का हिम बना रहा कवि पलाश का रंग भरकर सुबह की धूप बनाता है। ऐसी अभिनव अनुभूति और उसकी अप्रचलित अभिव्यक्ति अपनी मिसाल आप आप है।
सुबह-सुबह की धूप बना लूँ
भर दूँ रंग पलाश का
मन हिरण को हंस बना लूँ
छू लूँ पंख प्रकाश का
सोंधी हल्दी सनी हथेली
कुमकुम की सौगंध
रह रहकर आमंत्रित करती
नेहातुर अनुगंध
मन को पवन नीर बना लूँ 
तन को हिम कैलाश का

अर्पण और समर्पण की रामायण रचते समय अक्षत-रोली, और देहरी-द्वार महकने लगें तो आनंद शतगुणित हो जाता है-
अक्षत महके
रोली महकी
महके देहरी-द्वार,
इंद्रधनुष के रंग बारे
हो गये बंदनवार
चौबारे में
मिली बानगी
महकी हुयी बयार की

प्रीत की रीत निरखता-परखता गीत सुध-भध भूल जाए, रात स्थाई को आँचल में बाढ़ ले और प्रभात अंतरा दोहराता रहे, तो रग-रग में मधुरता व्याप्त होगी ही-   

कोई टिप्पणी नहीं: