कुल पेज दृश्य

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

ईसुरी ,नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

अलौकिक लोककवि ईसुरी
नर्मदा प्रसाद उपाध्याय 
*

सच्ची कविता वह गंगा है, जो लोक के गोमुख से फूटती है। लोककंठ से निःसृत होनेवाली सहज कविता ही काव्य के अनुशासन को परिभाषित करती है। इस कविता को किसी बोझिल अभिव्यक्ति, गूढ़ चिंतन तथा गहन अध्ययन की आवश्यकता नहीं होती। यह कविता पोथी से परे और आत्मप्रकाशन से कोसों दूर होती है। इस कविता को प्रायोजित सम्मान भले न मिलें, लेकिन इसे लोक सम्मानित करता है। बुंदेलखंड के लोककवि ईसुरी वे कवि हैं, जिनकी कविता को लोक ने सम्मानित किया। वे निकट अतीत के लोक कवि हैं, लेकिन उनकी हस्तलिपि में लिखा हुआ कोई ग्रंथ आज तक नहीं मिला। उनकी कविताओं का संग्रह बुंदेलखंड के लोककंठों में है, जिसके नित्य संस्करण निकलते हैं।

इस लोककवि को जानना वास्तव में हमारे लोकजीवन की आत्मा को जानना है। इसलिए कि उनकी बुंदेली कविता में हमारे जीवन का प्रत्येक व्यवहार झाँकता है और इस लोक की सुंदरता उनके शब्द-शब्द में मानो रूप बन जाती है। शब्द सुनाई नहीं देते बल्कि वे दिखाई देते हैं। यद्यपि बुंदेलखंड में सूरश्याम तिवारी, मंगलदीन उपाध्याय, महिपत, महारानी रूपकुँवर, हीरालाल तिवारी, मीर खाँ, पं. बैजनाथ व्यास, पं. रामनारायण व्यास तथा शिवदयाल जैसे अन्य फाग लिखनेवाले कवि भी हुए, लेकिन जो प्रसिद्धि ईसुरी को मिली, वह इनमें से किसी को नहीं मिल पाई।

बुंदेलखंड के इस अद्वितीय लोककवि का पूरा नाम ईश्वरी प्रसाद तिवारी था, जिनका जन्म चैत्र शुक्ल १० संवत् १८९८ (ईस्वी सन् १८४१) में उत्तर प्रदेश के मऊरानीपुर के निकट मेंडकी नामक स्थान में हुआ था। उनके बचपन का नाम हरलाल था। उनके पिता का नाम श्री भोलानाथ अड़जड़िया तथा माता का नाम गंगादेवी था। वे तीन भाई थे। ईसुरी का निधन अगहन शुक्ल ६ संवत् १९६६ (ईस्वी सन् १९०९) में हुआ। उनके यौवन काल में ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। उनकी एक लड़की थी, कोई पुत्र नहीं था किंतु वह भी विधवा हो गई, जिसके कारण वे आजीवन दुःखी रहे। ईसुरी बहुत लिखे-पढ़े नहीं थे। वे जमींदारों के यहाँ कारिंदे बनकर रहे तथा उनका अंतिम समय बुंदेलखंड के एक छोटे से गाँव बघौरा में बीता।

फाग का उत्स मूलतः शृंगार है तथा बुंदेलखंड में शृंगारी कवियों की बड़ी लंबी परंपरा रही है। पद्माकर, खुमान कवि, ठाकुर, दामोदर देव, नवलसिंह कायस्थ, प्रताप साहि, पजनेश, गदाधर भट्ट, सरदार कवि, भगवंत कवि, गंगाधर व्यास तथा खयालीराम जैसे बुंदेलखंड के शृंगारी कवियों ने प्रभूत काव्य रचा। इसी काव्य का एक अंग फाग है। ईसुरी की प्रसिद्धि उनकी फागों के कारण है। फाग परंपरागत लोक संगीत है, जो परंपरागत रूप से बुंदेलखंड में प्रचलित रहा है। बुंदेली की तरह इसकी परंपरा राजस्थानी भाषा तथा प्राचीन गुजराती में भी रही है।

फाग शब्द की उत्पत्ति फाल्गुन से हुई है। इस माह में जो गीत लोक स्वर में निबद्ध किए जाकर गाए गए, वे फाग कहलाए। फागों के साथ बुंदेलखंड का सुप्रसिद्ध राई नृत्य पर किया जाता है। बुंदेलखंड में साखी की फाग, झूला की फाग, बुझौवल फाग (प्रश्नोत्तरी फाग), छंदयाऊ फाग, डिढ़खुरयाऊ फाग जैसे अनेक फाग प्रचलित रहे हैं। लेकिन ईसुरी ने चौकड़िया फाग की नई परंपरा आरंभ की। चौकड़िया का अर्थ चार कड़ीवाली फाग है। चौकड़िया का एक अर्थ चौकड़ी भरनेवाला भी है। ईसुरी की यह चौकड़िया फाग इतनी प्रसिद्ध हुई कि तुलसी की रामायण और तानसेन के राग से इसकी तुलना हुई, कहा गया—

रामायन तुलसी कही, तानसेन ज्यों राग।
सोई या कलिकाल में, कही ईसुरी फाग॥

ईसुरी को प्रायः ग्रामीण फगुआरे व फड़ गायक के रूप में तथा एक अश्लील कवि के रूप में भी समझा गया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सामने भी ईसुरी का साहित्य नहीं आ पाया। उन्हें मान्यता बहुत बाद में मिली। उनसे बच्चनजी बड़े प्रभावित थे तथा वे उन पर काम करना चाहते थे। इस संबंध में उन्होंने बुंदेलखंड के साहित्यकार श्री कृष्णानंद गुप्त से भी आग्रह किया था, जिन्होंने ईसुरी पर कार्य किया, किंतु इस कार्य को पूर्णता उनके पुत्र श्री रमेश गुप्त ने दी। बाद में ईसुरी पर काफी कार्य हुआ। मैत्रेयी पुष्पा ने ‘कहे ईसुरी फाग’ शीर्षक से आधुनिक परिवेश को केंद्र में रखते हुए अपना उपन्यास लिखा।

ईसुरी के द्वारा कही गई फागें बुंदेलखंड के अनेक लोगों ने अपने रजिस्टर्स में लिखीं। इन फागों को ईसुरी के शिष्य धीरज पंडा गाते थे। अपने आरंभिक काल में ईसुरी भी इन फागों को गाते रहे। कहा जाता है कि ईसुरी ने लगभग एक हजार फागें कहीं। बुंदेलखंड के प्रख्यात लोकविद् डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त का मानना है कि जो बात-बात पर फाग कहता रहा हो, उसके लिए हजारों फागें लिखना कठिन काम नहीं है। ईसुरी की फागों की विषयवस्तु सीमित नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक तथा मित्र और भौजी के विनोदों से लेकर राम और कृष्ण की भक्तिपरक भावभूमि तक, राधा-कृष्ण के प्रणय से लेकर वैराग्य को बिगाड़ने वाली वसंत ऋतु तक, जल भरती कमर की लचकन से लेकर प्रेम की तीव्र पीड़ा तक और लोक की जीवंतता से लेकर जीवन की निस्सारता के दर्शन तक को इस लोककवि ने अपनी फागों में बाँधा है।

ईसुरी की प्रसिद्धि उनकी प्रेयसी ‘रजऊ’ के कारण है, उसी तरह जैसे घनानंद ‘सुजान’ के कारण जाने जाते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि रजऊ ईसुरी की कल्पना की देन थी, लेकिन अधिकांश लोगों का मानना है कि वे वास्तव में उनकी प्रेयसी थी। लेकिन ईसुरी की रजऊ पर कही गई फागों को पढ़-सुनकर लगता है कि रजऊ उनकी प्रेयसी रही होगी, क्योंकि रजऊ का उन्होंने जो जीवंत चित्रण किया है और जिस समर्पण भाव से किया है, उससे लगता है कि वे रजऊ के प्रति दीवानगी की सीमा तक आसक्त रहे होंगे। बुंदेलखंड के ही सुप्रसिद्ध संस्कृतिविद् डॉ. श्यामसुंदर दुबे का मानना है कि ईसुरी ठेठ के ठाठ से सजे-सँवरे अपनी निश्छल अभिव्यक्ति में अद्वितीय हो जाते हैं। उनका यह कहना सटीक है। ईसुरी ने रजऊ को लेकर जिन देशज शब्दों और प्रतीकों के माध्यम से अपने आपको अभिव्यक्त किया है, वह वास्तव में अपूर्व है। अस्थियों में घुन लगना एक बुंदेली मुहावरा है, लेकिन ईसुरी ने इसे रजऊ के प्रेमचिंतन से जोड़ दिया। एक फाग में उन्होंने कहा—

हड़रा घुन हो गए हमारे, सोच में रजऊ तुम्हारे।
दौरी देह दूबरी हो गई, करकें देख उगारे।

अर्थात् रजऊ से हुए प्रेम के बारे में सोचते-सोचते हड्डियाँ घुन हो गई हैं और स्वस्थ शरीर दुबला हो गया है। उसे उघाड़कर तुम देख सकती हो।

ईसुरी की प्रसिद्धि मुख्यतः अपनी प्रेमिका रजऊ को लेकर कही गई फागों से है। उन्होंने रजऊ की हर भंगिमा से लेकर उसके प्रत्येक अंग का रससिक्त वर्णन किया है। रजऊ के सौंदर्य का वर्णन करनेवाली एक फाग में उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि रजऊ की प्रशंसा में उन्होंने तीन सौ साठ गीतों की रचना कर दी। फाग है—

जोतें रजऊ के मों की जागें, चकचोंदी सी लागें।
कोंदन लागीं बिजुरी कैसी, स्याम घटा के आगें।
सूरज अटा छटा पै छूटे, देखत ही रथ भागें।
कहीं तीन सौं साठ ईसुरी, रजउ रजउ की फागें।

अर्थात् उसके मुखमंडल से ऐसी आभा फैल रही है, जिससे आँखें चौंधिया जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे काली घटा के बीच बिजली चमक रही हो। वह अट्टालिका पर बैठी है और उसके मुखमंडल के सौंदर्य को देखकर लगता है, जैसे सूर्य लजाकर अपने रथ को तेजी से भगा रहा है। ईसुरी ने रजऊ की प्रशंसा में तीन सौ साठ फागों की रचना कर दी है।

रजऊ के प्रति आसक्ति की पराकाष्ठा तो तब होती है जब ईसुरी ईश्वर से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि जब उन्हें अंत्येष्टि के लिए ले जाया जाए तो वे रजऊ की गली से गुजरें—

दोऊ कर परमेसुर से जोरें, कर औ कृपा की कोरैं।
ठठरी पै धर कै ले जाइयो, रजऊ कोद की खोरें।

ईसुरी अपनी अंतिम यात्रा के बारे में कहते हैं—

बिधना करी देह ना मोरी, रजऊ के घर की दैरी।
आवत जात चरन की धूरी, लगत जात हर बेरी।
लागौ आन कान के ऐंगर, बजन लगी बजनेरी।
उठत चहत अब हाट ईसुरी, बाट बहुत दिन हेरी।

अर्थात् विधाता ने यदि मेरी देह को रजऊ के घर की देहरी बनाया होता तो उसके पाँवों की धूल का स्पर्श मिलता। लेकिन अब जाने का समय आ गया है, क्योंकि कानों में बिदाई के बाजे बजने लगे हैं। प्राण छूटनेवाले हैं, यह हाट उठनेवाली है। मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारी प्रतीक्षा की। यह फाग उस प्रेमी की ओर से है, जो आजीवन अपनी प्रेमिका से मिलन की एकांगी आकांक्षा सँजोए रहा, लेकिन उसकी लालसा अंत तक पूरी नहीं हुई।

रजऊ के सौंदर्य को बाँधनेवाली यह फाग अद्भुत है, जिसमें ईसुरी कहते हैं कि रजऊ तुम अद्वितीय हो। सिंघल दीप से लेकर सभी दिशाओं में खोजा, लेकिन तुम्हारे जैसी पद्मिनी दिखाई नहीं दी। तुम्हारे सौंदर्य के सामने तो संसार की सभी सुंदर स्त्रियाँ पानी भरती हैं। ईसुरी बड़ा भाग्यशाली है कि तुम उसकी प्रेयसी हो।

नईयाँ रजऊ तुमारी सानी सब दुनिया हम छानी
सिंघल दीप छान लओ घर-घर, ना पद्मिनी दिखानी
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन, खोज लई रजधानी
रूपवंत जो तिरियाँ जग में, ते भर सकतीं पानी
बड़ भागी हैं ओई ईसुरी तिनकी तुम ठकुरानी

उन्होंने रजऊ के सौंदर्य का वर्णन करते हुए एक और फाग में कहा कि उन्हें उसकी हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती और उसका विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तनी भौंह और तिरछी नजर भुलाए नहीं भूलती। वे उसकी नजर के बाण से मरने तक को तैयार हैं, लेकिन इस बहाने कम-से-कम एक बार रजऊ उनकी ओर देख तो ले। फाग इस प्रकार है—

जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैरें, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
‘ईसुर’ कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो।

ईसुरी ने ठेठ बुंदेलखंडी प्रतीकों को चुनते हुए रूप, शृंगार और प्रेम की अद्भुत फागें रची हैं। उन्होंने नायिका के नैनों की तुलना बाण, बरछी और तलवार से तो की ही है साथ ही नैनों को कसाई और शिकारी भी कहा है और एक फाग में तो ईसुरी ने उनकी तुलना पिस्तौल से करते हुए एक अद्भुत बिंब रच दिया है—

अँखियाँ पिस्तौलें सी भरकें, मारन चात समर के
गोली लाज दरद की दारू, गज कर देत नजर के,
देत लगाए सेंन के सूजन, पल की टोपी धरकें
ईसुर फैर होते फुरती में कोऊ कहाँ लौ बरकें।

आशय है, यह सुंदरी अपनी आँखों से पिस्तौल सी भरकर सावधानी से किसी को मारना चाहती है। आँखों की इन पिस्तौलों में लाज की गोली है, दर्द की बारूद भरी है, जो नजर रूपी गज से धँसी है। ईसुरी कहते हैं कि संकेत की सुई द्वारा पलकों की टोपी का निशाना साधकर ये इतनी फुरती से वार करती हैं कि इनसे कोई बच नहीं पाता अर्थात् इनके प्रेम जाल में फँस जाता है।

बुंदेलखंड में स्त्रियों के द्वारा पहने जानेवाले अलंकरणों का विवरण उन्होंने इस फाग में रजऊ के मार्फत कुछ इस तरह दिया है—

जिदना रजऊ पैरतीं गानौ, जिअना होत बिरानौ।
बेंदा, बीज, दावनी, दुरकों, पाव झलरया कानों।
सरमाला, लल्लरी, बिचौली, मोरें हरा सुहानो।
पांवपोस, पैजनियां, पोरा, ईसुर कौन बखानो।

ईसुरी ने केवल रजऊ के प्रेम तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखा बल्कि उन्होंने राधा-कृष्ण से लेकर अपने लोक सौंदर्य और देशभक्तों के शौर्य को भी अपनी फागों में जहाँ एक ओर गाया वहीं दूसरी ओर उन्होंने इस संसार की निस्सारता पर भी कबीराना ठाठ के साथ फागें कहीं। नीम के पेड़ की छाया का सुंदर वर्णन करते हुए वे कहते हैं—

सीतल एई नीम की छइयाँ, घामौं व्यापत नइयाँ।
धरती नौं जे छू-छू जावैं, है लालौई डरइयाँ।

अर्थात् नीम की छाया बहुत शीतल है। यहाँ धूप नहीं लगती और इसकी हरी-भरी डालियाँ धरती को छू-छू लेती हैं।

ईसुरी वृक्षों के रक्षक हैं। उनकी फागों में पर्यावरण के प्रति चिंता भी है। एक फाग में वे वृक्षों पर कुल्हाड़ी चलानेवालों को कहते हैं कि उन पर क्यों कुल्हाड़ी चलाते हो, वे तो मनुष्यों के पालनकर्ता हैं। उनमें इतनी सामर्थ्य है कि वे काल को भी काट देते हैं। उन्हें भूख से रक्षा के लिए भगवान् ने उपजाया है और वे ऐसे हैं कि मृतप्राय लोगों को तरोताजा कर देते हैं—

इनपे लगे कुलरिया घालन, भैया मानस पालन!
इन्हें काटबो नईं चइयत तौ, काट देत जो कालन।
ऐसे सख भूख के लाने, लगवा दए नंद लालन।
जो कर देत नई सी ‘ईसुर’ भरी भराई खालन।

उनकी देशभक्तों के शौर्य को परिभाषित करनेवाली पंक्तियाँ हैं—

जो कोउ भरत भूम में सोवै, तन तरवारन खोवैं।
भागै नहिं पीठ ना देवैं, घाव सामने लेवैं।

ईसुरी ने राधा और कृष्ण को लेकर अद्भुत फागें कहीं। राधा के सौंदर्य की उन्होंने अछूती उपमा दी। ईसुरी ने कहा—

कै निरमल दरपन के ऊपर, सुमन धरौ अरसी कौ।
ईसुर कत मुख लखत स्यामरौ, राधा चंद्रमुखी कौ॥

अर्थात्, कृष्ण चंद्रमुखी राधा के मुख को निहारते हैं, जो ऐसा है जैसे स्वच्छ दर्पण के ऊपर अलसी का फूल रख दिया हो।

एक और फाग में उन्होंने राधा के कानों के तरकुलों की शोभा का वर्णन करते हुए कहा—

कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके।
आनंदकंद चंद के ऊपर दो तारागण झीकें।
परतन पसर परत गालन पै, तरें झूमका जीके।
जिनके घर सें जौ पैराव, और जनन नें सीके।
श्याम स्नेह ईसुरी देखत, ब्रजवासी बस्ती के॥

अर्थात् राधा के कानों के तरकुलों की शोभा देखते ही बनती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे आनंददायक चंद्रमा के समान मुख पर दो सितारे चमक रहे हों। जब वे लेटती हैं तो इन तरकुलों में लगे झुमके राधा के गालों पर पसर जाते हैं और यह पहनावा उन्हीं के घर से दूसरों ने सीखा है।

उन्होंने राधा-कृष्ण पर केंद्रित इन फागों में देशज प्रतीकों का उपयोग किया। उनकी एक फाग है—

बन में बाज रही बाँसुरिया, मो लये गुवाल मथुरिया।
फैलो फिरत सबद बंसी कौ, ज्यों जादू की पुरिया॥
मैं बरजी, बरजी ना मानी, बैरन बाँस छिपुरिया।
कुमला जात वृषभान लाड़ली, जैसे कमल पँखुरियाँ।
‘ईसुर’ ऐसे तड़क जात हैं, ज्यों काँच की चुरियाँ॥

अर्थात् राधा कहती हैं—वन में श्रीकृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि को सुनकर संपूर्ण ब्रज मंडल के गोप और गोपी मुग्ध हो गए हैं। इस बाँसुरी के स्वर जादू की तरह सम्मोहित करते हुए चारों ओर फैल गए हैं। मैंने बहुत रोका लेकिन बैरी बनी उस बाँस की छिपनी ने मेरा कहना नहीं माना। ईसुरी कहते हैं कि वृषभानु की लाड़ली राधा बाँसुरी के इन स्वरों को सुनकर कमल की पँखुरियों की तरह कुम्हला जाती है अर्थात् अपनी सुध-बुध खो बैठती है तथा काँच की चूड़ी जैसी चटककर गिर पड़ती है।

एक अद्भत फाग है, जिसमें अनुप्रास की छटा तो है ही साथ ही गोपी का गोविंद भाव मानो अपनी पराकाष्ठा को छूता है—

गोदो गुदनन की गुदनारी, सबरी देय हमारी
गालन पै गोविंद गोद दो, कर में कुंजबिहारी
बँइयन भौत भरो बनमाली, गरें धरौ गिरधारी
आनंद कंद लेन अँखिया में, माँग में लिखौ मुरारी
करया गोद कहइया ‘ईसुर’ गोद मुखन मनहारी

अर्थात् अरे गुदना गोदनेवालो, हमारी सारी देह पर गुदने गोद दो। हमारे गालों पर गोविंद, करों में कुंजबिहारी, बाँहों पर बनमाली, गले में गिरधारी, अँगिया के हिस्से में आनंदकंद, माँग में मुरारी, कमर में कन्हैया और देखो ईसुरी मुख पर मनमोहन गोद दो।

ईसुरी ने अपनी फागों में वसंत, ग्रीष्म और वर्षा का भी यथार्थपरक चित्रण किया है। वसंत का वर्णन करते हुए वे कहते हैं—

अब ऋतु आई बसंत बहारन, पान फूल बन कारन।
बागन बनन बंगलन बेलन, बीथी बगर बजारन।
हारु हद्द पहारन पारु, धवल धाम जल धारन।
तपसी कुटी कंदरन माँही, गई बैराग बिगारन॥

अर्थात् ऋतुराज वसंत की बहार आ गई है। पत्ते, फूल, फल, शाखाएँ खुशी से झूम रहे हैं। बागों, जंगलों, अट्टालिकाओं, रास्तों, बाजारों, खेतों, पर्वतों, सरोवरों में इसने अपना साम्राज्य फैला लिया है और इसने तपस्वियों की कुटियों और कंदराओं में जाकर उनके वैराग्य को भंग कर दिया है।

एक और फाग में ईसुरी कहते हैं—

जे-जी जान बाग में बोलें, सबद कोकिला कोलें।
सुन के संत भए उनमादे, भसम अंग में घोलें।

अर्थात् वसंत ऋतु आ गई है। कोयल का कुहू-कुहू शब्द बगीचों में गूँजने लगा है। कूक प्राणों को कुरेद रही है। इसे सुनकर भस्म रचानेवाले संतों में भी उन्माद जाग गया है।

ईसुरी ने अपने जीवन के उत्तरकाल में विरक्ति की फागें कहीं। ईसुरी ने देह की निस्सारता पर कहा—

बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की।
कच्ची भीत उठी माटी की, छाई-फूस चारे की।
बे बंदेज, बड़ी बे-बाड़ा, जई में दस-द्वारे की।
एकऊ नई किवार-किवरियाँ, बिना कुची तारे की।
ईसुर चांय निकारौ जिदना, हमें कौन वारे की।

अर्थात् यह देह प्राण प्यारे द्वारा किराए पर दिया गया घर है। इसमें कच्ची मिट्टी की दीवारें उठी हैं। घास-फूस के चारे से जो आच्छादित है, अर्थात् यह पार्थिव शरीर ऐसा है, जिसके ऊपर केश हैं। इसमें दस दरवाजे हैं अर्थात् दस इंद्रियाँ हैं, जिनमें कोई ताला-चाबी नहीं है। इसमें कोई चहारदीवारी नहीं है। यह परिसर विस्तृत और अव्यवस्थित है। इसमें एक भी किवाड़-किवड़िया नहीं है। इसलिए जब चाहे हमें इससे निकाल दो। हमें कोई लाभ या हानि नहीं होनेवाली।

एक और अद्भुत फाग है, जिसमें माँ अपनी बेटी से कहती है कि एक दिन अच्छा लगे या बुरा, सभी को ससुराल जाना पड़ता है। जब तुम्हारे पति बिदा कराने आएँगे तो चाहे जितना प्रलोभन उन्हें दिया जाए, वे मानेंगे नहीं। बिदा के दिन पति के साथ जाना ही पड़ेगा—

इक दिन हुअे सबई कौ गौनों होने उर अनहोनो।
जानें परै सासुरे सब खाँ, बुरौ लगै चय नोनों।
आँयें लुवौआ बे ना मानें, चाय बता दो सोनों।
ईसुर विदा हुए जा जिदना पिय के संग चलौनों।

एक फाग में वे संसार के यथार्थ को दरशाते हैं और शिक्षा देते हैं—

तन को कौन भरोसो करने, आखिर इक दिन मरने।
जौ संसार ओस कौ बूँदा, पवन लगे सें ढुरने।
जौ लो जीकी जियन जोरिया, जी खाँ जैं दिन भरने।
ईसुर ई संसार आन कें, बुरे काम खाँ डरने॥

अर्थात् इस शरीर का क्या भरोसा? अंत में एक दिन इसे तो मृत होना ही है। यह संसार ओस की बूँद की तरह है, जो थोड़ी सी हवा चलने पर ढुलक जाती है। जब तक जिसकी जितनी साँसें शेष हैं, उसको उतना समय इस संसार में काटना है। इसलिए इस संसार में आकर बुरे कर्मों से दूर रहो।

ईसुरी की इन फागों से गुजरने के बाद लगता है कि वे कितने मौलिक कवि थे। जीवन का कोई पक्ष उनके काव्य से अछूता नहीं रहा। वे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उन्हें ऐसी दिव्य देन प्राप्त थी, जिसने उन्हें अक्षर के संसार में अमर कर दिया और वे इस देन को देनेवाली देवी को कभी भूले नहीं, उनसे यही प्रार्थना करते रहे कि वे उनकी खबर लेती रहें, उनकी भूली कड़ियों को मिलाती रहें। बुंदेलखंड के लोक की यह गवाही है कि इस देवी ने सदैव अपने ईसुरी की खबर ली और उनकी कड़ियों को कभी टूटने नहीं दिया, ईसुरी ने प्रार्थना की—

मोरी खबर सारदा लइये, कंठ विराजी रइये।
मैं अपढ़ा अच्छर ना जानो भूली कड़ी मिलइए॥
*
साभार : साहित्य अमृत 
संपर्क : नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, ८५  इंदिरा गांधी नगर, आर.टी.ओ. कार्यालय के पास, केसरबाग रोड, इंदौर-९, चलभाष : ०९४२५०९२८९३

कोई टिप्पणी नहीं: