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शनिवार, 10 अप्रैल 2021

कही ईसुरी फाग, उपन्यास, मैत्रेयी पुष्पा

पुस्तक चर्चा 

कही ईसुरी फाग, उपन्यास, २०१८, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ ३३९, आवरण सजिल्द बहुरंगी, आईएसबीएन ९७८८१२६७०८८३३

कुछ अंश

ऋतु डॉक्टर नहीं बन पाई क्योंकि रिचर्ड गाइड प्राध्यापक प्रवर पी.के. पाण्डे की दृष्टि में ऋतु ने ईसुरी पर जो कुछ लिखा था, वह न शास्त्र-सम्मत था ,न शोध अनुसंधान की जरूरतें पूरी करता था। वह शुद्ध बकवास था क्योंकि ‘लोक’ था। 

‘लोक’ में भी कोई एक गाइड नहीं होता। लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं-जो जहाँ तक का रास्ता बता दे वही गाइड बन जाता है-कभी-कभी तो कोई विशेष पेड़, कुआँ या खंडहर ही गाइड का रूप ले लेते हैं। ऋतु भी ईसुरी-रजऊ की प्रेम कथा के ऐसे ही बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार है। बड़ा खतरनाक होता है जंगलों, पहाड़ों, और समुद्र का आदिम सम्मोहन...हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के ‘दर्शन’ के लिए ‘कहीं ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऐसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है।

शास्त्रीय भाषा में ईसुरी शुद्ध ‘लम्पट’ कवि है- उसकी अधिकांश फागें एक पुरुष द्वारा स्त्री को दिये शारीरिक आमंत्रणों का उत्वीकरण है। जिनमें श्रृंगार काव्य की कोई मर्यादा भी नहीं है। इस उपन्यास का नायक ईसुरी है, मगर कहानी रजऊ की है-प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ दोनों के रास्ते बिलकुल विपरीत दिशाओं को जाते हैं। प्यार बल देता है तो तोड़ता भी है...

सिद्ध संगीतकार कविता की किसी एक पंक्ति को सिर्फ अपना प्रस्थान बिन्दु बनाता है-बाकी ठाठ और विस्तार उसका अपना होता है। बाजूबंद खुल-खुल जाए में न बाजूबंद रात-भर खुल पाता है, न कविता आगे बढ़ पाती है क्योंकि कविता की पंक्ति के बाद सुर-साधक की यात्रा अपने संसार की ऊँचाइयों और गराइयों के अर्थ तलाश करने लगती है। मैत्रैयी पुष्पा की कहानी उसी आधार का कथा-विस्तार है-शास्त्रीय दृष्टि के खिलाफ़ अवैध लोक का जयगान।

अस्वीकृति पत्र

प्रमाणित किया जाता है कि कुमारी ऋतु ने हिन्दी विषयान्तर्गत ‘ईसुरी के काव्य में नारी संचेतना’ शीर्षक से शोधकर्ता पी.एच.डी की उपाधि हेतु मेरे मार्ग-निर्देशन में निष्पादित एवं पूर्ण किया है। शोधार्थी ने दो सौ दिवस से अधिक की उपस्थितियाँ दर्ज कराई हैं।

मेरी जानकारी एवं विश्वास में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध शोधार्थी का स्वयं का कार्य है। विषय चयन की दृष्टि से भी यह कार्य गम्भीर अध्ययन-विश्लेषण की माँग करता है, क्योंकि शोधकर्ता का लक्ष्य होता है अज्ञात को ज्ञात करना तथा ज्ञात को नई दृष्टि के आलोक में विश्लेषित करना।परंतु इस शोध को लेकर मेरी कुछ आपत्तियाँ हैं क्योंकि इस प्रबन्ध विश्वविद्यालय की शोध-उपाधि के लिए अध्यादेश की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करता।

1. शोधग्रन्थ के निष्कर्षों के लिए कुछ लिखित प्रमाण आवश्यक होते हैं, जैसे-विद्वानों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों से उद्धरण, इतिहास ग्रन्थों से लिए गए प्रमाण, पत्र-पत्रिकाओं में दिए गए मंतव्य। ऐसे ही साक्ष्यों से निष्कर्षों को पुष्ट किया जाता है। अन्य पांडित्यपूर्ण गवेषणाएँ, जो शोध का आधार हो सकती हैं, इस शोध-प्रबन्ध में नहीं है। तब फिर संदर्भ नोट और संदर्भ-सूची बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई।

अनावश्यक काल्पनिक बातों, सुनी-सुनाई किंवदन्तियों को शोध का आधार बनाया गया है। साहित्य में अभी तक ‘ईसुरी और रजऊ’ ये दो ही नाम मिलते हैं। लोक साहित्य, वह भी मौखिक माध्यम, इस दिशा में कोई मानक प्रमाण नहीं हो सकता। यह शोध तो एक तरह से ईसुरी जैसे महान कवि का चरित्र हनन है। यदि हमारे कीर्ति-पुरूषों पर इस तरह के शोध-प्रबन्ध लिखे जाएँगें तो हम उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा किस प्रकार कर पाएँगे ?

2.जहाँ तक इस शोध-प्रबन्ध की भाषा का प्रश्न है, वह भी तत्सम, प्रांजल और परिनिष्ठित रूप में नहीं है। चालू मुहावरे की बोलचाल वाली भाषा का प्रयोग किया गया है। माना कि यह रोचक और लोकप्रिय हो सकती है, मगर साहित्यिक नहीं। भाषा के इस व्यवहार से शोध की शास्त्रीय गरिमा को ठेस पहुँचती है। यह मान्य प्रविधि के प्रतिकूल है।
कुल मिलाकर मैं विश्वविद्यालयीन अकादमिक स्तरीयता को देखते हुए इस शोध-प्रबन्ध पर शोधकर्ता को पी.एच.डी की उपाधि देने की अनुशंशा करने के लिए विवश हूँ।
-डॉ.प्रमोद कुमार पाण्डेय
निर्देशक

नाटक

दिन के साढ़े दस बजे थे। गली में धूप फैल गई थी। तभी मैरून रंग की चमचमाती हुई कार सर्राटे से गली में घुस आई। उस चबूतरे के पास खड़ी हो गई, जिसके ऊपर नीम का पेड़ था और नीम के आगे बैठका बना था। बैठका के किवाड़ बन्द थे, क्योंकि फगवारे रात के लिए फाग-नाट्य का अभ्यास कर रहे थे। इसलिये उन्हें इस ‘आई कोन फोर्ड’ ब्रान्ड कार के आने का पता नहीं चला। हार्न की आवाज भी सुनाई नहीं दी। अन्दर झीका नगड़िया, मंजीरा, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य बज रहे थे। गली में बहुत सारे बच्चे इकठ्ठे हो गए। इनकी आँखों में भी कोई कौतूहल न था, अभ्यस्तता-सी थी, जैसे कार का आना-जाना अक्सर देखते हों अपने गांव में। बहरहाल छोटे से छोटा बच्चा कार में से उतरने वालों की उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। किसी-किसी बच्चे ने कार के शीशे पर आँखें सटा रखी थीं।

क्या इस कार में से कोई परी उतरने वाली है ? या कोई सांता क्लॉज, जो इन बच्चों के लिए तोहफे लाए ? मगर बहुत देर तक कोई नहीं उतरा।

कार ड्राईवर बराबर हॉर्न दिए जा रहा था। गली कर्कश शोर से भर गई। बच्चे भी सहम कर पीछे हट गए। गली में खुलने वाले घरों से इक्का-दुक्का लोग निकले, जो कार को देखकर घरों में ही लौट गए।

तभी बैठका का दरवाजा खुला। किवाड़ों के बीच नगड़िया बजानेवाला कलाकार दिखा। और फिर कार के पिछले दरवाजे खुले। भीतर से जो निकले, वे दो लड़केनुमा आदमी थे। पोशाक के नाम पर जींस के साथ डेनम की जैकेट। छाती पर बटन खुले हुए। इनकी इकहरी छाती के बाल मर्दानगी की निशानी हैं, दिख रहा था। गले में फैशन के तहत रूद्राक्ष की मालाएँ और बाहों पर काले धागे के जरिए बँधे ताबीज। उनका पहनावा यूनीफार्म की तरह था, जो किसी संस्था की एकता के चिन्ह की तरह होता है। संस्था के क्या तेवर होंगे, यह लड़कों की सुर्ख आँखों से जाना जा सकता था। उनकी नजरें भी नेजों की तरह तेज थीं। जल्दबाजी अंगों में फड़क रही थी। चाल में खास किस्म की दमक, जो दहशत-सी पैदा करती थी। चेहरे के भावों में लोलुपता का रंग लार की तरह टपकता था। मुझे ऐसा ही लगा। हो सकता है अपने लड़कीपन के कारण लगा हो, जो संस्कारों में घुला है।

वे बैठका के भीतर समा गए। अभिनय के लिए ‘ग्रीन रूम’ रूपी कोठे में बहती वाद्यों की स्वर-तरंगें यकायक ऐसे रुक गई जैसे सामने कोई अलंघ्य पहाड़ आ गया हो। कहाँ मौके के हिसाब से वाद्यों के साथ फागें ऐसे क्रम में बिठाई जा रही थीं, जैसे माला को मोहक और मजबूत बनाने के लिए मनकों और धागे को जोड़ा जाता है ।

कथा के अनुसार लोककवि ईसुरी की उन फागों को विशेष महत्त्व दिया जा रहा था, जो उनकी प्रेमिका रजऊ की ओर से थीं।

लड़के अब फगवारों के आमने-सामने थे। मैं उन्हें बाहर से देख रही थी। मैं, अर्थात ऋतु नाम की युवती। मैंने माइकेल जैक्सन को टेलीविजन के पर्दे पर देखा है। कार से उतरकर यहाँ तक आने वाला एक लड़का माइकेल जैक्सन छाप लम्बे बाल रखे हुए था, लम्बे और सीधे। दूसरे के सिर पर खूँटानुमा छोटे बाल थे। मेरा साथी माधव ऐसे बालों को अमेरिकन स्टाइल में ‘क्रूकट’ कहता है। दोनों लड़कों का कद लम्बा माना जा सकता था, ऐसा जैसा की पुलिस और सेना के लिए काम करने वाले युवकों की भर्ती करते समय लम्बाई और सीने की चौड़ाई का खास माप रखा जाता है।

बेशक वे पतली कमर के मालिक थे और जरूरत से ज्यादा चौड़ी पेटियाँ कमर में बाँधे थे। मैंने यह भी गौर किया कि वे सीढ़ियों के जरिए चबूतरे पर नहीं चढ़े थे, खास तरीके से टाँगें उछालते हुए ऊपर आ गए थे। इस अदा ने उनके रूप को नई तरह का रूतवा दिया था, इसमें संदेह नहीं। साथ ही खुली किवाड़ों को बेमतलब धकियाते हुए बैठका में प्रविष्ट हुए, उनकी अपनी नई शैली थी। और फिर-

‘‘हल्लो’’ धीरे पंडा का अभिनय करने वाला फगवारा फुर्ती से आगे बढ़ता हुआ आया और हाथ बढ़ाकर माइकेल जैक्सन से हाथ मिलाया।

मगर इसके बरक्स मेरी निगाह वहाँ ठहर गई, जहाँ कार ड्राइवर अपनी जेब से टॉफी निकाल-निकालकर बच्चों को बाँट रहा था और बच्चे उत्फुल्ल होकर होंठों पर जीभ फेरते हुए छोटे-छोटे हाथों से सौगात ग्रहण कर रहे थे।
इधर क्रूकट पूछ रहा था- ‘‘कैसे हाल-चाल हैं ?’’
‘‘नाटक कर रहे हैं। फागें बढ़िया रंग लै रही हैं।’’ धीरे पंडा ने कहा।

इतने में दो मूढ़े बराबर-बराबर रख दिए गए। वे दोनों इत्मिनान से मूढ़ों पर विराजे और दो क्षण बाद ही माइकेल जैक्सन ने अपनी जैकेट की जेब से छोटी-सी थैली निकाली। थैली खैनी की थी। वह हथेली पर खैनी अँगूठे से मलने लगा, पट्ट-पट्ट की आवाज हुई। खैनी मुँह में डालने से पहले सवाल किया- ‘‘कितने दिनन को पिरोगराम है ?’’
मैं चौकी। अत्याधुनिक वेशभूषा और अति गँवार भाषा-बोली !
धीरे पंडा जवाब दे रहा था- ‘‘ सरस्वती देवी जानें कि हमें कितेक दिनन रोकेंगीं।’’
‘‘फिरऊँ।’’ क्रूटक ने मुँह मटकाया।
‘‘हफ्ता-दस दिना तो मामूली हैं। गाँव में भी जोश है।’’
‘‘कैसो गाँव है ! गाँवन में आजकल फागें को सुनत ? बैंचो सब पिक्चर के दिवाने हैं। सबै स्वाँग चइर।’’
‘‘चइर, तब ही तो हमने फागें नाटक में ढाली हैं। सरस्वती देवी नई-नई जुगत खोजने वाली जनी है। सो देख लो रात को लोग आसपास के गाँवों से चले आ रहे।’’ धीरे पंडा अपने काम पर मुग्ध था।
मैं कोठे के बाहर खड़ी थी। माइकेल जैक्सन बीच-बीच में बाहर देख लेता था। थोड़ी ही देर बाद पूछ बैठा- ‘‘मंडली में लड़कियाँ भर्ती करलईं का ?’’

नगड़िया वाला तुरंत बोला - ‘‘अरे आँहा !’’ कहकर उसने कानों में हाथ लगाया। माइकेल जैक्सन सिर हिला-हिला कर मुस्काया और बोली में व्यंग्य मिलाकर बोला- ‘‘हओ, ऐसो पाप करम तुम्हारी सरसुती नहीं करेंगी, काए से कि बैंचो फगवारे मतवारे हो जाएँगे। फागुन में क्वार महीना।’’ कहकर वह ठाहाका लगाकर हँसा। क्रूकट ने हँसी में साथ निभाया। आगे क्रूकट बोला- ‘‘खुर्राट डुकरिया है, सिरकारी लोगन खों भरमा रही है।’’

धीरे पंडा बनने वाला कलाकार माइकेल जैक्सन और क्रूकट के गूढ़ दर्शन को नासमझ की तरह मुँह बाए सुन रहा था। बाकी फगवारे भोले बच्चों की तरह स्वीकृति में सिर हिला रहे थे।

हाँ मैं तनिक पीछे हट गई कि वे मुझे न देख सकें। मगर वे भी तो मुझे नहीं दिख पा रहे थे। बस उनमें से एक की आवाज सुनाई दी- ‘‘तुम लोग खुदई देखोगे एक दिना कि तुम्हारी बूढ़ी सरसुती चिरइया जहाज में बैठके उड़ गई। हम ऐसी तमाम औरतन खों जानते हैं, जौन अनुदान खा-खाकें मुटिया रही हैं। सो बस सरसुती जी होंगी मालामाल और तुम ससुर जू ठोकते रहो नगड़िया, नाचते रहो जिन्दगी भर-।’’

मैं आवेश में उस खिड़की पर आ गई, जिनके पाटों के बीच महीन-सी फाँक थी। मेरे भीतर गालियों की झड़ी लग गई- बदतमीज, बदमाश, गुंडे सरस्वती देवी का इस तरह अपमान कर रहे हैं ? आखिर वे इनका क्या खाती हैं ? मालामाल हो गईं होती तो छोटे से गाँव सटई में रह रही होतीं ? कच्ची गलियों में पैदल चल रही होतीं ?

अब क्रूकट की बारी थी- ‘‘हम कितेक समझाएँ तुम्हें कि हाथी के दाँत खावे के और, दिखावे के और। इन सरसुती जू के भरोसे न रहो, लछमीं जू का भी मान-आदर करो। कहो, हमारे संगै जब-जब गए हो, जेबें भरके रूपइया मिले हैं कि नहीं ?’’
धीरे पंडा ने हामी भरी, सिर ऊपर-नीचे हिलाया। नगड़िया वाले ने मुस्कराहट के साथ कहा- ‘‘सो ऐसान मानते हैं हम तुमारा।’’

माइकेल जैक्सन ने उँगली के बाद कलाई पकड़ने जैसा भाव दिखाया- ‘‘ऐसान काय का ? बैंचो आँधी के से आम हते। कोन-सी परमामेन्ट आमदनी हती ? ऐसान तो तब मानोगे, जब पाँच सितारे वाले होटिल में तुम्हें ठाड़े कर देंगे हम। पोंदन (चूतरों) के नीचे मखमल और पाँवन तले ईरानी कालीन’’ धीरे पंडा अकबकाया- सा देखने लगा।

क्रूकट बोला-‘‘उजबक की तरियाँ क्या देख रहे ? हमारी तरफन अच्छी तरह हेरो। देख लो, मोबाइल गरे में डारे हैं और तमंचा जेब में धरे हैं। बैंचो आईकोन ठाड़ी है अरदली में, और क्या चइए आज के जमाने में ? सेठन के मोंड़ा क्या सोने की लेंड़ी हग रहे सो हम नहीं हग रहे ?’’ वाक्य समाप्त करने तक क्रूकट के हाथ में पिस्तौल दिखाई दी। उसने अपने हथियार को धूर्तता से मुस्कराते हुए उस खिड़की की ओर तान दिया, जिधर मैं खड़ी थी।
‘‘यार धीरे पंडा, हुनर खों पहचानो। तुम्हारे जैसी अदाकारी इलाका भर में नहीं है किसी के भीतर। बास्टर सारूफ खाँ की माँ..

तब तक माधव लौट आया, जो नहाने गया था। बाँह पर भींगे अण्डरवियर और बनियान लटकाए हुए साँवले और इकहरे बदन वाला माधव धुली साफ बनियान और पायजामा पहने हुए पूछ रहा था- ‘‘ऋतु, पड़ौस वाले घर से कोई खाने के लिए लिवाने नहीं आया ? सरस्वती देवी तो कह रही थी कि इनकी साथिन सरोज हमारे लिए खाना बना रही है।’’
मैं माधव की बात सुनकर झुँझला गई, क्योंकि पहले से खीझी हुई थी।

‘‘तुम्हें तो खाने की पड़ी है बस। यह क्या खाने ही आए थे ? और अब इतनी देर में आए हो, क्या नदी नहाने गए थे ?’’ कहना चाहती थी कि देखो हमारी तुम्हारी उम्र के लड़के क्या तूफान उठाने वाले हैं !

मगर तब तक क्रूकट मंडली के बीच लाठी की तरह खड़ा हो गया था। कहने के लिए मैंने उधर से मुँह फेर लिया, क्योंकि माइकेल जैक्सन ने खिड़की खोल दी थी और वह..पंडा से कह रहा था- ‘‘यार सरसुती बाई की चेली से इंटोडैक्सन तो करा दो । इनें तौ एक दिन रजऊ को पाट खेलनें ही हैं और हमारे संगै जानें ही है। सरसुती खों इन मेनका जू के दम पर अनुदान नहीं खाने देंगे हम। जो कि वे खाएँगी कि इस्तरी ससक्तीकरन कर रही हैं। और ससुर जू तुम्हें लोहे के लंगोटों में कस देगी कि बधिया हो जाओ।’’

माइकेल जैक्सन हँस पड़ा- ‘‘तब भागोगे मंडली छोड़कर। मौकापरस्त औरत के दाँव अभी से समझ लो ससुरी खों उल्टी मात दै दो।’’
धीरे पंडा बनने वाला अभिनेता मंडली का मुख्य आदमी है। वह कभी इन लड़कों को ललचाई निगाह से देखता तो कभी आँखें अजिज-सी हो जातीं।
‘‘अच्छा ठीक है। जो जब होगा सो तब देखा जाएगा। तुम तो अपनी सुनाओ।’’

माइकेल जैक्सन के चेहरे पर आत्मविश्वास बोल रहा था- ‘‘क्या बता दें, बैंचो देख नहीं रहे कि ‘आइकोन’ झुपड़िया के आगे काए ठाड़ी ? हम भइया जौहरी हैं, हीरा तलासते फिर रहे हैं। तुम्हें चमकनें है तो चलो संगै, नातर ससुर जू इतै परे-परे घूरा चाटो।’’ धीरे पंडा ने हाथ जोड़कर उन लड़कों की औकात बढ़ा दी। वह गर्व से बोला-‘‘ तुम कह रहे थे यह वारी-फुलवारी सरसुती देवी के कारण फूली-फली है तो हम कह रहे हैं नास भी उन्हीं के कारन होगी नास-विनास में तुम न घिरो। फिरांस की पार्टी आई है, राग-रंग की सौखीन है। ओरक्षा में रजऊ और ईसुरी की प्रेम कहानी सुनी होगी। सालिगराम कराटे गुनी गाइड है, सो समझा दई कि बुन्देलखण्ड में पग-पग पर मनमोहिनी लुगाई हैं।’’

मानकेल जैक्सन ने जेब में से छोटा सा पर्स निकाला। धीरे पंडा बननेवाले कलाकार के आगे हजार-हजार के दो नोट लहरा दिए।
‘‘देख रहे हो ऐसे तो कितने ही पैदा हो जाएँगे। फ्रेंक, पोंड और डॉलर की माया देखोगे तो गस आ जाएगा। इतै तुम ससुर जू पूरी पपरिया खाकर समझ रहे हो, राजा हो गए। चना-चबैना रोज की खुराक मान रहे हो। क्या कहते हैं कि लाई के लडुआ सुईट डिस। अब तक गाँवों के कलाकार ऐसे लुटते रहे हैं। ईसुरी की लीला कर रहे हो ईसुरी की असलियत जानते हो ? कैसी दिसा भई। तुम्हारे लानें तो कोई आवादी बेगम भी पैदा नहीं होने वाली। आज की औरतें सरसुती बनकर तुम्हें तबाह कर देंगी।’’

मैं बुरा मानू मुझे होश नहीं था। मेरी वह दुनिया उजड़ी जा रही थी, जिसे बसाने की शुरूआत मैंने कर दी थी। और बड़ी कोशिशों, बड़ी ठोकरों के बाद पाया था, यह ठिया।

मन में आया क्रूकट के हाथ जोड़कर प्रार्थना करूँ। अपने काम की दुहाई दूँ। सारा का सारा ब्योरा बताऊँ यहाँ फागों का होना हमारी पहुँच के भीतर है। पाँच सितारा होटल में इस फाग-लोक को कैद मत करो। बसंतोत्सव में मेरा साहित्य-शोध छिपा है, इस पर पहरे मत लगाओ। लोक संस्कृति पर हमारा भी हक है, हिस्सा हमसे मत छीनो। मगर क्रूकट अपनी रौ में था।

‘‘विदेशी लोग मौंमागा पइसा देते हैं। समझे धीरे पंडा रूपी रतीराम जी ? देर करोगे तो गढ़ी म्हलैरावाली मंडली मोर्चा मार लेगी। तुम पछताते रह जाओगे। हम तो महुसानिया के मंडली डीलर खों भी अडवांस दे आए हैं। सीजन की बात है। फिर तो हम भी वैष्णों देवी के जागरन की डीलिंग में लग जाएँगे, ससुर बखत ही कहाँ है ?’’

लगातार क्रूकट का मोबाइल फोन भी चल रहा था- हल्लो, बातचीत चल रही थी। सौदा पट रहा है। कम-बढ़ की गुंजाइस राखियो ।
माइकेल जैक्सन ने यह कहकर धीरे पंडा को पटा लिया कि वह फगवारों का शीश मुकुट है। रघु नगड़ियावाला माना हुआ उस्ताद है और सोनुआ झींका बजाने में प्रदेश प्रसिद्ध वादक। तीनों राई नाच में घूँघट ओढ़कर नर्तकियों के ‘अपरूप मौडिल’ बन जाते हैं। किरनबाई बेड़िनी से भी सौदा चल रहा है।

चटपटे प्रोग्राम के लिए गर्मागर्म नोट थमाए माइकेल जैक्सन ने और मंडली को खरीद लिया। लाभ-लोभ की बातें-वीडियो फिल्म बनेगी, सी डी बिकेंगी, हिस्सा बराबर रहेगा। आमदनी लगातार होगी। जी टी. वी., सोनी टी. वी पर देख लेना अपनी फोटू। हल्के होकर चलो। झींका-मींका, नगड़िया-फगड़िया मत लादो, गिटार बजेगी जमकर। क्या कहते हैं कि सिंथैसाइसर तैयार रखा है। अँग्ररेजी धुन में सजकें फागें अँगरेजिन हो जाएँगी। एक दिना तीजनबाई की तरह तुम विदेस के लानें उड़ जाओगे। हित की बातें सुन लो, नातर इन गाँवन में पड़े-पड़े सड़ जाओ। सरसुती देवी भी तुम्हें सड़े अचार की तरह नुकसानदायक मानकें फेंक देंगी।

सौदा होते ही क्रूकट कार में से यूनीफार्म निकाल लाया।
‘‘बसंती कमीज !’’ धीरे पंडा ने कहा तो माइकेल बोला- ‘‘कमीज नहीं यल्लो टी साट। बिलेक पेंट। टीसाट पर क्या लिखा है ? पढ़े हो तो पढ़ो-
‘मेरा भारत महान !’

पेंच के घुटनों पर जय हिन्द की चिप्ची ! देखते ही देखते फगवारों की टोली ‘आइकोन फोर्ड’ कार में भर गई। जो बाकी बचे थे, उनके लिए डिक्की खोल दी गई। वे सामान की तरह ठँस गए।
कच्ची गली थी। कार चली गई, पीछे धूल का गुबार था बड़ा-सा।
मैं और माधव खड़े थे, लुटी-लुटी गली में, उजड़े से गाँव में खून-खच्चर सपनों की छाँव में... स्तब्ध और हतप्रभ !
हताशा ने चेतना सोख ली।

माधव ने मेरी ओर देखा, जैसे पूछ रहा हो-अब ? अब अगला पड़ाव कहाँ होगा ? हम दोनों ऐसे ही चुपचाप कितनी देर तक खड़े रहे ? मैं पीछे कब लौटी ? सत्रह गाँव की खाक छानकर आई मैं, ऋतु, जहाँ रजऊ की खोज में जाती, वहाँ ईसुरी के निशान तो मिलते, प्रेमिका का पता कोई नहीं देता था, जैसे उसके बारे में बताना किसी वेश्या का पता देना हो। ईसुरी के साथ जोड़कर लोग उसके नाम पर मजा लेते, मगर उसको अपने आसपास की स्त्री मानने से मुकर जाते। बुरा मानते कि एक लड़की उस बदचलन औरत के बारे में बात कर रही है और गाँव की लड़कियों को उस बदनाम स्त्री से परिचित कराने की कोशिश में है।
एक आदमी ने विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहा था-आजकल पढ़ाई में लुच्चियायी फागें सोई पढ़ाई जाती ?
एक गाँव में एक मनचले ने मुझे घेरकर कहा था-सुनोगी, तुम्हारे लानें हम ईसुरी की फागें लाए हैं-

जुवना कौन यार खों दइए, अपने मन की कइए
हैं बड़बोल गोल गुरदा से, कॉ लौ देखें रइए
जब सर्रति  सेज के ऊपर, पकर मुठी में रइए
हात धरत दुख होत ईसुरी, पीरा कैसें सइए

( तुम किस यार को जुबना दोगी ? इनकी बड़ी कीमत है। ये गुरदे की तरह गोल हैं। सेज पर सर्राते हैं मुठ्ठी में कस लेने को मन करता है। हाथ रखने से दुखते हैं, तुम दर्द कैसे सहोगी ?)

वह गाँव मेरी बुआ का गाँव था, मेरी बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया है ? मैं अपने ऊपर झुँझलाकर रह गई क्योंकि कोई शिकायत करती तो रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार न करता, उसके रूप में मेरी देह के अक्स लोगों के सामने फैल जाते।

तब क्या मैं अपने लक्ष्य को वापस ले लूँ ? ऊहापोह में उस गाँव से सवेरे ही सवेरे अपना बैग उठाकर भागी थी, बुआ अचम्भा करती रह गई। अरे लड़की महीने भर के लिए आई थी, मगर...
‘क्या मैं विषय बदल दूँ ?’ सोचा यह भी था।
मगर अपना मन कैसे बदलूँगी ? मन जो माधव को ईसुरी के रूप में देखकर जुड़ा गया था। माधव का ध्यान करते ही चिन्ता तिरोहित-सी होने लगी। वह कॉलिज के झंझावातों में मुझ से ऐसे ही आ जुड़ा था। जुड़ाव ऐसा हुआ कि उसने भी ‘ईसुरी का बुन्देली को योगदान’ को अपने शोध का विषय बना लिया।

माधव मुग्ध भाव से बोला था- ‘‘तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है ऋतु ? ईसुरी अपनी रजऊ के पास आया है।’’
‘‘धत् ! वैसे भी लोग अजीब निगाहों से देखने लगे हैं। प्रतियोगिता में ईसुरी और रजऊ का रोल निभाने वाले कहीं वास्तविक प्रेम की पींगे तो नहीं बढ़ाने लगे।’’
‘‘ठीक ही सोचते हैं लोग। मैंने भी तो यही सुनकर अपने शोध का विषय बदल दिया था कि प्रतियोगितावाली ऋतु खुद को रजऊ समझने लगी है। मुझे भी ईसुरी होना है।’’
‘‘आज देख लो माधव मैं खाक छान रही हूँ।’’

माधव ने हँस कर कहा- ‘‘दोनों मिलकर खाक छानेंगे, जल्दी छन जाएगी।’’ माधव की बातें ! मुझे अनचाहे ही हँसी आ जाया करती है। वह दुख को खुशी में बदलने की कोशिश करता रहता है। अन्तरविश्वविद्यालय प्रतियोगिता में जब वह ईसुरी की ओर से फागें कहता था और मैं रजऊ की ओर से गाया करती थी, वह झूमने लगता था। कौन हारा कौन जीता कभी नहीं देखता था। हारकर भी जीत की बातें, यही अदा तो मुझे नहीं लुभा गई ? मैं चिढ़ाती हूँ-माधव निहत्थे होकर शेरों के सपने देखते हो। एक दिन शेर ही तुम्हें खा जाएगा।

‘‘तुम शेर को भी वश में कर लोगी, मैं जानता हूँ। अब मेरे शोध ग्रन्थ को ही ले लो, तुम साथ रहती हो तो उसमें स्त्री -भाषा का चमत्कार घटित होने लगता है। सच में तुम स्त्री के लिए पुरूषों द्वारा गढ़ी गई भाषा को अपदस्थ कर रही हो।’’
‘‘हाय मंडली चली गई !’’ कहकर मैं बार-बार ठंडे श्वास भर रही थी। माधव मौन उदासी के हवाले था। एक वाक्य कहकर रह गया- ‘‘कैसी खरीद-फरोक्त हुई !’’ माधव आज अपने घर जाने के लिए बैग पैक कर चुका था, क्योंकि मैं अब सरस्वती देवी के साथ यहाँ थी। मंडली की फागे सुन ही नहीं रही थी, देख रही थी। कल क्या नजारा था।

यों तो गाँव था, नाट्यमंच की सभी सुविधाएँ भी नहीं थीं। पर्दा उठने-गिरने का हीला भी नहीं, मगर कुशल संयोजन की करामात कि हर दृश्य सजीव हो उठा। बिजली गुल थी, पैट्रोमैक्स जगमगा रहा था। बाहर आकाश में तैरते चाँद ने चाँदनी धरती पर उतार कर सहयोग किया था। जलती हुई मशाल भी तो फगवारों ने एक कोने में गाड़ रखी थी।

सूत्रधार के रूप में धीरे पंडा उदित हुए। वे दर्शकों का अभिवादन करने के बाद अपने साथियों को सर्वश्रेष्ठ अभिनय करने का इशारा दे रहे थे। तभी किसी दर्शक ने कहा- ‘‘सटई गाँव की सरस्वती देवी से हमें ऐसी ही मंडली की उम्मीद थी। फगवारों में अच्छा जोश है।’’ सरस्वती देवी आगे की लाइन में मेरे और माधव के पास जाजिम पर बैठी थीं। लम्बी कद-काठी की पचाससाला औरत। तीखे नैन नक्श वाला लम्बोतरा गेहुँआ चेहरा। उनका मुख जुड़ी हुई भवों के कारण विशेष लगता। वैसे वे मुझे और माधव को शोधार्थी के रूप में पाकर गौरव और उत्साह से भरी हुई थीं।

मंच के बीचों बीच नगड़िया, झींका, बाँसुरी, ढोल और रमतूला जैसे वाद्य रखे थे, जिन्हें घेरकर फगवारे गोल बाँधकर बैठे थे। फगवारे लाल, नीले पीले, हरे कुर्ते और छींटदार पगड़ियों में सजे थे। सबने सफेद धोतियाँ पहन रखी थीं। गिनती में वे दस थे।
साभार -राजकमल प्रकाशन 
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 ''कही ईसुरी फाग'' में स्त्री विमर्श
अर्पणा दीप्ति
प्रेम के लिए देह नहीं, देह के लिए प्रेम ज़रूरी! - मैत्रेयी पुष्पा

मैत्रेयी पुष्पा का 2004 में प्रकाशित उपन्यास ''कही ईसुरी फाग'' स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से ध्यान आकर्षित करने वाला महत्वपूर्ण उपन्यास है । कथावस्तु को ऋतु नामक शोधार्थी द्वारा लोक कवि ईसुरी तथा रजऊ की प्रेम कथा पर आधारित शोध के बहाने नई तकनीक से विकसित किया गया है । इस शोध को इसलिए अस्वीकृत कर दिया जाता है क्योंकि रिसर्च गाइड प्रवर पी. के. पांडेय की दृष्टि में ऋतु ने जो कुछ ईसुरी पर लिखा था , वह न शास्त्र सम्मत था , न अनुसंधान की ज़रूरतें पूरी करता था । उसे वे शुद्ध बकवास बताते हैं क्योंकि वह लोक था । लोक में कोई एक गाइड नहीं होता । लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं , जो जहाँ तक रास्ता बता दे , वही गाइड का रूप ले लेता है। ऋतु भी ईसुरी - रजऊ की प्रेम गाथा के ऎसॆ ‍बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार होती है - 

"बड़ा खतरनाक होता है, जंगलों , पहाड़ों और समुद्र का आदिम सम्मोहन .....हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के दर्शन के लिए ।''

’कही ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऎसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है । इस उपन्यास का नायक ईसुरी है,लेकिन कहानी रजऊ की है - प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ के रास्ते बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हैं। प्यार जहाँ उनको बल देता है,तो तोड़ता भी है। शास्त्रीय भाषा में कहा जाए तो ईसुरी शुद्ध लंपट कवि है, उसकी अधिकांश फागें शृंगार काव्य की मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए शारीरिक आमंत्रणों का उत्सवीकरण है।

ऋतु की शोध यात्रा माधव के साथ ओरछा गाँव से शुरू होती है । लेकिन यह क्या, कि सत्तरह गाँवों की खाक छानकर रजऊ की खोज में पहुँची ऋतु को लोग ईसुरी का पता तो देते हैं मगर रजऊ के बारे में जानकारी देना इसलिए बुरा मानते हैं चूँकि उनकी नजर में रजऊ बदचलन है । लोग विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहते हैं , आजकल पढ़ाई में लुचियायी फागें पढ़ाई जाती हैं! यह गाँव ऋतु की बुआ का गाँव था । ऋतु की बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी । ऋतु को अपने ऊपर झुँझलाहट होती है कि मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया?
"क्योंकि रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार नहीं करता, उसके रूप में मेरी देह का अक्स लोगों के सामने फैल जाता है ।"(पृ.सं-14)

ऋतु के शोध का अगले पड़ाव का संबंध सरस्वती देवी की नाटक मडंली में फाग गाने वाले ईसुरी तथा धीर पंडा से है। रामलीला में तड़का लगाने के लिए ईसुरी के फागों की छौंक ! यह क्या, तभी एक बूढ़ी औरत मटमैली सफेद धोती पहने माथे तक घूँघट ओढ़े भीड़ को चीरती हुई मंच पर आ जाती है । उसकी कौड़ी सी दो आँखो में विक्षोभ का तूफ़ान उठ रहा था- " मानो फूलनदेवी की बूढ़ी अवतार हो । काकी उद्धत स्वर में चिल्लाई -’ओ नासपरे ईसुरी लुच्चा तोय महामाई ले जावे ।’ काकी भूखी शेरनी की तरह ईसुरी की तरफ बढ़ने लगी । मुँह से शब्द नहीं आग के गोले निकल रहे थे । टूटे दाँतों के फाँक से हवा नहीं तपती आँधी टूट रही थी । काकी ने चिल्लाकर कहा, हमारी बहू की जिन्दगानी बर्बाद करके तुम इधर फगनौटा गा रहे हो। अब तो तुम्हारे जीभ पर जरत लुघरा धरे बिना नहीं जाएंगे।"(पृ.सं.-21)

दर्शक उठकर खड़े हो जाते हैं | रघु नगड़िया वाला आकर कहता है - " भाइयों अब तक आपने फागें सुनी और अब फागें नाटक में प्रवेश कर गईं -’लीला देखे रजऊ लीला’ काकी रघु से कहती है-’अपनी मतारी की लीला दिखा’ काकी कहती है -’आज तो हम ईसुरी राच्छस के छाती का रक्त पीके रहेंगे । धीर का करेजा चबा जाएँगे।" (पृ.सं.-22)
काकी के कोप का आधार ? बात उन दिनों की है जब काकी का बेटा प्रताप छतरपुर रहता था और उसकी नवयुवा बहू रज्जो की उम्र बीस वर्ष से कम थी । सुंदर इतनी कि जहाँ खड़ी हो जाए, वही जगह खिल उठे । वह अपूर्व सुंदरी थी या नहीं , मगर ईसुरी के अनुराग में उसकी न जाने कितनी छवियाँ छिपी थीं ।

काकी के घर उन दिनों पंडितों के हिसाब से शनि ग्रह की साढ़े साती लगी थी; नहीं तो मेडकी के ईसुरी और धीर पंडा माधोपुरा की ओर न आते और रज्जो फगवारे को अनमोल निधि के रूप में न मिलती । घूंघटवाली रज्जो से अब तक ईसुरी का जितना भी परिचय हुआ वह लुकते छिपते चंद्र्मा से या राह चलते-निकलते आँखों की बिजलियों से । ऎसे ही बेध्यानी में ईसुरी एक दिन ठोकर खा गए और गिरे भी तो कहाँ; रजऊ की गली में ! ईसुरी ने अपनी ओर से रज्जो को नाम दिया - रजऊ ।

रज्जो को घूंघट से देखने की दिलकश अदा अब ईसुरी को सजा लगने लगी । वे सोचते - यह सब मुसलमानों के आने से हुआ । वे अपनी औरत को बुर्का पहनाने लगे । हिंदुओं ने सोचा, हमारी औरत उघड़ी काहे रहे ? मुसलमानों के परदे को अपना लिया पर अंग्रेजों का खुलापन उन्हें काटने दौड़ा ।

इधर प्रताप छतरपुर में मिडिल की पढ़ाई पूरी न कर पाने के कारण अपने गाँव वापस नहीं आ पाता है | इस खबर से उसकी बूढ़ी माँ एवं पत्नी उदास हो जाती हैं । सास बहू को समझाती - ऎसे उदास होने से काम नहीं चलेगा । स्थिति को पलटने के लिए सास ने दूसरा नुस्खा अपनाया । फाग के पकवानों की तैयारी पूरी है,फगवारे को खिलाकर कुछ पुन्न-धरम कर लेते हैं। रज्जो के चेहरे पर हुलास छा जाता है। सास मन-ही-मन जल-भुनकर गाली भरा श्राप ईसुरी को देना शुरू करती है।

सास रज्जो को समझाती है। पूरा मोहल्ला होली में आग नहीं लगा रहा बल्कि हमारे घर में आग लग रही है। प्रताप का चचेरा भाई रामदास भी रज्जो और फगवारे के प्रसंग को लेकर आगबबूला होता है। सास बदनामी से बचने के लिए रज्जो को मायके जाने की सलाह देती है। लेकिन रज्जो मायके जाने से साफ मना कर देती है। अपनापन उडेलते हुए सास से कहती है - "हमारे सिवा तुम्हारा यहाँ है कौन ? तुम्हारी देखभाल कौन करेगा । गाँव के लुच्चे लोगों की बात छोड़ दो ।" (पृ.सं.-45)

सास रज्जो का विश्वास कर लेती है और कहती है- "मोरी पुतरिया,भगवान राम भी कान के कच्चे थे, मेरा बेटा तो मनुष्य है।" (पृ.सं.-46)
सास रज्जो को अपनी आपबीती सुनाती है कि किस प्रकार फगवारा उसके लिए फाग गा रहा था और उसी दिन प्रताप के दददा उसे लिवाने आए थे । उन्होंने सुन लिया था ।

''मर्द की चाल और मर्द की नजर का मरम मर्द से ज्यादा कौन समझे ! अपना झोला उठाया और चुपचाप वापस चले गए । फिर खबर आई -अपनी बदचलन बेटी को अपने पास रखो, ऎसी सत्तरह जोरू मुझे मिल जाएगी ! फिर क्या था माँ ने डंडों से मेरी पिटाई कर डाली तथा जबरदस्ती नाऊ (हजाम) के संग सासरे भेज दिया । कहा कि नदी या ताल में ढकेल देना, अकेले हमारे देहरी न चढ़ाना । नहीं तो इसके सासरे वालों से कहना- खुद ही कुँआ बाबरी में धक्का दे दें । हम तो कन्यादान कर चुकें हैं । ससुराल वालों ने तो अपना लिया लेकिन पिरताप के दद्दा का कोप बढ़ता तो हथेली पर खटिया का पाया धर देते , अपने पाया के उपर बैठ जाते । डर और दर्द के मारे मैं सफेद तो हो जाती मगर रोती नहीं । यह सोचकर जिन्दा रही अपना ही आदमी है जिसका बोझ हम हथेली पर सह रहें हैं। जनी बच्चे का बोझ तो गरभ में सहती है जिंदगानी तो बोझ वजन के हवाले रहनी है ; सो आदत डाल लिया ।"(पृ.सं.48) रज्जो सास के हाथों पर घाव के भयानक निशान देखकर काँप उठती है।

सास ईसुरी तथा पंडा को खाना खिलाते हुए वचन लेना चाहती है कि रज्जो के नाम पर अब वे फाग नहीं गाएँगे । एकाएक फगवारे खाना छोड़कर उठ जाते हैं। ईसुरी इंकार करते हुए कहता है - "काकी हम जिस रजऊ का नाम फाग के संग लगाते हैं वह न तो प्रताप की दुल्हन है न तुम्हारी बहू?"(पृ.सं.53)

ऋतु के श्रीवास्तव अंकल ऋतु को सरस्वती देवी का पता देते हुए चिरगाँव जाने को कहते हैं और बताते हैं कि हिम्मती औरत है, समाज सेवा का काम करती है, लोकनाट्य में रुचि है और हर साल मंडली जोड़ती है।

सरस्वती देवी ने ऋतु तथा माधव को अपने जीवन का किस्सा बताया । "विधवा हुई , मेरे संसार में अंधेरा छा गया । मगर जिंदगी ने बता दिया कि पति न रहने के बाद औरतों को अपने बारे में सोचना पड़ता है। अपने लिए फैसले लेने पड़ते हैं और फैसला ले लिया । फाग मंडली एक कुलीन विधवा बनाए , परिवार वाले यह बात कैसे सहन करते। कभी जलते पेट्रोमेक्स तोड़े गए तो कभी फगवारे को भाँग पिला दी गई । सरस्वती देवी कहती हैं -पर मैं हार नहीं मानने वाली थी , दूसरे फगवारे को खोजती फिरती क्योंकि मेरे भीतर का हिस्सा रजऊ ने खोजकर कब्जा कर लिया था । फागों में उसका वर्णन सुनकर सोचती थी कि औरत में इतना साहस होता है कि उसके पसीने की बूँद गिरे तो रेगिस्तान में हरियाली छा जाए, आँखों से आँसू गिरे तो बेलों पर फूल खिल जाएँ । रजऊ जैसा नगीना फागों में न टँका होता तो ईसुरी को कौन पूछता ।’ " (पृ.सं.-57)

इधर मामा के छतरपुर वाले घर को आधुनिक नरक कहने वाला माधव उधर ही जा रहा था । लेकिन वहाँ के भ्रष्ट माहौल को देखकर वह वापस ऋतु के पास लौट आता है । जहाँ ऋतु के मन में माधव के प्रति प्रेम का अंकुर फूटता है वहीं मामा के घर जाने पर क्रोध भी आता है ।


सरस्वती देवी ऋतु को मीरा की कहानी सुनाती है - किस प्रकार आँगनवाड़ी के क्षेत्र में मीरा महिला सशक्तीकरण की मशाल अपने हाथ में लेती है । गाँव की सीधी-सादी तथा ससुरालवालों द्वारा पागल समझी जाने वाली मीरा को पढ़ने की बीमारी लग चुकी थी । गाँव की सभ्यता को दरकिनार करते हुए मीरा मोटरसाइकिल चलाने का निर्णय लेती है।


मीरा सिंह की मोटरसाइकिल पर ऋतु बसारी पहुँचती है, 90 वर्ष की बऊ से मिलने । गौना करके आई रज्जो के अपूर्व रूप का वर्णन बऊ करती है। कहती है - "प्रताप की बहू रूप की नगीना, नगीने के नशे में मदहोश प्रताप।"(पृ.सं.-69)

इधर प्रताप छुट्टी बिताकर छतरपुर वापस चला जाता है, उधर ईसुरी के चातक नयन रज्जो की बाट न जाने कब से देख रहे थे । एक ओर पराई औरत की आशिकी और फागों में फिर-फिर रजऊ का नाम लगाने वाले ईसुरी के यश की गाथा राजा रजवाड़ों तक पहुँची । दूसरी ओर सुंदर बहू की बदकारी गाँववालों से होते हुए प्रताप के कानों तक पहुँची । प्रताप पहले फगवारे को समझाता है, पैर पड़ता है, लेकिन सब बेकार। अंत में उसने फगवारे की पिटाई कर दी । प्रताप एक कठोर निर्णय लेता है वह रज्जो का मुँह कभी नहीं देखेगा । वह वापस छतरपुर जाकर अंग्रेजों की पलटन में भर्ती हो जाता है । मर्द चले जाते हैं , घर की रौनक बाँध ले जाते हैं । प्रताप का विमुख होना घर की तबाही बन गया ।

यह बात तो दीगर थी कि रज्जो ने ईसुरी को दिल से चाहा था , लेकिन यह क्या कि फगवारे तमोलिन की बहू के नाम पर फाग गा रहे हैं । जोगन बनी रज्जो आहत होती है । सास रज्जो की पहरेदारी करती है, रज्जो फगवारे से न मिल पाए । तभी पिरभू आकर खबर देता है -"ईसुरी जा रहे हैं आपसे आखिरी बार मिलना चाहते हैं ।" सास की परवाह किए बगैर रज्जो रात के आखिरी पहर हाथ में दिवला जलाए प्रेमानंद सूरे की कोठरी की ओर चल देती है । यह कैसा अदभुत प्रेम ! नहीं देखा कि उजाला हो आया, दीये की रोशनी से ज्यादा उजला उजाला । गाँव के लोगों ने कहा , यह तो प्रताप की दुल्हन है, बिचारी अपने आदमी की बाट हेर रही है , बिछोह में तन-मन की खबर भूल गई है। इतना भी होश नहीं रहा कि दिन उग आया है। नाइन की बहू फूँक मारकर दिवला बुझा देती है । रज्जो उस छोटे बच्चे की भाँति नाइन बहू की अंगुली थामे लौट आती है जिसे यह नहीं पता कि अंगुली थामने वाला उसे कहाँ ले जा रहा है ? रज्जो की सास कहती है- "मोरी पुतरिया कितै भरमी हो ? पिरताप की बाट देख-देखकर तुम्हारी आँखे पथरा गई !" (पृ.सं.-91)

"रज्जो उस बुझे हुए दीए की तरह खुद भी नीचे बैठ गयी मानो प्रकाश विहीन दीये की सारी अगन रज्जो ने सोख ली , जलन कलेजे में उमड़ रही थी ।"(पृ.सं.-91) सास और रज्जो दोनों जोर-जोर से रो पड़ीं । शोकगीत ने आँगन को ढँक लिया । किसके वियोग में गीत बज रहा था ? प्रताप के या ईसुरी के ? दोनों जानती थीं, दोनों के दुःख का कारण दो पुरुष हैं ।

प्रताप का चचेरा भाई रामदास रज्जो का जीना दूभर कर देता है। तीन बेटियों का बाप रामदास कुल की मर्यादा बचाने तथा कुलदीपक पैदा करने के लिए एवं प्रताप के हिस्से की जमीन हथियाने की चाह में रज्जो से शादी करना चाहता है। उसके अत्याचार से तंग आकर रज्जो घर छोड़ गंगिया बेड़िन के साथ भागकर देशपत के साथ जा मिलती है , जो देश की आजादी के लिए अपनी छोटी सी सेना के साथ अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार है। यहीं रज्जो को खबर मिलती है कि प्रताप गोरे सिपाहियों से बगावत कर अपने देश के खातिर शहीद हो चुका है। रज्जो दो बूँद आँसू अपने वीर पति की याद में श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पण करती है। शरीर का साथ वर्षों से नहीं रहा वहीं मन इस कदर बँधा था । तभी तो कहती है - "गंगिया जिज्जी,प्रेम के लिए देह ज़रूरी नहीं है पर देह के लिए प्रेम ज़रूरी है । उनके तन की खाक मिल जाती, हम देह में लगा के साँची जोगिन हो जाते ।"(पृ.सं.-278)

देशपत की फौज में जासूसी का काम करने वाली रज्जो पर कुंझलशाह की बुरी नजर पड़ती है । देशपत की फौज का बाँका सिपाही राजकुमार आदित्य रज्जो को कुंझलशाह के कहर से मुक्ति दिलाता है। रज्जो आदित्य से घुड़सवारी तथा तलवारबाजी सीखती है।

1857 में अंग्रेजों ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को मान्यता देने से इंकार करते हुए रानी के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया । रानी को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेती हुई रज्जो रानी का बाना धारण करती है और अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए रानी से पहले शहीद हो जाती है ।

इधर अपने प्रायश्चित के ताप में तप रहे ईसुरी को आबादी बेगम के द्वारा वीरांगना रज्जो के शहीद होने की खबर मिलती है । अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहे ईसुरी आँखें मूँदे आखिरी निरगुण फाग गाते हुए सदा के लिए खामोश हो जाते हैं ।
"कलिकाल के वसंत में न गोमुख से धाराएँ फूटी न तरुणियों ने रंगोलियाँ सजाईं, न दीये का उजियारा , न ही उल्लास की टोकरी भरता अबीर गुलाल ईसुरी ने अखंड संन्यास की ओर कदम रख दिया ।"(पृ.सं.-340)

ऋतु ने अपने शोध का ऎसा अंत कब चाहा था ! आंकाक्षा थी कि ईसुरी और रजऊ का मिलन होता ,वे अपनी चाहत को आकार देते हुए जीवन यात्रा तय करते और फागों का संसार सजाते । मगर चाहने से क्या होता है जानने की पीड़ा और दूर होते जाने की दर्दनाक मुक्ति तन और मन मिलने पर भी भावनाओं का ऎसा बँटवारा! ऋतु और माधव दोनों के रास्ते अलग-अलग । ऋतु को माधव का संबंध विच्छेद पत्र मिलता है - "ऋतु मुझे गलत नहीं समझना । साहित्य से आदमी की आजीविका नहीं चलती । भूख आदमी को कहाँ से गुजार देती है, यह मैंने गोधरा और अहमदाबाद के दंगों के दौरान देखा है। ऋतु मुझे क्षमा करना रिसर्च रास नहीं आई । अभावों भरी जिंदगी तो बस तरस कर मर जाने वाली हालत है, संतोष कर लेना भी गतिशीलता की मृत्यु है और इस बात से तुम ना नहीं कर सकतीं, जानेवाला टूटा हुआ होता है, उसके तन मन में टूटन के सिवा कुछ नहीं होता। तुम्हें टूटकर चाहने के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है ।"(पृ.सं.-306-307)

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ईसुरी रजऊ को अहिरिया कहकर राधा के विराट व्यक्तित्व से जोड़ना चाहते थे? या राधा जैसी मान्यता दिलवाकर कुछ छूटों का हीला बना रहे थे, जो साधारण औरत को नहीं मिलती है। नहीं तो रजऊ को मीरा से क्यों नहीं जोड़ा गया ? ईसुरी कृष्ण भगवान नहीं थे जो विष को अमृत में बदल देते। वे हाड़ माँस की पुतली अपनी रजऊ से पूजा नहीं, प्रीति की चाहना करते थे । भगवान की तरह दूरी बनाकर जिंदा नहीं रहना चाहते थे।

मैत्रेयी पुष्पा ने वर्तमान और अतीत में एक साथ गति करने वाली इस सर्पिल कथा के माध्यम से कल और आज के समाज में स्त्री जीवन की त्रासदी को आमने-सामने रखने में बखूबी सफलता पाई है। रजऊ की संघर्ष गाथा तब और अधिक प्रबल हो उठती है जब वह 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सक्रिय रुप से जुड़ती है। ईसुरी का प्रेम जहाँ उसे कभी राधा बनाता है और कभी मीरा | वहीं वह प्रताप की मृत्यु पर जोगन की तरह विलाप करती है और अंततः देश के लिए एक साधारण सैनिक बनकर शहीद होते हुए लोकनायिका बन जाती है । ईसुरी पर शोध कर रही ऋतु एंव उसके प्रेमी माधव के बहाने मैत्रेयी पुष्पा ने शिक्षा और शोध तंत्र में व्याप्त जड़ता पर भी प्रहार किया है। ऋतु और माधव के जरिए लेखिका ने एक बार फिर रजऊ और ईसुरी की प्रेमकथा को जीवंत किया है।

"वहीं ’प्रेम’और ’अर्थ’ में एक विकल्प के चुनाव पर माधव अर्थ के पक्ष में हथियार डाल देता है।" (प्रो.ऋषभदेव शर्मा , स्वतंत्रवार्ता, 06 फरवरी ,2005)

और रजऊ की भाँति ऋतु भी अकेली रह जाती है। इस प्रकार मैत्रेयी पुष्पा रजऊ से लेकर ऋतु तक अपने सभी स्त्री पात्रों को संपूर्ण मानवी का व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। ’कही ईसुरी फाग’ की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह यह है कि रजऊ और ऋतु दोनों ही अबला नहीं हैं, वे भावनात्मक स्तर पर क्रमशः परिपक्वता प्राप्त करती हैं और उनके निकट प्रेम का अर्थ पुरुष पर निर्भरता नहीं है।
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