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सोमवार, 26 अप्रैल 2021

गीत

जीवन ज्वाल वरो
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धरती माता विपदाओं से डरी नहीं
मुस्काती है जीत उन्हें यह मरी नहीं
आसमान ने नीली छत सिर पर तानी
तूफां-बिजली हार गये यह फटी नहीं
अग्नि पचाती भोजन, जला रही अब भी
बुझ-बुझ जलती लेकिन किंचित् थकी नहीं
पवन बह रहा, साँस भले थम जाती हो
प्रात समीरण प्राण फूँकते थमी नहीं
सलिल प्रवाहित कलकल निर्मल तृषा बुझा
नेह नर्मदा प्रवहित किंचित् रुकी नहीं
पंचतत्व निर्मित मानव भयभीत हुआ?
अमृत पुत्र के जीते जी यम जीत गया?
हार गया क्या प्रलयंकर का भक्त कहो?
भीत हुई रणचंडी पुत्री? सत्य न हो
जान हथेली पर लेकर चलनेवाले
आन हेतु हँसकर मस्तक देनेवाले
हाय! तुच्छ कोरोना के आगे हारे
स्यापा करते हाथ हाथ पर धर सारे
धीरज-धर्म परखने का है समय यही
प्राण चेतना ज्योति अगर निष्कंप रही
सच मानो मावस में दीवाली होगी
श्वास आस की रास बिरजवाली होगी
बमभोले जयकार लगाओ, डरो नहीं
हो भयभीत बिना मारे ही मरो नहीं
जीव बनो संजीव, कहो जीवन की जय
गौरैया सँग उषा वंदना कर निर्भय
प्राची पर आलोक लिये है अरुण हँसो
पुष्पा के गालों पर अर्णव लाल लखो
मृत्युंजय बन जीवन की जयकार करो
महाकाल के वंशज, जीवन ज्वाल वरो।
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संजीव
९४२५१८३२४४

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