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शनिवार, 24 अप्रैल 2021

पुरोवाक् मुक्तक माल पहनकर 'राग-विराग शिखर पर'

पुरोवाक्
मुक्तक माल पहनकर 'राग-विराग शिखर पर'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंदी साहित्य में 'मुक्तक' शब्द का प्रयोग तीन प्रसंगों में किया जाता है। १. मुक्तक छंद, २. मुक्तक काव्य तथा ३. मुक्तक रचना। सामान्यत: प्रथम दो प्रसंगों में मुक्तक शब्द 'काव्य' और 'छंद' की विशेषता इंगित करता है जबकि तीसरे प्रसंग में संज्ञा की तरह प्रयोग किया जाता है। कोई काव्य या छंद रचना अपने आपमें पूर्ण हो तो उसकी यह विशेषता 'मुक्तक' शब्द से अभिव्यक्त होती है। मुक्तक काव्य, मुक्तक छंद और मुक्तक रचना तीनों का उद्गम 'लोक' द्वारा रचे-कहे-सुने-लिखे गए वाचिक पदों से है। भारतीय लोक की आदिम-पुरातन भाषा-बोलिओं से यह परंपरा विद्वानों ने ग्रहण की। पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत से होते हुए यह काव्य विधा फारस पहुँची। कालान्तर में यवन आक्रांताओं के साथ फ़ारसी-अरबी भाषा के साथ यह भारत आई और भारतीय सीमान्त प्रांतों की भाषा-बोलिओं के साथ मिश्रित होकर उर्दू की काव्य विधाओं' के रूप में भारत में आ गई। 
 

मुक्तक छंद

’मुक्तक’ छंद वह स्वच्छंद रचना है जिसके रस का उद्रेक करने के लिए अनुबंध की आवश्यकता नहीं। मुक्तक, काव्य का वह रूप है जिसमें मुक्तककार प्रत्येक छंद में ऐसे स्वतंत्र भावों की सृष्टि करता है, जो अपने आप में पूर्ण होते हैं। मुक्तक छंद को (अ) पंक्ति संख्या, (आ) उच्चार संख्या तथा (इ) वर्ण संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
 
(अ) पंक्ति आधारित मुक्तक छंद 

इस आधार पर मुक्तक रचनाओं को द्विपदिक मुक्तक छंद (दोहा, सोरठा आदि), त्रिपदिक मुक्तक छंद (माहिया, हाइकु, जनक छंद, तसलीस आदि), चतुष्पदिक मुक्तक छंद (रोला, चौपदे, रुबाई आदि), पंचपदिक मुक्तक छंद (कहमुकरी आदि), षट्पदिक मुक्तक छंद (कुण्डलिया आदि), चौदहपदिक मुक्तक (सॉनेट) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

(क) द्विपदिक मुक्तक 
दोहा
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार। 
'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।    
सोरठा
संबंधों की नाव, पानी-पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव, नदी-नाव-पतवार में।।  
शे'र
बाप की दो बात सह नहीं पाते।
अफसरों की लात भी परसाद है।।

(ख) त्रिपदिक मुक्तक 
माहिया
भावी जीवन के ख्वाब
बिटिया ने देखे हैं              
महके हैं सुर्ख गुलाब।  
हाइकु 
ईंट-रेट का 
मंदिर मनहर 
देव लापता।                 
जनक छंद
आँख बाँध तौले वज़न
तब देता है न्याय जो
न्यायालय कैसे कहें?        

तसलीस
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा,
तभी पाता सफलता है सूरज।    

(ग) चतुष्पदिक 
मुक्तक
रोला
संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।
पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।
पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।
आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।
चौपदा
काहे को रोना कोरोना
कहता अनुशासन मानो।
मास्क पहनकर रखो दूरियाँ
बढ़ा ओषजन सुख जानो।
रुबाई
जहाँ नज़र जाती बस तू ही तू है
नदी मुस्कुराती बस तू ही तू है
दिखी सुबह चिड़िया प्रभाती सुनाती
उषा मन लुभाती बस तू ही तू है।

(घ) पंचपदिक मुक्तक
कहमुकरी
दैया! लगता सबको भय
कोई रह न सके निर्भय
कैद करे मानो कर टोना
सखी! सिपैया? 
नहिं कोरोना।                          
ताँका
घमंड थामे
हाथ में तलवार
लड़ने लगा
अपने ही साये से
उलटे मुँह गिरा  
                 

(ङ) षट्पदिक मुक्तक
कुण्डलिया
हैं ऊँची दूकान में, सब फीके पकवान।
जिसे देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, सहज कब ऊँचाई है।
ऊँचाई सध सके, नहीं तो नीचाई है।।   
सदोका
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।

(च) अष्टपदिक मुक्तक 
उमड़-घुमड़ बरस रही रुके न मातमी घटा 
लगे कि आसमान नील सलिल धार पा फटा 
धीर वीर झूमता जुझारू युद्ध में डटा 
पवन विपक्ष सैन्य दल हटाय किंतु ना हटा?
लुभा रही हैं बिजलियाँ संयमी नहीं पटा 
हरावलों को रोकने अस्त्र-शस्त्र ले सटा
रुधिर धार श्रृंग से बहीं या काल की जटा 
रुण्ड-मुंड ढेर से समुद्र तीर था पटा        - नाराच छंद  

(छ) चौदह पदिक मुक्तक 

दूर अपने आप से मत भागिए 
देख दर्पण पूछिए निज मोल क्या?
अधिक अपने आप को मत आँकिए 
जमाना तुमको रहा है तोल क्या?

मोल हीरा बताता अपना नहीं
मिया मिट्ठू आप मुँह से जो बने 
सत्य होता है कभी सपना नहीं 
समर उसका सचाई से नित ठने 

पतन होता अंत में दसशीश सम 
मिटाते उसको सगे उसके रहे 
मारता जो वही पुजता ईश सम
स्वजन सारे साथ में उसके दहे 

क्या सबक कुछ सीख पाए हम कहो 
यदि नहीं तो याद नित उसकी तहो   -सॉनेट 

(ज) अनिश्चित पंक्ति संख्या के मुक्तक 
रेंगा 
संध्या के गाल 
आँके चुंबन लाल 
अरे किसने?           - नलिनीकांत 
पूछ रहा चंद्रमा 
छिप गया सूरज।   -संजीव 'सलिल'
चोका 
आया चुनाव 
नेता करें वायदे 
जीतें चुनाव 
भूलें झट वायदे 
दिलाओ याद 
वायदों को जुमला 
कहें बेशर्म 
तनिक नहीं लाज 
सत्ता है ध्येय 
देशसेवा की आड़ 
लूटता माली 
कलियों की इज्जत 
जिसने पाला 
उसे काटता साँप 
जागे जनता 
अब न जाए ठगी 

(आ) उच्चार (मात्रा) आधारित मुक्तक
'उच्चार' के दो प्रकार लघु उच्चार तथा दीर्घ उच्चार है। इन्हें सामान्यत: 'मात्रा' तथा उच्चार आधारित छंदों को मात्रिक छंद कहा जाता है। अत: इस आधार पर रचित मुक्तकों को 'मात्रिक मुक्तक कहा जाता है। हिंदी छंद शास्त्र में ५०० से अधिक मात्रिक छंद हैं।  मात्रिक मुक्तक दो मात्राओं से लेकर बत्तीस मात्राओं तक की पंक्तियों से रचे जाते हैं। बत्तीस मात्राओं से अधिक मात्राओं की पंक्तियों से रचे गए मुक्तक दंडक मुक्तक कहे जाते हैं। मात्रिक मुक्तक छंद के विविध प्रकार दोहा, सोरठा, रोला, कुण्डलिया आदि हैं। छंद प्रभाकर के अनुसार मात्रिक मुक्तक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ है। 

(इ) वर्णाधारित मुक्तक 
वर्णधारित मुक्तक 'गण' (लय खंड) को आधार बनाकर रचे जाते हैं। गण आठ हैं जिन्हें गणसूत्र 'यामतराजभानसलगा' से स्मरण रखा जाता है। वर्णधारित मुक्तक छंदों की संख्या १३,४२,१६६२६ है।  
 
मुक्तक काव्य
इन सब मुक्तक छंदों का सम्मिलित रूप मुक्तक काव्य है। सामान्यत: मुक्तक को हर तरह से मुक्त होकर लिखी रचना मान लेना निराधार है। मुक्तक का वास्तविक अर्थ हर तरह के नियमों में बँधी वह रचना है, जिसकी पंक्तियों में अर्थ-भाव तथा रस की त्रिवेणी प्रवाहित होती हो।
मुक्तक काव्य वह काव्य रचना है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो, जिस काव्य रचना का कथ्य उसमें पूरी तरह से अभिव्यक्त हो गया हो या जिस काव्य रचना के कथ्य का पूर्व या पश्चात् की काव्य रचना से कोई संबंध न हो उसे मुक्तक काव्य कहा जाता है। 

‘अग्निपुराण’ के अनुसार ”मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षमः सताम्” अर्थात चमत्कार की क्षमता रखने वाले एक ही श्लोक को मुक्तक कहते हैं। 

तेरहवीं सदी के संस्कृत आचार्य महापात्र विश्वनाथ के शब्दों में ’छन्दोंबद्धमयं पद्यं तें मुक्तेन मुक्तकं’ अर्थात जब एक पद अन्य पदों से मुक्त हो तब उसे मुक्तक कहते हैं। मुक्तक का शब्दार्थ ही है ’अन्यैः मुक्तमं इति मुक्तकं’ अर्थात जो अन्य मुक्तकों (श्लोकों या अंशों) से मुक्त या स्वतंत्र हो उसे मुक्तक कहते हैं। 

अन्य काव्य-पदों से निरपेक्ष होने के साथ-साथ जिस काव्यांश को पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता के अंतःकरण में रस-सलिला प्रवाहित हो, कथ्य का पूर्ण आभास हो, वही मुक्तक है। ’मुक्त्मन्यें नालिंगितम....पूर्वापरनिरपेक्षाणि हि येन रसचर्वणा क्रियते तदैव मुक्तकं’ अर्थात मुक्तक काव्य अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र काव्य रचना (छंद/इकाई) होती है। इसकी पूर्णता के लिए ना तो इसके पहले और ना इसके बाद में, किसी संदर्भ या कथा की आवश्यकता होती है। हिन्दी के रीतिकाल में मुक्तक काव्यों की रचना अधिक की गयी जबकि आधुनिक कला में प्रबंध काव्यों का प्रणयन अधिक किया गया है।

लोक प्रचलित मुक्तक 

आधुनिक हिन्दी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इस परिभाषा के अनुसार प्रबंध काव्यों से इतर प्रायः सभी रचनाएँ मुक्तक में समाविष्ट हो जाती हैं। लोकप्रचलित मुक्तक का संबंध फ़ारसी तथा उर्दू साहित्य से है। मुक्तिका की उदयिका या आरंभिका के साथ उदयिकोत्तर द्विपदी (गजल के मतला के साथ मतलासानी) संलग्न हो तो इस चतुष्पदी काव्य रचना को मुक्तक कहते हैं। मुक्तक एक समान मात्राभार या समान वर्णभार और समान लययुक्त चार पंक्तियों की रचना है। सामान्यतः इसका पहला, दूसरा और चौथा पद तुकान्त तथा तीसरा पद अतुकान्त होता है और जिसकी अभिव्यक्ति का केंद्र अंतिम दो पंक्तियों में होता है। 

गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ। 
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ।।
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ।।  ३२ मात्रिक  

मुक्तक वह नियमबद्ध काव्य रचना है जो स्वतंत्र कथ्य व्हो भाव संपन्न हो  पर काव्य रचना के नियमों में बँधी हो। मुक्तक छोटी -नियमबद्ध काव्य रचना है, जिसका विषय और भाव मुक्त-स्वतंत्र होता है। मुक्तिका (ग़ज़ल, गीतिका, सजल, तेवरी, अनुगीत आदि)  की हर द्विपदी (शे'र) स्वतंत्र मुक्तक है। अत: मुक्तिका मुक्तकों का गुच्छा है। मुक्तक किसी काव्य विधा का नाम नहीं है। मुक्तक वह हर छोटी रचना है, जो छंद नियमों का पालन करते हुए स्वतंत्र/मुक्त भाव रखती है। प्रो.शंभूनाथ तिवारी के अनुसार छोटे छंदों में कुछ लिखा तो वह मुक्तक है पर चौपाई दोहे में लंबी कथा कहेंगे तो वह मुक्तक नहीं होगा। मसनवी में शे'र होते हैं पर वे किसी कहानी का हिस्सा होते हैं, इसलिए मुक्तक नहीं हैं। रामचरित मानस में दोहा, चौपाई आदि छंद हैं पर वे भी कथा का हिस्सा हैं, मुक्त नहीं हैं।  

प्रसिद्ध मुक्तककार राजेंद्र वर्मा के अनुसार मुक्तक काव्य और मुक्तक विधा में अंतर है। मुक्तक काव्य अपनी विषय-वस्तु में पूर्वा पर आधारित नहीं होता। जैसे- दोहा, चौपाई, सवैया-घनाक्षरी छन्द आदि। मुक्तक का विधा के रूप में अर्थ भिन्न होता है। इसमें चार पंक्तियाँ होती हैं, चारों पंक्तियों में एक केन्द्रीय भाव होता है। कहन कुछ इस तरह होती है कि उसका निष्कर्ष या सार अंतिम दो पंक्तियों में हो जिनके कहते ही पाठक 'वाह' कह दे। मुक्तक में व्यंजनात्मकता, लाक्षणिकता तथा अलंकारिता हो तो उसे सराहना मिलती है। मुक्तककार की कहन या अंदाज़-ए-बयाँ उसकी पहचान होती है। मुहावरेदार प्रवाहयुक्त भाषा मुक्तक में जान फूँक देती है। 
 
मुक्तक और पदांत 

चतुष्पदी (मुक्तक) को पदांत नियम के आधार पर निम्नत: वर्गीकृत किया जा सकता है -

(ट) . पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में समान पदांत -
मतभेदों को सब हँसकर स्वीकार करें। 
मनभेदों की ध्वस्त हरेक दीवार करें।। 
ये जय जय वे हाय हाय अब बंद करें-
देश सभी का, सब इसका उद्धार करें।।       - बाईस मात्रिक, रास छंद  
(ठ). पहली दूसरी पंक्ति का समान पदांत, तीसरी चौथी पंक्ति का भिन्न समान पदांत -
गौरैया कलरव। 
ता थैया अभिनव।। 
माँ रेवा रवकर। 
तारेंगी हँसकर।।                                     - दस मात्रिक, गौरैया कलरव छंद  
(ड). पहली तीसरी पंक्ति का समान पदांत,दूसरी चौथी पंक्ति का भिन्न समान पदांत -  
श्वासें हैं महकीं। 
बाँहों में खुशबू। 
आसें हैं चहकीं।।
बाँहों में खुश तू।।                                    दस मात्रिक, आभासी दुनिया छंद
(ढ). पहली चौथी पंक्ति का समान पदांत, दूसरी तीसरी पंक्ति का भिन्न समान पदांत -
कोरोना से मौत विनाश। 
भोगें सारे लोग अभाव।
नेता चाहे आम चुनाव।।
सत्तालोभी दानव।।                                - पंद्रह मात्रिक, भुजंगिनी छंद
(ण). पहली, तीसरी, चौथी पंक्ति का समान तुकांत-
प्रश्न उत्तर माँगते, हैं घूरती चुप्पी
मौन रहकर भी यदि मन, हो न पाए शांत
बनें मुन्ना भाई लें-दें प्यार से झप्पी
गाल पर शिशु के लगा दें प्यार से पप्पी       -तेईस मात्रिक, उपमान छंद 


मुक्तक का वर्गीकरण कथ्य के लक्षणों या विशेषताओं के आधार पर भी किया जाता है। ऐसे कुछ प्रकार निम्न हैं- 

(त). गेय मुक्तक
(थ). वैचारिक मुक्तक
(द). रस प्रधान मुक्तक 
(ध). अलंकार प्रधान मुक्तक 
(न). नीति के मुक्तक 

आधुनिक काल में मुक्तक लेखन की परंपरा दिनोंदिन अधिकाधिक विस्तार पा रही है। सतत सृजनरत साहित्यकारों में बहुविधाई लेखन से प्रतिष्ठित सुनीता सिंह के मुक्तक देश-काल परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में पठनीय हैं। इस संग्रह में चतुष्पदिक मुक्तकों का संग्रह किया गया है। मुक्तकों की विविध मापानियाँ, विभिन्न विषय और उनमें प्रयुक्त विविध छंद मुक्तककार की रचना-सामर्थ्य का परिचायक हैं। गुरुतर प्रशासनिक कार्य-दायित्व का निर्वहन कर रहीं सुनीता, भारतीय गृहणी के सकल दायित्वों के साथ न्याय करते हुए भी विविध विधाओं में जिस द्रुत गति से सृजनरत हैं, वह विस्मित करता है। अला-अलग विधाओं के मानकों को जानना, समझना और उनकी सीमा में आत्मसात की हुई अनुभूतियों को व्यक्त कर पाना सहज नहीं होता। इस निकष पर खरा उतरने के लिए भाव प्रवण अन्तर्मन, प्रचुर शब्द भण्डार, संवेदनशील दृष्टि, भाषिक व्याकरण और पिङगल का ज्ञान तथा अनुभूत को अभिव्यक्त करने के लिए सटीक शब्द-चयन की सजगता सुनीता सिंह में है। 

भारत में हर मौसम अपनी नयनाभिराम छटा बिखेरता है। प्रथम वर्षा में माटी और बर्षा-बूंदों के मिलान से उठती सौंधी-सौंधी सुगंध मन-प्राण को आनंदित कर देती है-

पहली-पहली बारिश सौंधी बहुत सुहावन होती है।  ३० 
रस बरसे आंगन में टप-टप, बहुत लुभावन होती हैं।।
प्रीत चुनरिया रंग-बिरंगी ओढ़ ह्रदय जब लेता है-
भाव सुरीले, धुन-लय मीठे, सरगम पावन होती है।८।  -  (ताटंक छंद)

ऋतुओं के समागम का अपना अलग आनंद है। कवयित्री ग्रीष्म में शीत की प्रतीति को शब्दित करती है- 

गर्मी उफने बाहर तो सुराही में है शीत रे! २८ 
मीठी तेरी बर्फी से, लवाही मेरी मीत रे!
लह-लह करती फसल लहे, बहुत सुगंधित हवा चली-
हलवे से ज्यादा सौंधे, ये पुरवाई के गीत रे! ८८/२।        -  (विधाता छंद)

गेहूँ की फसल पकने पर ऐसी प्रतीत होती है मानों खेतों पर सोना बिखरा है-

खेर्तों में बिखरा सोना।   १४ 
धरती का निखरा होना।। 
हरियाली के गीतों का- 
फसलों में बाली बोना।९०।         - (सखी छंद) 

परिवर्तन ही जीवन है। सुख-दुःख जीवन में धूप-छाँव की तरह आते-जाते हैं। सुख मिलने पर आदमी अपनों से दूर हो एकाकी होकर भोगना चाहता है जबकि दुःख को अपनों के साथ बाँटना चाहता है। तुलसी कहते हैं 'धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपत काल परखिहहिं चारि'। शैली के अनुसार 'अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस दैट टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट'  बकौल शैलेंद्र 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'। सुनीता जी के अनुसार पीड़ा में मन और अधिक निखरता है -

पीर सियाही में डूबा मन और निखरकर आया है।   ३० 
जितना सिमटा है अपने में, और बिखर घबराया है।।
ठहरी नस में बहता विष है, भीगी आँखें जलती हैं -  
जितना गहराई में उतरा, और शिखर पर पाया है।५।    - (ताटंक छंद)

इन मुक्तकों में यत्र-तत्र जीवन-दर्शन के दर्शन होते हैं। सामान्यत: दर्शन और वैराग्य की बातें मनुष्य वृद्धावस्था में करता है किन्तु कवि-मन को परिपक्व होने के लिए आयु की प्रौढ़ता की आवश्यकता नहीं होती। कवि की अनुभूतियाँ उसे परिपक्व बनाती हैं। सुनीता जी के लिए जीवन अनमोल उपहार है। इसीलिए वे जीवन के पल-पल का उपयोग करती हैं और कुछ न कुछ नया गढ़ती-बढ़ती हैं। 

जीवन कोई भार नहीं है।   १६ 
जीत-हार व्यापार नहीं है।।
रत्न सुदर्शन रंग भरा ये -
सस्ता यह उपहार नहीं है।१७।       - (अरिल्ल छंद)

जीवन में चुनौतियाँ न हों तो जीवन नीरस हो जाएगा। आगे बढ़ने का आनंद तभी है जब पग-पग पर बाधाएँ हों। इस भाव को व्यक्त करता है निम्न मुक्तक -

तुम डुबोते रहो, हम उबर जाएँगे। २१ 
टूटटे-टूटते हम सँवर जाएँगे।।
साथ देना न तुम, कोई शिकवा नहीं-
धूप सहते हुए हम निखर जाएँगे।३०।   - (त्रैलोक छंद)

सामान्य माध्यम वर्ग और पारंपरिक समाज की कन्या के लिए उन्नति की रह आसान होती। वही बिटिया आगे बढ़ पति है जिसमें जिजीविषा, लगन और असफलता से हताशा न होकर आगे बढ़ने का माद्दा होता है। सुनीता ने अपनी अल्प समय में अपनी जीवन यात्रा में प्रशासनिक सेवा और साहित्य के क्षेत्रों में शिखर तक पहुँचकर अपने जीवट की जय बोली है। संघर्षरत युवा कुछ मुक्तकों में अपने लिए सफलता के सूत्र पा सकते हैं- 

पाँव शिखर पर धीरे-धीरे चढ़ते हैं।    २२ / १५ 
थम दम ले फिर हौले-हौले बढ़ते हैं।।
अब न रुकेंगे सुन लो ऐ दुनियावालो!
हम यत्नों से किस्मत अपनी गढ़ते हैं।८७ / १ ।    - (मात्रिक कुंडल छंद / वार्णिक अतिशक्वरी छंद) 

यह मुक्तक बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय मात्रिक कुण्डल छंद होने के साथ-साथ १५ x ४ = ६० अक्षरी अतिशक्वरी जातीय छंद के विधान पर खरा उतरता है। वार्णिकमात्रिक दोनों कसौटियों पर सही छंद लिखने के लिए अभ्यास और दक्षता दोनों आवश्यक हैं। 

'सब दिन जात न एक समान'। धैर्यवान व्यक्ति भी घटनाओं के चक्रव्यूह में घिरकर असहायता अनुभव करने लगता है। तब 'हारे को हरिनाम' अर्थात ईश्वरीय सहायता ही एकमात्र निदान बचता है-

झंझावातों से जग के जब मन घबराता है।   २६ 
छ्व्यूह से लाख जतन कर निकल न पाता है।।
ऐसे में सब तुम पर छोड़ा प्रभु! जो हो करना-
डूब रही नैया को तू ही पार लगता है।७२।      - (विष्णुपद छंद)

इन मुक्तकों का वैशिष्ट्य उनकी मुहावरेदार भाषा, सरल-सटीक शब्द चयन, स्पष्ट भाव बोध तथा सरसता है। सुनीता जी ने जाने-अनजाने अनेक छंदों का प्रयोग इन मुक्तकों में किया है जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया है। छान्दस विधानानुरूप होने के कारण ये मुक्तक सहज गेय हैं। मुक्तकों में अमिधा, व्यंजना तथा लक्षणा का यथस्थान उपयोग  किया गया है। शांत, श्रृंगार, भक्ति, करुण आदि रास यत्र-तत्र मुक्तकों में अन्तर्निहित हैं। इससे पहले गीत, दोहे, कविता, बाल गीत, हज़ल आदि विधाओं में अपना जौहर दिखा चुकी सुनीता जी इस बार मुक्तक के ग्रह पर सृजन पताका फहरा रही हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ये मुक्तक सामान्य पाठक से लेकर विद्वानों तक सभी के द्वारा सराहे जाएँगे। 
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संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com  

   



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