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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

सामयिक रचना: मंदिर बनाम मस्जिद संजीव 'सलिल'

सामयिक रचना:

मंदिर बनाम मस्जिद

संजीव 'सलिल'
*
*
नव पीढ़ी सच पूछ रही...
*
ईश्वर-अल्लाह एक अगर
मंदिर-मस्जिद झगड़ा क्यों?
सत्य-तथ्य सब बतलाओ
सदियों का यह लफड़ा क्यों?
*
इसने उसको क्यों मारा?
नातों को क्यों धिक्कारा?
बुतशिकनी क्यों पुण्य हुई?
किये अपहरण, ललकारा?
*
नहीं भूमि की तनिक कमी.
फिर क्यों तोड़े धर्मस्थल?
गलती अगर हुई थी तो-
हटा न क्यों हो परिमार्जन?
*
राम-कृष्ण-शिव हुए प्रथम,
हुए बाद में पैगम्बर.
मंदिर अधिक पुराने हैं-
साक्षी है धरती-अम्बर..
*
आक्रान्ता अत्याचारी,
हुए हिन्दुओं पर भारी.
जन-गण का अपमान किया-
यह फसाद की जड़ सारी..
*
ना अतीत के कागज़ हैं,
और न सनदें ही संभव.
पर इतिहास बताता है-
प्रगटे थे कान्हा-राघव..
*
बदला समय न सच बदला.
किया सियासत ने घपला..
हिन्दू-मुस्लिम गए ठगे-
जनता रही सिर्फ अबला..
*
एक लगाता है ताला.
खोले दूजा मतवाला..
एक तोड़ता है ढाँचा-
दूजे का भी मन काला..
*
दोनों सत्ता के प्यासे.
जन-गण को देते झाँसे..
न्यायालय का काम न यह-
फिर भी नाहक हैं फासें..
*
नहीं चाहता कोई दल.
मसला यह हो पाये हल..
पंडित,मुल्ला, नेता ही-
करते हलचल, हो दलदल..
*
जो-जैसा है यदि छोड़ें.
दिशा धर्म की कुछ मोड़ें..
मानव हो पहले इंसान-
टूट गए जो दिल जोड़ें..
*
पंडित फिर जाएँ कश्मीर.
मिटें दिलों पर पड़ी लकीर..
धर्म न मजहब को बदलें-
काफ़िर कहों न कुफ्र, हकीर..
*
हर इंसां हो एक समान.
अलग नहीं हों नियम-विधान..
कहीं बसें हो रोक नहीं-
खुश हों तब अल्लाह-भगवान..

जिया वही जो बढ़ता है.
सच की सीढ़ी चढ़ता है..
जान अतीत समझता है-
राहें-मंजिल गढ़ता है..
*
मिले हाथ से हाथ रहें.
उठे सभी के माथ रहें..
कोई न स्वामी-सेवक हो-
नाथ न कोई अनाथ रहे..
*
सबका मालिक एक वही.
यह सच भूलें कभी नहीं..
बँटवारे हैं सभी गलत-
जिए योग्यता बढ़े यहीं..
*
हम कंकर हैं शंकर हों.
कभी न हम प्रलयंकर हों.
नाकाबिल-निबलों को हम
नाहक ना अभ्यंकर हों..
*
पंजा-कमल ठगें दोनों.
वे मुस्लिम ये हिन्दू को..
राजनीति की खातिर ही-
लाते मस्जिद-मन्दिर को..
*
जनता अब इन्साफ करे.
नेता को ना  माफ़ करे..
पकड़ सिखाये सबक सही-
राजनीति को राख करे..
*
मुल्ला-पंडित लड़वाते.
गलत रास्ता दिखलाते.
चंगुल से छुट्टी पायें-
नाहक हमको भरमाते..
*
सबको मिलकर रहना है.
सुख-दुख संग-संग सहना है..
मजहब यही बताता है-
यही धर्म का कहना है..
*
एक-दूजे का ध्यान रखें.
स्वाद प्रेम का 'सलिल' चखें.
दूह और पानी जैसे-
दुनिया को हम एक दिखें..
*

7 टिप्‍पणियां:

Kusum Thakur ने कहा…

जिस दिन जनता यह समझे
नाहक में वो क्यों रगड़े
क्यों न प्रेम का स्वाद चखे
एक दूजे की हाथ धरे.

Ghulam Murtaza Shareef ने कहा…

जबके तुझ बिन नहीं कोई मोजूद ,
फिर ये हंगामा ये खुदा क्या है |

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

जिसके बिना कोई नहीं, कुछ भी नहीं.
वही रहता मौन में और वह ही हंगामे में है.

Shahid Mirza . ने कहा…

Shahid :
सबको मिलकर रहना है.
सुख-दुख संग-संग सहना है..
मजहब यही बताता है-
यही धर्म का कहना है..
अच्छा संदेश दिया है आपने.

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

shaid jee dhanyvad.

Ghulam Murtaza : ने कहा…

Ghulam Murtaza :

और प्रगट होने के लिए "इखलाकी जुर्रत " का होना अनिवार्य है

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

beshak