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गुरुवार, 16 सितंबर 2010

सामयिक कविता मेघ का सन्देश : -- संजीव सलिल'

सामयिक कविता

मेघ का सन्देश :                                                   

संजीव सलिल'
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.

मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..

सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..

देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.

एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..

तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..

तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.

नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..

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3 टिप्‍पणियां:

: ने कहा…

kusum sinha

priy sanjiv ji

bahut sundar kavita... bahut hi sundar... man khush ho gaya... aapki kalam me jaadu hai ye to manti hun.
badhai
kusum

बेनामी ने कहा…

सलिल स्वतः निर्गंध है, नहीं रंग, ना नूर.
मिले कुसुम-आशीष तो, गंधित हो भरपूर.

मैं तो मात्र निमित्त हूँ, लिखा रहा अज्ञेय.
शायद खुद को कराता, वह कविता से ज्ञेय..

कुसुम-गंध की जग करे, बनकर मधुकर वाह.
'सलिल' भ्रमित हो मत समझ, तुझको रहे सराह..

- shakun.bahadur@gmail.com ने कहा…

मेघों का उत्तर अर्थपूर्ण और सशक्त है किन्तु ये भी सच है-
" अति सर्वत्र वर्जयेत।"
रचना सराहनीय है।
शकुन्तला बहादुर