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सोमवार, 27 सितंबर 2010

हरयाणवी दोहे: राम कुमार आत्रेय.कैथल

हरयाणवी दोहे:

राम कुमार आत्रेय.कैथल

*
तिन्नू सैं कड़वै घणे, आक करेला नीम.
जितना हो कड़वा घणा, उतना भला हकीम..

सच्चाई कडवी घणी, मिट्ठा लाग्गै झूठ.
सच्चाई के कारणे, रिश्ते जावैं टूट..

बिना लोक चलरया सै, लोकतंत्र यूँ आज.
जिस गेल्यां गुंडे घणे, उसके सिर पर ताज..

पोर-पोर न्यूं फूल्ग्या, जंगल का औ ढाक.
निच्चे-उप्पर तक जड़ूं, आग खेलरी फाग..

कपड़े कम जाड्डा घणा, क्यूंकर ढाप्पूं गात.
छोट्टा सै यू सांग अर, घणी बड़ी सै रात..

या ब्रिन्दावन धाम की, ख़ास बताऊँ बात.
रटरे राधा-कृस्न सब, डाल-पात दिन-रात..

गरमी आंदी देख कै, आंब गए बौराय.
कोयल कुक्की बाग़ में, पिय को रही बुलाय..

तुलसी तेरे राम का, रूप-सरूप- अनूप.
अमरित भरया हो जिसा, ठंडा-मिट्ठा कूप..


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5 टिप्‍पणियां:

kusum sinha ekavita ने कहा…

priy sanjiv ji
kitne sundar dohe vo bhi haryanavi me? kitni bhashayein jante hai aap? bahut khushi hui dekhkar badhai badhai bahut badhai
kusum

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

आत्मीय कुसुम जी!
वन्दे मातरम.
सच कहूँ तो एक भी भाषा नहीं जान पाया. अभी तो समुद्र तट पर की लहर की एक बूँद को भी नहीं पा सका हूँ. विश्व वाणी हिन्दी के किसी एक रूप की पक्षधरता या विरोध के स्थान पर हिन्दी की विविध छवियों के विशिष्ट का रस-पान कर ई कविता परिवार के साथ झूमने का प्रयास है. श्री राम कुमार आत्रेय लिखित ये हरयाणवी दोहे सचमुच रस का सागर हैं.
आपने इस भावना को सराहा, मैं कृतकृत्य हुआ.

- nadeem_sharma@yahoo.com ने कहा…

सुन्दर!परन्तु पांचवे दोहे का अर्थ नहीं समझ सका.
समझा दें तो उपकार होगा.
सादर,
अमर

Dr.M.C. Gupta ✆ ekavita ने कहा…

सुन्दर! परन्तु पांचवे दोहे का अर्थ नहीं समझ सका.

कपड़े कम जाड्डा घणा, क्यूंकर ढाप्पूं गात.
छोट्टा सै यू सांग अर, घणी बड़ी सै रात..

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ठंड बहुत और कपड़े थोड़े, कैसे ढाँकूँ गात
दो पल का है स्वाँग पड़ी है बाकी लम्बी रात.

--ख़लिश

Divya Narmada ने कहा…

आत्मीय अमर जी!
वन्दे मातरम.
माननीय खलिश जी ने पांचवे दोहे का अर्थ कितनी सहजता से दोहे में ही समझा दिया. उन्हें हार्दिक धन्यवाद.