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बुधवार, 29 सितंबर 2010

अयोध्या प्रकरण : कब?, क्या??, कैसे???...आपका मत?....

अयोध्या प्रकरण : कब?, क्या??, कैसे???...आपका मत?....

thumbnail.php?file=ayodhya_457767905.jpg&size=article_mediumप्रस्तोता: संजीव 'सलिल'
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लगभग १२ लाख वर्ष पूर्व श्री राम का काल खंड. भूगोल के अंसार तब टैथीस महासागर समाप्त होकर ज़मीन उभर आई थी. बहुत सी ज़मीन विशाल शिलाओं के कारण अनुपजाऊ थी, बंजर तथा घने जंगलोंवाली जिस ज़मीन पर लोग सारी कोशिश करने के बाद भी बस नहीं सके उसे त्याग दिया गया. वह अभिशप्त मानी गई. उस पर हल नहीं चलाया जा सका था अतः उसे उसे अहल्या कहा गया. श्री राम राजपुत्र थे उन्होंने राज्य के संसाधनों से उस ज़मीन को कृषियोग्य बनवाया, उद्धार किया. यही अहल्या उद्हर है जिसे गुअतम ऋषि की पत्नी अहल्या के साथ अकारण जोड़ दिया गया. 
सीता का अर्थ है वह लकीर जो हल के चलने से बनती है जिसमें फसल बोते समय बीज डाला जाता है. सीता रावण की परित्यक्त पुत्री थीं जिन्हें जनक ने पाला था. 

वर्ष १५२८ : मुग़ल आक्रान्ताओं ने स्थानीय निवासियों के विरोध के बावजूद सनातन धर्मावलम्बियों द्वारा श्री राम का जन्मस्थल मानी जाती भूमि पर उन्हें नीचा दिखाने के लिये अपना पूजा गृह बनवाया. यह मुग़ल सेना के नायक ने बनवाया. बाबर कभी अयोध्या नहीं गया. आम लोग मुग़ल सेना को बाबरी सेना कहते थे क्योंकि बाबर सर्वोच्च सेनानायक था, उसकी सेना द्वारा स्थापित ढांचा बाबरी मस्जिद कहा गया. यह लगभग १० फुट x १० फुट का स्थान था जहाँ सीमित संख्या में लोग बैठ सकते थे. यहाँ का निर्माण मस्जिद जैसा नहीं था... अजान देने के लिये मीनारें नहीं थीं, न इबादतगाह थी. बाबर की आत्मकथा बाबरनामा तथा अन्य समकालिक पुस्तकों में बाबर द्वारा अयोध्या में कोई मस्जिद बनवाने का कोई उल्लेख नहीं है. संभवतः मुग़ल सिपाहियों के नायक इसका उपयोग करते रहे हों... बाद में बड़ी संख्या हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाये जाने से नमाजियों की संख्या में वृद्धि तथा अन्यत्र बड़ी मस्जिद बन जाने के कारण के बाद यह स्थान नमाज के लिये छोटा पड़ा और क्रमशः अनदेख और उपेक्षित रहा.

वर्ष १८५९: अंग्रेज शासकों ने  हिन्दुओं-मुसलमानों को लड़वाने की नीति अपनी. उस काल में इसे मस्जिद कहकर बाद से घेर दिया गया. राम भक्त ढाँचे के बाहर श्री राम की पूजा करते रहे.

वर्ष १९४९: २२-२३ दिसंबर को अचानक ही श्री राम की मूर्तियाँ यहाँ मिलीं... कैसे-कहाँ से आईं?... किसने रखीं?... आज तक पता नहीं लगा. संतों ने इसे श्री राम का प्रगट होना कहा... अन्य धर्मावलम्बियों ने इसे सत्य नहीं माना. फलतः दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विरुद्ध मुकदमे दायर कर दिए. सरकार ने स्थल पर ताला लगा दिया. प्रारभ में श्री राम का पूजन बंद रहा किन्तु क्रमशः प्रशासन की देख-रेख में पूजन होने लगा... असंख्य श्रृद्धालु रामलला के दर्शनार्थ पहुँचते रहे.

वर्ष: १९८४: विवाद को राजनैतिक रंग दिया गया. जनसंघ ने हिन्दू हित रक्षक होने का मुखौटा पहनकर विश्व हिन्दू परिषद् के माध्यम से मंदिर निर्माण हेतु समिति का गठन कराया.

वर्ष १९८६: रामभक्तों के आवेदन पर जिला मजिस्ट्रेट ने हिन्दुओं को पूजा-प्रार्थना करने के लिये विधिवत ताला खोलने का आदेश दिया. दैनिक पूजन तथा समस्त धार्मिक आयोजन वृहद् पैमाने पर होने लगे.

वर्ष: १९९२: भारतीय जनता पार्टी ने राजनैतिक लाभ हेतु राम रथ यात्रा का आयोजन किया. नेतृत्व कर रहे  श्री लालकृष्ण अडवानी का रथ बिहार में श्री लालू यादव के आदेश पर रोका गया. बाद में पूर्वघोषित कार्यक्रम के अनुसार कारसेवकों ने ढाँचा जहाँ वर्षों से नमाज नहीं पढ़ी गयी, गिरा दिया. केन्द्रीय सुरक्षा बल ने बचने के पर्याप्त प्रयास नहीं किये. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय में ढाँचे की सुरक्षा का वायदा किया था जो पूरा नहीं हुआ. श्री आडवानी, उमा भारती, स्थानीय सांसद श्री विनय कटिहार ने हर्ष तथा श्री अटल बिहारी बाजपेई ने दुःख व्यक्त किया. ढाँचा गिराए जाने को केद्र में पदासीन कोंग्रेस सरकार ने विश्वासघात कहा किन्तु कोंग्रेसी प्रधानमंत्री स्व. नरसिम्हाराव की बाल्य-काल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े रहने की पृष्ठभूमि को देखते हुए उनका परोक्ष समर्थन माना गया. घटना की जाँच हेतु केंद्र सरकार ने लिब्राहन आयोग का गठन किया.

वर्ष २००२:  सर्वोच्च न्यायालय ने ३ मार्च को यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया.

वर्ष २००३: जनवरी रेडिओ तरंगों के माध्यम से विवादित स्थान के अवशेषों की खोज की गई. मार्च में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से विवादित स्टाल पर पूजन-पथ की अनुमति देने हेतु अनुरोध किया जो अस्वीकार कर दिया गया. अप्रैल में इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्देश पर पुरातात्विक विभाग (आर्किओलोजिकल डिपार्टमेंट) ने खुदाई कर प्रतिवेदन दिया जिसके अनुसार मंदिर से मिलते-जुलते अवशेष एक विशाल इमारत, खम्बे, शिव मंदिर और मूर्तियों के अवशेष प्राप्त होना स्वीकारा गया.

वर्ष २००५:विवादित परिसर में स्थापित रामलला परिसर पर आतंकवादी हमला... पाँच आतंकी सुरक्षा बालों से लम्बी मुठभेड़ के बाद मार गिराए गये.  

वर्ष २००९: गठन के १७ वर्षों बाद लिब्राहन आयोग ने अपना जाँच-प्रतिवेदन प्रस्तुत किया. ७ जुलाई उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वीकारा कि विवाद से जुड़ी २३ महत्वपूर्ण नस्तियाँ सचिवालय से लापता हो गयीं.

वर्ष २०१०:

मूल प्रश्न: क्या विवादित ढाँचा किसी मंदिर को तोड़कर बनाया गया था?, क्या विवादित ढाँचा ही श्री राम का जन्मस्थल है?

हमारा मत:


लगभग ५०० वर्ष पूर्व बनाया गया ढाँचा किसी इमारत को तोड़कर बनाया गया या किसी खाली ज़मीन पर यह भी आज जानना संभव नहीं है. इतिहास की किताबों में भी इन बिन्दुओं पर कोई जानकारी नहीं मिल सकती.

क्या उक्त दो प्रश्न किसी कानून से जुड़े है? क्या लाखों वर्ष पहले जन्में श्री राम के जन्म से संबंधित दस्तावेजी सबूत (प्रमाणपत्र) मिलना संभव है? आज भी जन्म प्रमाण पत्र में जन्म का स्थान कोई शहर, मोहल्ला या चिकित्सालय लिखा नाता है, उसके किस हिस्से में यह नहीं होता... लम्बी समयावधि के बाद यह जान पाना संभव नहीं है. कुछ भी निर्णय दिया जाए सभी पक्षों को संतुष्ट करना संभव नहीं है.

स्पष्ट है कि न्यायालय जो संविधान के अंतर्गत संवैधानिक कानून-व्यवस्था से जुड़े विवादों के हल हेतु बनाई गई है को ऐसे प्रकरण में निर्णय देने को कहा गया जो मूलतः उससे जुड़ा नहीं है. यह विवाद हमारी सामाजिक समरसता भंग होने तथा राजनैतिक स्वार्थों के लिये लोक हित को किनारे रखकर विविध वर्गों को लड़ाने की प्रवृत्ति से उपजा है. इसके दोषी राजनैतिक दल और संकुचित सोचवाले धार्मिक नेता हैं.

न्यायालय कोई भी निर्णय दे कोई पक्ष संतुष्ट नहीं होगा. वर्तमान में लम्बे समय से पूजित श्री राम की मूर्तियों को हटाने और मस्जिद बनाने या ढाँचे को पुनर्स्थापित करने जैस्सा एक पक्षीय निर्णय न तो सामाजिक, न धार्मिक, न विधिक दृष्टि से उचित या संभव है. लंबी मुक़दमेबाजी से कुछ पक्षकार दिवंगत हो गए, जो हैं वे थक चुके हैं और किसी तरह निर्णय करना चाहते है, जो नए लोग बाद में जुड़ गए हैं वे मसाले को जिंदा रखने और अपने साथ जनता की सहानुभूति न होने से असहाय हैं... वे जो भी निर्णय आये उसे स्वीकार या अस्वीकार कर अपने लिये ज़मीन पाना चाहते हैं. आम भारतवासी, सामान्य राम भक्तों या अयोध्यावासियों को इस विवाद या निर्णय से कोई सरोकार नहीं है... वह अमन-चैन से सद्भावनापूर्वक रहना चाहता है पर राजनीति और धर्म से जुड़े और उसे आजीविका बनाये लोग आम लोगों को चैन से जीने नहीं देना कहते और विवादों को हवा देकर सुर्ख़ियों में बने रहना ही उनका ध्येय है. दुर्भाग्य से प्रसार माध्यम भी निष्पक्ष नहीं है. उसके मालिक इस या उस खेमे से जुड़े हैं और बहुत से तो हर पक्ष से सम्बन्ध रखे हैं कि कोई भी सत्ता में आये स्वार्थ सधता रहे.

एक सच यह भी बरसों से लड़ रहे लोग अयोध्या में रहेँ तो भी न तो रोज राम-दर्शन को जाते हैं... न ही कभी ढाँचे में नमाज पढने गए. वे विवाद से निष्ठा नहीं स्वार्थ के कारण जुड़े हैं.

पाठक अपना मत दें उनके अनुसार निर्णय क्या होना चाहिए?

मुक्तिका:

फिर ज़मीं पर.....

संजीव 'सलिल'
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फिर ज़मीं पर कहीं काफ़िर कहीं क़ादिर क्यों है?
फिर ज़मीं पर कहीं नाफ़िर कहीं नादिर क्यों है?
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फिर ज़मीं पर कहीं बे-घर कहीं बा-घर क्यों है?
फिर ज़मीं पर कहीं नासिख कहीं नाशिर क्यों है?
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चाहते हम भी तुम्हें चाहते हो तुम भी हमें.
फिर ज़मीं पर कहीं नाज़िल कहीं नाज़िर क्यों है?
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कौन किसका है सगा और किसे गैर कहें?
फिर ज़मीं पर कहीं ताइर कहीं ताहिर क्यों है?
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धूप है, छाँव है, सुख-दुःख है सभी का यक सा.
फिर ज़मीं पर कहीं तालिब कहीं ताजिर क्यों है?
*
ज़र्रे -ज़र्रे में बसा वो न 'सलिल' दिखता है.
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं  मंदिर क्यों है?
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पानी जन आँख में बाकी न 'सलिल' सूख गया.
फिर ज़मीं पर कहीं सलिला कहीं सागर क्यों है?
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कुछ शब्दों के अर्थ : काफ़िर = नास्तिक, धर्मद्वेषी, क़ादिर = समर्थ, ईश्वर, नाफ़िर = घृणा करनेवाला, नादिर = श्रेष्ठ, अद्भुत, बे-घर = आवासहीन, बा-घर = घर वाला, जिसके पास घर हो, नासिख = लिखनेवाला,  नाशिर = प्रकाशित करनेवाला, नाज़िल = मुसीबत, नाज़िर = देखनेवाला, ताइर = उड़नेवाला, पक्षी, ताहिर = पवित्र, यक सा = एक जैसा, तालिब =  इच्छुक, ताजिर = व्यापारी, ज़र्रे - तिनके, सलिला = नदी, बहता पानी,  सागर = समुद्र, ठहरा पानी.
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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