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बुधवार, 22 सितंबर 2010

दोहा-नवगीत : बरसो राम धड़ाके से -संजीव 'सलिल'

दोहा-नवगीत :
बरसो राम धड़ाके से


संजीव 'सलिल'
*
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

*
लोकतंत्र की जमीं पर, 
लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए 
अब कैसे हो खैर?

अपनेपन की आड़ ले, 
भुना रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- 
कहें मछरिया तैर

मारो इन्हें कड़ाके से, 
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
कर विनाश मिल, कह रहे, 
बेहद हुआ विकास
तम की कर आराधना- 
उल्लू कहें उजास

भाँग कुएँ में घोलकर, 
बुझा रहे हैं प्यास
दाल दल रहे आम की- 
छाती पर कुछ खास

पिंड छुड़ाओ डाके से, 
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !
*
मगरमच्छ अफसर मुए, 
व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- 
ओढ़ शेर की खाल

देखो लंगड़े नाचते, 
लूले देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- 
गूँगे करें सवाल

चोरी होती नाके से, 
बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

****************

6 टिप्‍पणियां:

Naveen C Chaturvedi ने कहा…

आदरणीय आपकी इन पंक्तियों का जवाब नहीं:

मगरमच्छ
अफसर मुए, व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- ओढ़ शेर की खाल
देखो लंगड़े नाचते, लूले
देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
चोरी होती नाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

pooja singh ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी ,
प्रणाम आपने'' नवगीत'' कविता के माध्यम से आज के समाज का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है, कविता की ये पंक्ति बहुत अच्छी लगी { लोकतंत्र की
जमीं पर, लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले, भुना
रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !}

Ganesh Jee 'Bagi' ने कहा…

वाह वाह आचार्य जी, या रचना भी खूब है, बरसो राम धड़ाके से , मरे न दुनिया फाके से ,
अच्छी रचना ,

Saurabh Pande ने कहा…

वाह-वा.. वाह-वा.. वाह-वा.. !!
सलिलजी.. मेरा अभिनन्दन..
मन मस्त इस खाके से.. बरसो राम धड़ाके से.. !

आपका ये अलमस्त अंदाज़ और आपकी ऐसी साफ़गोई.. मेरा मन आपके प्रति और भी श्रद्धा से भर गया.

Arun Kumar Pandey 'Abhinav' ने कहा…

'बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
चोरी होती नाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !'
बहुत खूब सलिल जी ,सामयिक सन्दर्भों में करारा कटाक्ष है .ऐसी ही रचनाएं समय की मांग और उसके सापेक्ष हैं.

shesh dhar tiwary ने कहा…

मगरमच्छ
अफसर मुए, व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- ओढ़ शेर की खाल
देखो लंगड़े नाचते, लूले
देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
आपकी तो बात ही निराली है साहब जी. क्या कोड़े मारे हैं की चमड़ी तक लेके लौटे. धन्यवाद.