मुक्तिका:
आँखें गड़ाये...
संजीव 'सलिल'
*
आँखें गड़ाये ताकता हूँ आसमान को.
भगवान का आशीष लगे अब झरा-झरा..
आँखें तरस गयीं है, लबालब नदी दिखे.
जंगल कहीं तो हो सघन कोई हरा-हरा..
इन्सान तो बहुत हैं शहर-गाँव सब जगह.
लेकिन न एक भी मिला अब तक खरा-खरा..
नेताओं को सौंपा था देश करेंगे सरसब्ज़.
दिखता है खेत वतन का सूखा, चरा-चरा..
फूँक-फूँक पी रहे हम आज छाछ को-
नादां नहीं जल चुके दूध से जरा-जरा..
मंदिर हो. काश्मीर हो, या चीन का मसला.
कर बंद आँख कह रहे संकट टरा-टरा..
जो हिंद औ' हिन्दी के नहीं काम आ रहा.
जिंदा भले लगे, मगर है वह मरा-मरा..
देखा है जबसे भूख से रोता हुआ बच्चा.
भगवान का भी दिल है दर्द से भरा-भरा..
माता-पिता गए तो सिर से छाँव ही गई.
बेबस है 'सलिल' आज सभी से डरा-डरा..
******************************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
मंगलवार, 21 सितंबर 2010
मुक्तिका: आँखें गड़ाये... संजीव 'सलिल'
चिप्पियाँ Labels:
-Acharya Sanjiv Verma 'Salil',
/samyik hindi kavya,
Contemporary Hindi Poetry,
geetika. muktika,
hindee filmon ke madhur geet,
hindi gazal,
india,
jabalpur
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें