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रविवार, 12 सितंबर 2010

संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये जबाबदार कौन... नेतृत्व ? या नीतियां

नवोन्मेषी वैचारिक  आलेख :

संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये जबाबदार कौन...  नेतृत्व ? या नीतियाँ?

                                            -- विवेक रंजन श्रीवास्तव

( लेखक को नवोन्मेषी वैचारिक लेखन के लिये राष्ट्रीय स्तर पर रेड एण्ड व्हाइट पुरुस्कार मिल चुका है- सं.)

                  कारपोरेट मैनेजर्स की पार्टीज में चलनेवाला जसपाल भट्टी का लोकप्रिय व्यंग है, जिसमें वे कहते हैं कि किसी कंपनी में सी. एम. डी. के पद पर भारी-भरकम पे पैकेट वाले व्यक्ति की जगह एक तोते को बैठा देना चाहिये , जो यह बोलता हो कि "मीटिंग कर लो", "कमेटी बना दो" या "जाँच करवा लो ". यह सही है कि सामूहिक जबाबदारी की मैनेजमेंट नीति के चलते शीर्ष स्तर पर इस तरह के निर्णय लिये जाते हैं  पर विचारणीय है कि क्या कंपनी नेतृत्व से कंपनी की कार्यप्रणाली में वास्तव में कोई प्रभाव नही पड़ता? भारतीय परिवेश में यदि शासकीय संस्थानों के शीर्ष नेतृत्व पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि नौकरी की उम्र के लगभग अंतिम पड़ाव पर, जब मुश्किल से एक या दो बरस की नौकरी ही शेष रहती है, तब व्यक्ति संस्थान के शीर्ष पद पर पहुँच पाता है.सेवा निवृत्ति के निकट इस उम्र के शीर्ष प्रबंधन की मनोदशा यह होती है कि किसी तरह उसका कार्यकाल अच्छी तरह निकल जाए. कुछ लोग अपने निहित हितों के लिये पद-दोहन की कार्य प्रणाली अपनाते हैं, कुछ शांति से जैसा चल रहा है वैसा चलने दिया जाए और अपनी पेंशन पक्की की जाए की नीति पर चलते हैं  वे नवाचार को अपनाकर विवादास्पद बनने से बचते हैं. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो मनमानी करने पर उतर आते हैं . उनकी सोच होती है कि कोई उनका क्या कर लेगा? उच्च पदों पर आसीन ऐसे लोग अपनी सुरक्षा के लिये राजनैतिक संरक्षण ले लेते हैं, और यहीं से दबाव में गलत निर्णय लेने का सिलसिला चल पड़ता है. भ्रष्टाचार के किस्से उपजते हैं. जो भी हो हर हालत में नुकसान तो संस्थान का ही होता है .                                                                                          
                 इन स्थितियों से बचने के लिये सरकार की दवा स्वरूप सरकारी व अर्धसरकारी संस्थानो का नेतृत्व आई .ए .एस . अधिकारियों को सौंप दिया जाता है. संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों में यह भावना होती है कि ये नया लड़का हमें भला क्या सिखायेगा? युवा आई. ए. एस. अधिकारी को संस्थान से कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता, वह अपने कार्यकाल में कुछ करिश्मा कर नाम कमाना चाहता है जिससे जल्दी ही बेहतर पदांकन मिल सके. जहाँ तक भ्रष्टाचार के नियंत्रण का प्रश्न है, आई. ए. एस. अधिकारियों का मूल राजस्व विभाग पटवारी से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा है. फिर भला आई .ए. एस. अधिकारियों के नेतृत्व से किसी संस्थान में भ्रष्टाचार नियंत्रण कैसे संभव है ? 

                 आई. ए. एस. अधिकारियों को प्रदत्त असाधारण अधिकारों, उनकेलंबे विविध पदों पर संभावित सेवाकाल के कारण, संस्थान के आम कर्मचारियों में भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है. मसूरी स्थित आई. ए .एस. अधिकारियों के ट्रेनिंग स्कूल का प्रशिक्षण यह है कि एक कौए को मारकर टाँग दो, बाकी स्वयं ही डर जायेंगे. मैने अनेक बेबस कर्मचारियों को इसी नीति के चलते बेवजह प्रताड़ित होते हुये देखा है, जिन्हें बाद में न्यायालयों से मिली विजय इस बात की सूचक है कि भावावेश में शीर्ष नेतृत्व ने गलत निर्णय लिया था. मजेदार बात है कि हमारी वर्तमान प्रणाली में शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिये गये गलत निर्णयों हेतु उन्हें किसी तरह की कोई सजा का प्रवधान ही नहीं है..ज्यादा से ज्यादा उन्हें उस पद से हटा कर एक नया वैसा ही पद किसी और संस्थान में दे दिया जाता है. इसके चलते अधिकांश आई. ए. एस. अधिकारियों की अराजकता सर्वविदित है . सरकारी संस्थानो के सर्वोच्च पदो पर आसीन लोगों का कहना है कि उनके जिम्मे तो क्रियान्वयन मात्र का काम है नीतिगत फैसले तो मंत्री जी लेते हैं, इसलिये वे कोई रचनात्मक परिवर्तन नही ला सकते.
             
                 कार्पोरैट जगत के मध्यम श्रेणी के निजी संस्थानों में मालिक की मोनोपाली व वन मैन शो हावी है. पढ़े-लिखे शीर्ष प्रबंधक भी मालिक या उसके बेटे की चाटुकारिता में निरत देखे जाते हैं. बहू राष्ट्रीय कंपनियाँ अपने बड़े आकर के कारण कठिनाई में हैं. शीर्ष नेतृत्व अंतर्राष्ट्रीय बैठकों, आधुनिकीकरण, नवीनतम विज्ञापन, संस्थान को प्रायोजक बनाने, शासकीय नीतियों में सेध लगाकर लाभ उठाने में ही ज्यादा व्यस्त दिखता है. वर्तमान युग में किसी संस्थान की छबि बनाने, बिगाड़ने में मीडीया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. रेल मंत्रालय में लालू यादव ने अपने समय में खूब नाम कमाया. कम से कम मीडिया में उनकी छबि एक नवाचारी मंत्री की रही . आई. सी. आई. सी. आई. के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन से उस संस्थान के दिन बदलते भी सबने देखा है. शीर्ष नेतृत्व हेतु आई. आई. एम. जैसे संस्थानो में जब कैम्पस सेलेक्शन होते हैं तो जिस भारी-भरकम पैकेज के चर्चे होते हैं वह इस बात का द्योतक है कि शीर्ष नेतृत्व कितना महत्वपूर्ण है . किसी संस्थान में काम करनेवाले लोग तथा संस्थान की परम्परागत कार्य प्रणाली भी उस संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये बराबरी से जबाबदार होते हैं . कर्मचारियों के लिये पुरस्कार, सम्मान की नीतियाँ उनका उत्साहवर्धन करती हैं. कर्मचारियों की आर्थिक व अहम् की तुष्टि औद्योगिक शांति के लिये बेहद जरूरी है, नेतृत्व इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है .

                 राजीव दीक्षित भारतीय सोच के एक सुप्रसिद्ध विचारक हैं, व्यवस्था सुधारने के प्रसंग में वे कहते हैं कि यदि कार खराब है तो उसमें किसी भी ड्राइवर को बैठा दिया जाये, कार तभी चलती है जब उसे धक्के लगाये जावें. प्रश्न उठता है कि किसी संस्थान की प्रगति के लिये, उसके सुचारु संचालन के लिये सिस्टम कितना जबाबदार है ? हमने देखा है कि विगत अनेक चुनावों में पक्ष-विपक्ष की अनेक सरकारें बनी पर आम जनता की जिंदगी में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नही आ सके. लोग कहने लगे कि साँपनाथ के भाई नागनाथ चुन लिये गये. कुछ विचारक भ्रष्टाचार जैसी समस्याओ को लोकतंत्र की विवशता बताने लगे हैं , कुछ इसे वैश्विक सामाजिक समस्या बताते हैं. अन्य इसे लोगो के नैतिक पतन से जोड़ते हैं. आम लोगो ने तो भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेककर इसे स्वीकार ही कर लिया है, अब चर्चा इस बात पर नही होती कि किसने भ्रष्ट तरीको से गलत पैसा ले लिया,  चर्चा यह होती है कि चलो इस इंसेटिव के जरिये काम तो सुगमता से हो गया. निजी संस्थानों में तो भ्रष्टाचार की एकांउटिग के लिये अलग से सत्कार राशि, भोज राशि, उपहार व्यय आदि के नये-नये शीर्ष तय कर दिये गये हैं. सेना तक में भ्रष्टाचार के उदाहरण देखने को मिल रहे है . क्या इस तरह की नीति स्वयं संस्थान और सबसे बढ़कर देश की प्रगति हेतु समुचित है?
                      
                विकास में विचार एवं नीति का महत्व सर्वविदित है. इस सबसे महत्वपूर्ण हिस्से को हमने जनप्रतिनिधियों को सौंप रखा है. एक ज्वलंत समस्या बिजली की है.  आज सारा देश बिजली की कमी से जूझ रहा है. परोक्ष रूप से इससे देश की सर्वांगीण प्रगति बाधित हुई है. बिजली, रेल की ही तरह राष्ट्रव्यापी सेवा व आवश्यकता है बल्कि रेल से कहीं बढ़कर है फिर क्यों उसे टुकड़े-टुकड़े में अलग-अलग मंडलों, कंपनियों के मकड़जाल में उलझाकर रखा गया है? क्यों राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय विद्युत सेवा जैसी कोई व्यवस्था अब तक नहीं बनाई गई? समय से पूर्व भावी आवश्यकताओं का सही पूर्वानुमान लगाकर नये बिजली घर क्यों नहीं बनाये गये? इसका कारण बिजली व्यवस्था का खण्ड-खण्ड होना ही है, जल विद्युत निगम अलग है, ताप-बिजली निगम अलग, परमाणु बिजली अलग, तो वैकल्पिक उर्जा उत्पादन अलग हाथों में है, उच्चदाब वितरण , निम्नदाब वितरण अलग हाथों में है .एक ही देश में हर राज्य में बिजली दरों व बिजली प्रदाय की स्थितयों में व्यापक विषमता है. 

  केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा व आतंकी गतिविधियों के समन्वय में जिस तरह की कमियाँ उजागर हुई हैं ठीक उसी तरह बिजली के मामले में भी केंद्रीय समन्वय का सर्वथा अभाव है जिसका खामियाजा हम सब भोग रहे हैं. नियमों का परिपालन केवल अपने संस्थान के हित में किये जाने की परंपरा गलत है. यदि शरीर के सभी हिस्से परस्पर सही समन्वय से कार्य न करे तो हम चल नहीं सकते. विभिन्न विभागों की परस्पर राजस्व, भूमि या अन्य लड़ाई के कितने ही प्रकरण न्यायालयों में है, जबकि यह एक जेब से दूसरे में रुपया रखने जैसा ही है. इस जतन में कितनी सरकारी उर्जा नष्ट हो रही है,  यह तथ्य विचारणीय है. पर्यावरण विभाग के शीर्ष नेतृत्व के रूप में श्री टी. एन. शेषन जैसे अधिकारियों ने पर्यावरण की कथित रक्षा के लिये तत्कालीन पर्यावरणीय नीतियों की आड़ में बोधघाट परियोजना जैसी जल विद्युत उत्पादन परियोजनाओ को तब अनुमति नहीं दी. इससे उन्होंने स्वयं तो नाम कमा लिया पर बिजली की कमी का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह अब तक थमा नहीं है. बस्तर के जंगल सुदूर औद्योगिक महानगरों का प्रदूषण किस स्तर तक दूर कर सकते हैं यह अध्ययन का विषय हो सकता है, पर यह स्पष्ट दिख रहा है कि आज विकास की किरणें न पहुँच पाने के कारण जंगल नक्सली गतिविधियो का केंद्र हैं . आम आदमी भी सहज ही समझ सकता है कि प्रत्येक क्षेत्र का संतुलित विकास होना चाहिये पर हमारे नीति-निर्धारक यह नहीं समझ पाते. मुम्बई जैसे महानगरों में जमीन के भाव आसमान को बेध रहे हैं.प्रदूषण की समस्या, यातायात का दबाव बढ़ता ही जा रहा है. देश में जल स्रोतों के निकट नये औद्योगिक नगर बसाये जाने की जरूरत है पर अभी इस पर कोई काम नहीं हो रहा!   
   
                  आवश्यकता है कि कार्पोरेट जगत व सरकारी संस्थान अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझें व देश के सर्वांगीण हित में नीतियाँ बनाने व उनके क्रियान्वयन में शीर्ष नेतृत्व राजनेताओ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी भूमिका निर्धारित करे, देश के विभिन्न संस्थानों की प्रगति देश की प्रगति की इकाई है.
                                                                                                                                                                             - vivek1959@yahoo.co.in
                                    
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