मुक्तिका
कुछ भला है.....
संजीव 'सलिल'
*
जो उगा है, वह ढला है.
कुछ बुरा है, कुछ भला है..
निकट जो दिखते रहे हैं.
हाय! उनमें फासला है..
वह हुआ जो रही होनी
जो न चाहा क्या टला है?
झूठ कहते - चाहते सच
सच सदा सबको खला है..
स्नेह के सम्बन्ध नाज़ुक
साध लेना ही कला है..
मिले पहले, दबाते फिर
काटते वे क्यों? गला है..
खरे की है पूछ अब कम
टका खोटा ही चला है..
भले रौशन हों न आँखें
स्वप्न उनमें भी पला है..
बदलते हालात करवट
समय भी तो मनचला है..
लाख़ उजली रहे काया.
श्याम साया दिलजला है..
ज़िंदगी जी ली, न समझे
'सलिल' दुनिया क्या बला है..
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http://divyanarmada.blogspot.com
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 12 सितंबर 2010
मुक्तिका कुछ भला है..... संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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