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बुधवार, 1 सितंबर 2010

दोहा दुनिया : छाया से वार्ता संजीव 'सलिल'

दोहा दुनिया :

छाया से वार्ता

संजीव 'सलिल'
 *














*
अचल मचल अविचल विचल, सचल रखे चल साथ.
'सलिल' चलाचल नित सतत, जोड़ हाथ नत माथ..
*
प्रतिभा से छाया हुई, गुपचुप एकाकार.
देख न पाये इसलिए, छाया का आकार..
*
छाया कभी डरी नहीं, तम उसका विस्तार.
छाया बिन कैसे 'सलिल', तम का हो विस्तार..
*
कर प्रकाश का समादर, सिमट रहे हो मौन.
सन्नाटे का स्वर मुखर, सुना नहीं- है कौन?.
*
छाया की माया प्रबल, बली हुए भयभीत.
माया की छाया जहाँ, होती नीत-अनीत..
*
मायापति इंगित करें, माया दे मति फेर.
सुमति-कुमति सम्मति करें, यह कैसा अंधेर?.
*
अंतरिक्ष के मंच पर, कठपुतली है सृष्टि.
छाया-माया ही ध्खीं, गयी जहाँ तक दृष्टि..
*
दोनों रवि-राकेश हैं, छायापति मतिमान.
एक हुआ रजनीश तो, दूजा है दिनमान..
*
मायापति की गा सका, पूरी महिमा कौन?
जग में भरमाया फिरे, माया-मारा मौन..
*
छाया छाए तो मिले, प्रखर धूप से मुक्ति.
आए लाए उजाला, जाए जगा अनुरक्ति..
*
छाया कहती है करो, सकल काम निष्काम.
जब न रहे छाया करो, तब जी भर विश्राम..
*
छाया के रहते रहे, हर आराम हराम.
छाया बिन श्री राम भी, करें 'सलिल' आराम..
*
परछाईं-साया कहो, या शैडो दो नाम.
'सलिल' सत्य है एक यह, छाया रही अनाम..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम 

2 टिप्‍पणियां:

Pratibha Saksena ekavita ने कहा…

आ. आचार्य जी
प्रणाम ,
इधर आपकी कुछ कविताएँ दर्शन -प्रधान हुई जा रही है-इस विषय में एक उक्ति
प्रस्तुत करना चाहती हूँ -
'सरस्वती का यौवन कविता है और बुढ़ापा दर्शन'
जानती हूँ अभी आपकी वाणी को प्रौढ़ा होने के लिए बहुत आगे चलना हैूँ ,यह मैं इसलिए कह रही हूँ कि कभी-कभी.मैं उलझन में पड़ जाती हूँ ,.दार्शनिक गूढ़ताएँ कुछ द्विधा उत्पन्न कर देती हैं -(तर्क-वितर्क दर्शन का स्वभाव है न).अब जैसे मैं यह भाव हृदयंगम नहीं कर पाई -
प्रतिभा से छाया हुई, गुपचुप एकाकार.
देख न पाये इसलिए, छाया का आकार..
कभी-कभी ,यह सोच कर चुप लगा जाती हूँ कि आप क्या सोचेंगे कि इतना भी नहीं समझ पाई .पर गूढ़ बात को समझ लेना उचित होगा . कृपया मेरा समाधान करें .
आशा है मेरा औद्धत्य क्षमा करेंगे.
सविनय ,
प्रतिभा.

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

आत्मीय!

वन्दे-मातरम.

गुरु शिष्य को परखने के लिये ऐसे प्रश्न आदिकाल से करते रहे हैं. अस्तु... आदेश पालन का प्रयास है:

सामान्यतः छाया मूलकर से जुड़ी होकर भी लग होती है. प्रतिभा निराकार होती है. अतः प्रतिभा की छाया नहीं हो सकती, दिखाने का प्रश्न ही नहीं है. कवि कल्पना है कि प्रतिभा की छाया (प्रतिभा पर मुग्ध होकर) उससे एकाकार हो गयी है, इसलिए अलग से नहीं दिखती. यही स्थिति जीव की होती है, जो परमात्मा से एकाकार होते ही अलग अस्तित्व खो देता है. यही अद्वैत है.

Acharya Sanjiv Salil