डाकिया बन  वक़्त... 
संजीव 'सलिल'
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सुबह की  ताज़ी  हवा  मिलती  रहे  तो  ठीक  है.
दिल को छूता कुछ, कलम रचती रहे तो ठीक है.. 
बाग़ में  तितली - कली  हँसती  रहे  तो  ठीक  है.
संग  दुश्वारी  के   कुछ  मस्ती  रहे  तो  ठीक  है..
छातियाँ हों  कोशिशों  की  वज्र  सी  मजबूत तो-
दाल  दल  मँहगाई  थक घटती  रहे  तो ठीक है.. 
सूर्य  को  ले ढाँक बादल तो न चिंता - फ़िक्र कर.
पछुवा या  पुरवाई  चुप  बहती रहे  तो ठीक  है..  
संग  संध्या,  निशा, ऊषा,  चाँदनी  के  चन्द्रमा 
चमकता जैसे, चमक  मिलती  रहे  तो ठीक है.. 
धूप कितनी भी  प्रखर हो, रूप  कुम्हलाये  नहीं. 
परीक्षा हो  कठिन  पर फलती  रहे  तो ठीक  है.. 
डाकिया बन  वक़्त खटकाये  कभी कुंडी 'सलिल'-
कदम  तक  मंजिल अगर चलती रहे  तो ठीक है.. 
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Acharya Sanjiv Salil
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