नवगीत
संजीव
*
झुठलाता सच समय
झूठ को
सच बतलाता है।
कौन किसी का
कभी हुआ है?
भरम पालते लोग।
दुःख बो; फसल
चाहते खुशियाँ,
लाइलाज है रोग।
नफरत मोम;
लाड़ लोहा
चुप रह पिघलाता है।
घिग्घी बँधी
देख कृषकों को
भीत हुई सत्ता।
तूफानों को
देख काँपता
पीत पड़ा पत्ता।
पाहुन आता
कर्कश ध्वनि कर
गिद्ध बताता है।
बेटा बात न
सुने बाप की
नेहरू है दोषी।
नहीं नर्मदा
संसद अपनी
अभिशापित कोसी।
नित विपक्ष को
कोस-कोस
खबरें छपवाता है।
***
७-८-२०२१
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