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रविवार, 8 अगस्त 2021

सोरठा सलिला

सोरठा सलिला:बजे श्वास-संतूर...
संजीव 'सलिल'
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'तुम' जा बैठा दूर, 'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए।
आँखें रहते सूर, जो न देख पाया रहा।।
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अपने आप विलीन, 'मैं' में 'तुम' जब हो गया।
हर पल 'सलिल' नवीन, व्याप गई घर में खुशी।।
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है जी का जंजाल, 'तुम' से 'मैं' की गैरियत।
'हम' बन हों खुशहाल, 'सलिल' इसी में खैरियत।।
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याद नहीं उपहार, 'मैं' ने 'मैं' को कब दिया?
रूठीं 'सलिल' बहार, 'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गई।।
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भू पर लाते स्वर्ग, 'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से।
दूर रहे अपवर्ग, 'सलिल' करें तकरार यदि।।
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'तू' बनकर मधुमास, 'मैं' की आँखों में बसा।
आया सावन मास, जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो?
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गृह-वाहन गतिशील, 'तू' 'मैं' के दो चक्र पर।
बाधा सके न लील, 'हम' ईधन गति-दिशा दे।।
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हो न सके जब एक, 'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा।
विपदा लिए अनेक, तू-तू मैं-मैं न्योत कर।।
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ह्रदय हर्ष से चूर, 'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए।
नत नयनों में नूर, गाल गुलाबी हैं सलज।।
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'मैं'-तम करे समाप्त, 'मैं' में 'मैं' का मिलन ही।
हो घर भर में व्याप्त, 'हम'-रवि की प्रेमिल किरण।।
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'तू' शशि 'मैं' हो नूर, 'हम' बन करते बंदगी।
बजे श्वास-संतूर, शरत्पूर्णिमा ज़िंदगी।।
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