नवगीत:
मेघ बजे....
संजीव 'सलिल'
*
मेघ बजे, मेघ बजे,
मेघ बजे रे!
धरती की आँखों में,
स्वप्न सजे रे...
*
सोई थी सलिला.
अंगड़ाई ले जगी.
दादुर की टेर सुनी-
प्रीत में पगी..
मन-मयूर नाचता,
न वर्जना सुने.
मुरझाये पत्तों को,
मिली ज़िंदगी..
झूम-झूम झर झरने,
करें मजे रे.
धरती की आँखों में,
स्वप्न सजे रे...
*
कागज़ की नौका,
पतवार बिन बही.
पनघट-खलिहानों की-
कथा अनकही..
नुक्कड़, अमराई,
खेत, चौपालें तर.
बरखा से विरह-अगन,
तपन मिट रही..
सजनी पथ हेर-हेर,
धीर तजे रे!
धरती की आँखों में,
स्वप्न सजे रे...
*
मेंहदी उपवास रखे,
तीजा का मौन.
सातें-संतान व्रत,
बिसरे माँ कौन?
छत्ता-बरसाती से,
मिल रहा गले.
सीतता रसोई में,
शक्कर संग नौन.
खों-खों कर बऊ-दद्दा,
राम भजे रे!
धरती की आँखों में,
स्वप्न सजे रे...
*****************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 21 सितंबर 2010
नवगीत: मेघ बजे.... संजीव 'सलिल'
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
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1 टिप्पणी:
ati sundar :)
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