कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 28 सितंबर 2021

नवगीत- मेरे पुरखों

नवगीत 
तुम्हें प्रणाम 
संजीव 
*
मेरे पुरखों! 
तुम्हें प्रणाम। 
*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त रख, विधि बन
सृष्टि रची अंशों से।
नाद-ताल-ध्वनि, सुर-सरगम
व्यापे वंशों में।
अणु-परमाणु-विषाणु 
विष्णु हो धारे तुमने। 
कोष-वृद्धि कर 
'श्री' पाई है। 
जल-थल-नभ पर 
कीर्ति-पताका 
फहराई है। 
बन श्रद्धा-विश्वास 
व्याप्त हो हर कंकर में।
जननी-जनक देखते हम
गौरी-शंकर में।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम। 
मेरे पुरखों! 
सतत प्रणाम। 
*
भूत-अभूत तुम्हीं ने 
नाते, बना निभाए।
पैर जमीं पर जमा
धरा को थे छू पाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने 
मनुज हो खरा। 
लड़े, मर-मिटे 
असुर और सुर।
मिलकर जिए 
किंतु वानर-नर।
सेतुबंध कर मिटा दूरियाँ
काम करे रहकर निष्काम। 
मेरे पुरखों! 
विनत प्रणाम। 
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे! 
गही विरासत, 
हाय! न हमने।
चूक करी 
रौंदा प्रकृति को।
अपनाया मोहक विकृति को।
आम न रहकर
'ख़ास' हो रहे। 
नाश बीज का 
अपने हाथों आप बो रहे। 
खाली हाथों जाना फिर भी 
जोड़ मर रहे
विधि है वाम। 
मेरे पुरखों!
अगिन प्रणाम।।
***
९५२५१८३२४४

कोई टिप्पणी नहीं: