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बुधवार, 1 सितंबर 2021

पुरोवाक, मिथलेश बड़गैंया

पुरोवाक
नर्मदांचली गीत सलिला गई मथी : 'प्रेम की भागीरथी'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गीत का उद्भव
मानव ने अपने उद्भव काल से ही अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए ध्वनि को अपनाया। पशुओं-पक्षियों की बोलिओं को सुनकर उनका अनुकरणकर मनुष्य ने ध्वनि और लय को मिलाना ही नहीं सीखा अपितु इस माध्यम से अपनी अनुभूतियों को सुदूर मानव समूहों तक पहुँचाने का माध्यम भी बनाया। शेर की दहाड़, सर्प की फुफकार, नदी और झरने की कलकल, पंछियों का कलरव आदि ध्वनियों के साथ मनुष्य की विविध अनुभूतियाँ जुड़ती गईं। क्रमश: ध्वनियों को जोड़ने और पुनरावृत्ति करने (दोहराने) से प्राप्त लयात्मक आनंद ने गुनगुनाने, गाने और सुनाने के युग को जन्म दिया। ध्वनियों के साथ अर्थ संयुक्त होने पर सार्थक गीत ने जन्म लिया। शिकार युग में पशुओं की उपस्थिति की सूचना अपने साथियों और अन्य मानव समूहों तक पहुँचाकर उन्हें सतर्क करने, पशुपालन काल में भय को भगाने तथा कृषि युग में पंनछी उड़ने और अकेलापन मिटाने के लिए निरर्थक और सार्थक ध्वनियों को मानव ने अपनाया। बढ़ते सार्थक शब्द भंडार ने खेतिहरों और मजदूरों के आदिम लोकगीतों को जन्म दिया जो परिष्कृत होकर 'बम्बुलिया, सरगोड़ासनी' आदि के रूप में आज भी ग्राम्यांचलों में गाए जाते हैं। ऋतु परिवर्तन ने कजरी, राई आदि और पर्व-त्योहारों ने दीवारी, जस, भगतें आदि लोकगीतों को लोक कंठ में बसा दिया। जन्म, विवाह, मरण आदि से सोहर,जच्चा गीत, बन्ना-बन्नी, विदाई गीत आदि का प्रचलन हुआ। धार्मिक क्रियाओं ने आरती, भजन, प्रार्थना आदि का विकास किया।

हिंदी गीत

प्राकृत और अपभृंश की पीठिका पर विकसित खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी) ने लोक में व्याप्त वाचिक परंपरा के साथ-साथ प्राकृत, अपभृंश और संस्कृत के छंदों का प्रयोग कर गीत परंपरा को आगे बढ़ाया। वीरगाथा काल में पराक्रमी नायकों के अतिरेकी शौर्य-वर्णन से भरे गाथा काव्यों, रासो आदि में गीत का रूप 'आल्हा' आदि में सीमित था। भक्ति काल में गीत को विषय और कथ्य की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण समृद्धता प्राप्त हुई। भक्त कवियों ने प्रार्थना, वंदना, भजन, स्तुति, जस, आरती, पद आदि की रचना की। ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी भावधाराओं ने, निर्गुण-और सगुण पंथों ने, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि उपासना पद्धतियों ने, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि पंथों ने अपने इष्ट और गुरुओं की प्रशंसा में गीत का बहुआयामी विकास किया। रीतिकाल में श्रृंगारपरक साहित्य को प्रधानता मिली और इस काल का गीत साहित्य भी लावण्यमयी नायिकाओं के नख-शिख वर्णन को अपना साध्य मान बैठा। लोकगीतों की धुनों और छंदों का विद्वानों ने अनुशीलन कर उनकी ध्वन्यात्मक आवृत्तियों और उच्चारों की गणना कर मात्रिक-वार्णिक छंदों में वर्गीकृत कर पिंगल (छंद शास्त्र) का विकास किया। गीत पहले या छंद? यह प्रश्न मुर्गी पहले या अंडा की तरह निरर्थक है। यह निर्विवाद है कि लयात्मक ध्वनियों की आवृत्ति पहले लोक में की गई। ध्वनियों के लघु-गुरु उच्चारों को 'मात्रा' और विशिष्ट मात्रा समूह को पिंगल में 'गण' कहा गया। 'मात्रा' और 'गण' की गणना ने छंद वर्गीकरण को जन्म दिया।

आधुनिक साहित्यिक गीत का विकास

आधुनिक काल में लोकभाषाओँ में व्याप्त गीतों के साथ-साथ शिक्षित साहित्यिक गीतकारों ने सामयिक परिस्थितियों, विडंबनाओं और विसंगतियों को भी गीत का कथ्य बनाना आरंभ किया। भाषा और शिक्षा का विकास होने पर अब रचनाकार पूर्व ध्वनियों का स्वानुकरण न कर किताबों में उन ध्वनियों के सूत्र देखकर रचने का प्रयास करता है। इस कारण 'आशुकवि' समाप्तप्राय हैं। अब गीत का रचनाकर्म 'स्वाभाविक' कम और 'गणितीय' या 'यांत्रिक' अधिक होने लगा है। इस कारण आनुभूतिक सघनता का ह्रास हो रहा है। आनुभूतिक सघनता कम होने से गीत में 'सरसता' कम और 'तार्किकता' अधिक होने लगी। 'भावना' को कम 'अनुभूति' को अधिक महत्व मिला। भावनात्मक उड़ान वायवी होने लगी तो 'दिल' की जगह 'दिमाग' ने ली और गीत के प्रति जनरुचि घटी। साहित्यिक मठाधीशी और अमरत्व की चाह ने गीत को 'आम' से काटकर 'ख़ास' से जोड़ने का कर गीत का अहित किया और तथाकथित प्रगतिवादियों ने गीत के मरने की घोषणा कर, गीतकारों को आत्मावलोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के पथ पर चलने की प्रेरणा देकर गीत को पुनर्जीवन दे दिया। लक्ष्य पाठकों / श्रोताओं को चिह्नित कर गीत को लोक गीत, बाल गीत, ग्राम्य गीत आदि विशेषण मिले तो कथ्य देखते हुए पर्व गीत, ऋतु गीत (सावन गीत, चैती गीत आदि), मौसमी गीत, सांध्य गीत आदि नाम दिए गए। उद्देश्य की भिन्नता ने गीत को आह्वान गीत, प्रयाण गीत, जागरण गीत, क्रांति गीत शीर्षकों से अलंकृत किया। रीति-रिवाजों ने गीत को सोहर गीत, बन्ना गीत, विवाह गीत, ज्योनार गीत, विदाई गीत आदि के रूप में सजाया-सँवारा। आकारिक भिन्नता को लेकर लंबा गीत, लघु गीत आदि नाम दिए गए। गीत में कथ्य और शिल्प में नवता के आग्रह ने 'गीत' को नवगीत' के विशेषण से अलंकृत कर दिया।

संस्कारधानी में आधुनिक गीतधारा

सनातन सलिला नर्मदा के तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर से जुड़े गीतकारों की परंपरा में ठाकुर जगमोहन सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी, ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, केशवप्रसाद पाठक, ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, भवानीप्रसाद तिवारी, नर्मदाप्रसाद खरे, गोविंदप्रसाद तिवारी, माणिकलाल चौरसिया 'मुसाफिर', रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', डॉ. चंद्रप्रकाश वर्मा, जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', श्रीबाल पाण्डे, इंद्रबहादुर खरे, रामकृष्ण श्रीवास्तव, सुमन कुमार नेमा 'राजीव', राजकुमार 'सुमित्र', राजेंद्र 'ऋषि', ब्रजेश माधव, मनोरमा तिवारी, श्याम श्रीवास्तव, कृष्णकुमार चौरसिया 'पथिक', धर्मदत्त शुक्ल व्यथित, आचार्य भागवत दुबे, जय प्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', गोपालकृष्ण चौरसिया मधुर', अंबर प्रियदर्शी, साधना उपाध्याय, डॉ. अनामिका तिवारी, उदयभानु तिवारी 'मधुकर', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', मनोहर चौबे आकाश, अभय तिवारी, सोहन परोहा, आशुतोष 'असर', बसंत शर्मा, मिथलेश बड़गैया, अविनाश ब्यौहार, विनीता श्रीवास्तव, रानू राठौड़ 'रूही', छाया सक्सेना आदि उल्लेखनीय हैं।

गीत नर्मदा निनादित

नर्मदांचल में 'गीत' को 'गीत' मानकर ही रचा गया है। 'नवगीत' आंदोलन को इस अंचल ने नहीं अपनाया। शहडोल से लेकर खंडवा-खरगोन तक गीत में नर्मदा का कलकल निनाद ही निरंतर गुंजित होता रहा है। कटनी में राम सेंगर जी के मार्गदर्शन में आनंद तिवारी, राजा अवस्थी, रामकिशोर दाहिया तथा सतना में भोलानाथ ने नवगीत को पल्लवित करने का प्रयास किया पर वह सीमित दायरे में ही रहा। जबलपुर में विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के तत्वावधान में गीत-नवगीत के विवाद को दरकिनार कर समन्वय का प्रयास अपेक्षाकृत अधिक सफल रहा। संजीव वर्मा 'सलिल', जयप्रकाश श्रीवास्तव, सुरेश 'तन्मय', बसंत शर्मा, अविनाश ब्यौहार, विजय बागरी, मिथलेश बड़गैया, अखिलेश खरे, विनीता श्रीवास्तव, छाया सक्सेना, राजकुमार महोबिया, हरिसहाय पांडे  आदि ने गीत को गीतात्मकता के साथ स्वीकार करते हुए गीत में ही नवगीतीय तत्वों को अपनी शैली की तरह समाहित कर लिया। अविनाथ ब्योहार लघु गीतों की अपनी भिन्न शैली विकसित करने हेतु प्रयासरत हैं। संजीव वर्मा 'सलिल' ने नवगीतीय रचनाओं में बुंदेली शब्दावली, बुंदेली लोकगीतों (फाग, आल्हा, कजरी, राई आदि) का सम्मिश्रण करने के अनेक अभिनव प्रयोग किये जिनमें आगे कार्य करने की पर्याप्त सम्भावना है।

मिथलेश के लिए गीत साहित्य की विधा मात्र नहीं अपितु मनोभावों के प्रगटीकरण का माध्यम भी है। उन्हें गीतों के सान्निध्य में रक्त संचार बढ़ता सा लगता है जो ह्रदय गति तीव्र कर देता है-

मन के कोरे पृष्ठों पर गीतों की प्यास लिखें
शब्द-शब्द रस छंद भाव सुरभित अनुप्रास लिखें
जिन गीतों को पढ़कर दिल की धड़कन रोज बढ़ी
जिन गीतों को पढ़कर मन में मूरत एक गढ़ी
उन गीतों में गुँथे हुए पावन अनुप्रास लिखें

'प्रेम की भगीरथी'

'प्रेम की भगीरथी' अभियान जबलपुर की उपाध्यक्ष, कोकिलकंठी गीतकार, नवाचारी शिक्षिका मिथलेश बड़गैया का प्रथम गीत-नवगीत संग्रह है। मिथलेश को अन्य रसों की तुलना में श्रृंगार रस अधिक प्रिय है। इस संक्रमण काल में जब विघटनकारी और विनाशकारी शक्तियाँ सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को तोड़ रही हैं, जब स्त्री विमर्श के नाम पर बदन दिखाऊ कपड़ों और एकाधिक अथवा विवाहपूर्व दैहिक संबंधों को तथाकथित प्रगतिशीलता का पर्याय समझकर गीत रचा जा रहा है, तब गीतों में पत्नी द्वारा पति को प्रेमी की तरह और पति द्वारा पत्नी को प्रेमिका की तरह चाहने की पावन भावना नव पीढ़ी को संयमित-संस्कारित करने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकती है। इन गीतों में श्रृंगार के दोनों रूप मिलन और विरह का मर्यादित, शालीन और रुचिकर शब्दांकन कर सकना कवयित्री की सामर्थ्य का परिचायक है।

राधा ने मन के दर्पण पर राधेश्याम लिखा
फिर आँखों के काजल से उस पर घनश्याम लिखा
*
ओ मेरे परदेसी प्रियतम! तुम कब आओगे?
प्रेम सुधा बरसाकर तुम कब धीर बँधाओगे?
सूख गयी मेरे अन्तस् की रसवंती सरिता
फूलोंवाली क्यारी सूखी, रोती है कविता
उमड़-घुमड़ आकर कब मेरी प्यास बुझाओगे?
*
आते ही मधुमासी मौसम, सुरभित वसुंधरा नभ दिगंत
वासंती सुषमा की छवियाँ, अद्भुत आकर्षक कलावंत
कलियों को मधुकर चूम रहे, षोडशी धरा मुस्काती है
मधुप्रीत धरा छलकाती है
*
शब्द गुणों के फूल खिले हैं, अर्थों की क्यारी-क्यारी
संधि-समासों से अभिसिंचित कथ्य भाव की फुलवारी
शब्द आज माधुर्य बिखेरें काव्य धरा के सिंचन में
गीत सुंदरी धीरे-धीरे उतरी मन के आँगन में
*

प्रेम की भागीरथी में ऐसी अनेक प्रांजल अभिव्यक्तियाँ पाठक के मन को स्पर्श कर प्रफुल्लित करने में समर्थ हैं। समयाभाव और अर्थाभाव के कारण मुरझाए और तनावग्रस्त चेहरों से त्रस्त इस समय के अधरों पर ऐसे गीत, ग्रीष्म की लू के बीच शीतल मलयजी बयार के झोंके की तरह रसानंद की जयकार गुँजाते हुए पाठक / श्रोता के चेहरे पर सुख की प्रतीति अंकित करने में समर्थ हैं। इन गीतों को पढ़कर शालेय छात्र अपना शब्द भंडार और शब्द प्रयोग सामर्थ्य में अभिवृद्धि कर समृद्ध हो सकते हैं। 

विरह श्रृंगार के गीतों में अन्तर्निहित करुणा और पीड़ा का शब्द चित्रण किसी भी गीतकार की कसौटी है। मिथलेश के गीत इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। इनमें 'मैं तो राम विरह की मारी / मेरी मुँदरी हो गई कंगना' जैसी नाटकीयता या अतिशयोक्ति न होकर स्वाभाविकता तथा यथार्थपरकता अधिक है-

चार दिनों का साथ हमारा राहें बदल गईं
चार दिनों में दिल की सारी हसरत निकल गई
साथ निभाने में मैं-तुम, दोनों नाकाम लिखें
विरह वेदना की पाती कब तक अविराम लिखें

देश के सीमा की रक्षा कर रहे सैनिक की अपनी पत्नी के नाम पाती में प्यार और त्याग के गंगो-जमुनी रंग इस तरह मिले हैं कि वाह और आह एक साथ ही निकाले बिना रहा नहीं जाता-

सुधियों के जंगल में खोकर, कभी न अश्रु बहाना तुम
नित मेरा प्रतिरूप देखकर, अपना मन बहलाना तुम

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की कार्यशालाओं में निरंतर छंदों का अध्ययन, गीतों का सृजन व पाठनकर मिथलेश ने कथ्य की अभिव्यक्ति, शब्द के सम्यक प्रयोग और 'लय' को साधने का प्रयास किया है। सतत सीखने की प्रवृत्ति ने उनके लेखन को दिशा, गति और धार दी है। स्वास्थ्य प्रणीत बाधाओं के बाद भी वे निरंतर कुछ नया सीखने के लिए तत्पर रही हैं। वे सम-सामायिक वर्तमान को गतागत के मध्य सेतु स्थापना के लिए प्रयोग करती हैं। उनके गीतों में परंपरा के प्रति आग्रह तो है किंतु वह परिवर्तन की राह में बाधक नहीं, अपितु साधक होते हुए भी परिवर्तन को बेलगाम और दिशाहीन होने से बचाने के लिए सहायक है।

देवार्चन की सनातन परंपरा का निर्वहन विघ्नेश्वर गणेश, बुद्धिदात्री सरस्वती, भारत माता तथा मध्य प्रदेश की माटी की वंदना कर किया गया है। लोकगीत शैली में देवी गीत मन भाता है। स्पष्ट है कि गीतकार किसी एक इष्ट और वैचारिक प्रतिबद्धता की संकीर्ण विचारधारा में कैद न रहकर सर्व धर्म समभाव के औदार्य पथ का पथिक है।  

राष्ट्र के प्रति प्रेम, समर्पण और बलिदान की भावनाओं से पूरित प्रेरणा गीत, आह्वान गीत आदि इस संग्रह को बहुरंगी बनाते हैं। ऐसे गीतों में समसामयिक परिस्थजियों का चित्रण स्वाभाविक, सहज और संतुलित है।

मर्यादाएँ ध्वस्त हो रहीं, फिर धरती पर आओ राम!
मूल्यों का उत्थान करो फिर धर्मध्वजा फहराओ राम!

इस गीत में नारी के सम्मान , समाज में बढ़ती वासना वृत्ति, अहंकारी सत्ता, वृद्धों को आश्रम पहुँचाती पीढ़ी आदि पर चिंता व्यक्त करती कवयित्री शबरी की निष्काम भक्ति और मूल्यों के नवोत्थान हेतु प्रार्थना कर रचना को समाजोपयोगी बना देती है।

नवपीढ़ी का आह्वान करते हुए आघात सहने, सूर्य से अनुशासन का पाठ पढ़ने तथा दीपक की तरह जलने की सीख समाहित है-

हर पत्थर की अपनी किस्मत, हर प्रयत्न का अपना लेखा
शिल्पकार की छेनी ने तो सबको परखा, सबको देखा
मंदिर की मूरत बनने को, चोट हजारों सहना होगा।
*
कैसा भी हो गहन अँधेरा, रथ सूरज का रोक न पाता
दुश्मन हो मजबूत भले ही, दृढ़ता सम्मुख झुक जाता
कोरोना पर मानवता की होनेवाली जीत बड़ी है

इन गीतों में तत्सम (संस्कृत से ज्यों के त्यों लिए गए शब्द - स्वप्न, अमिय, नर्मदा, ध्वस्त, निष्प्राण, निष्काम, दर्प, कुंदन, उन्नत, श्रम सीकर, झंकृत, माधुर्य, दर्शन, दर्पण, निर्मल, शर्वाणी, उत्कर्ष, तव, दुर्बुद्धि, जिह्वा, चर्या, आदि), तद्भव (संस्कृत शब्दों से उत्पन्न शब्द - बिसरा, माटी, परस, सूखी, मूरत, मृत्यु, अगन, सनीचर, सपना, सावन, मूरत, आदि), देशज या ग्राम्य (खों, सेंदुर, कबहुँ, देवन, भक्तन, बिलानी आदि) ही नहीं हिन्दीतर विदेशी भाषाओँ फ़ारसी (कागज, खुशहाल, दस्तावेज, बुनियाद, मौत, रोशन आदि), अरबी (कदम, किस्मत, खंजर, तूफान, नजर, फ़ौज आदि), अंग्रेजी (मैडम, मम्मी, मोबाइल, पापा, विडिओ, टीचर, डिजिटल आदि) के शब्दों का भी प्रयोग यथास्थान किया गया है। विदेशी शब्दों का प्रयोग करते समय कहीं-कहीं हिंदी की आवश्यकतानुसार रूपांतरण भी किया गया है। यथा - अरबी - (कर्ज से कर्जा, मुआफ से माफ़, ), फ़ारसी (दरख्वास्त से दरखास्त)। हिन्दीतर भारतीय भाषा-बोलिओं के शब्दों की अनुपस्थिति खलती है। न जाने क्यों हिंदी साहित्यकार विदेशी शब्दों और काव्य-विधाओं (हाइकु, सॉनेटम आदि) को तो आत्मसात कर लेते हैं पर हिन्दीतर भारतीय भाषा-बोलिओं के शब्दों व काव्य-विधाओं से दूर रहे आते हैं? संभवत: इसका कारण शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम है।  

गीतों में आनुप्रासिक माधुर्य वृद्धि के लिए मिथलेश ने पारंपरिक शब्द युग्मों (चरण-शरण, रिद्धि-सिद्धि, पुरुष-प्रकृति, सांझ-सवेरे, लड्डू-पेड़ा, रस-छंद, मैं-तुम, आरोहों-अवरोहों, प्रीति-रीति, बुद्धि-बल, राम-नाम, जन-धन, मात-पिता, छल-छंदों, उमड़-घुमड़, तन-मन, यति-गति,चाँद-सितारे, चकवा-चकवी, रूखी-सुखी, श्रम-सीकर, यति-गति, माया-जाल, छल-छंदों, निश-दिन, पल-छिन, हरी-भरी, मेल-जोल आदि) का प्रयोग करने के साथ-साथ कुछ नए शब्द-युग्म (फागुन-मधुमास, हास-विहास, प्रणय-पीर, संधि-समासों, नीरस-नीरव, भाव-व्यंजना, सरल-सरस आदि) भी गढ़े हैं। इन शब्द युग्मों के अनेक प्रकार हैं। इनमें मानवीय रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज, प्रकृति के घटनाक्रम, मौसम, पशु-पक्षी, काव्य शास्त्र के तत्व, प्रभु नाम आदि का प्रयोग होता है। कभी प्रथमार्ध अर्थमय है, कभी उत्तरार्ध और कभी दोनों। शब्द युग्म आनुप्रासिकता में वृद्धि करने के साथ-साथ भावार्थ से अनकहा भी कह जाते हैं और अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावी बनाते हैं।

शब्दावृत्ति (नित-नित, बलि-बलि, शब्द-शब्द, डगमग-डगमग, गली-गली, रो-रो, कण-कण, गीला-गीला, नजर-नजर, दफ्तर-दफ्तर, देख-देख, धीरे-धीरे, क्यारी-क्यारी, रुनझुन-रुनझुन, श्वास-श्वास, राम-राम, मरी-मरी, खरी-खरी, डरी-डरी, भरी-भरी आदि) का प्रयोग किसी बात पर बल देने के साथ-साथ आलंकारिकता और गेयता की वृद्धि हेतु किया जाता है। जब काव्य पंक्ति में किसी शब्द की पुनः उक्ति (दोबारा कथन) समान अर्थ में हो तो वहाँ पुनरुक्ति अलंकार होता है। जैसे 'भाई-भाई को लड़वाकर / उनका अन्न पचे', 'कदम-कदम पर अँधियारे के / अजगर डेरा डाले', 'विरह अग्नि में तिल-तिल जलती / सीता की मृदु काया है' आदि।

अनुप्रास अलंकार मिथिलेश को विशेष प्रिय है। उन्होंने अनुप्रास अलंकार के सभी प्रकारों छेकानुप्रास, वृत्यानुप्रास, अन्त्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रास तथा लाटानुप्रास का प्रयोग सहजता के साथ किया है। एक-एक उदाहरण देखें-

छेकानुप्रास - क, म, स तथा अ की आवृत्ति
मन के मधुरिम गीत निहारें, ह्रदय-कंत का साँझ-सकारे।
आकुल कितनी अभिलाषाएँ, आज खड़ी हैं बाँह पसारे।।

वृत्यानुप्रास - न की आवृत्ति
नियति नटी नूतन श्रृंगारित

अन्त्यानुप्रास -
कुंदन बनने हेतु कनक को अंगारों पर तपना होगा
शिखर कलश बनने से पहले बुनियादों में खपना होगा

श्रुत्यानुप्रास - एक वर्ग के वर्णों की आवृत्ति
नित्य नदी की तरह जिंदगी / तूफानों से टकराती

लाटानुप्रास - शब्द / शब्द समूह की आवृत्ति
अग्नि परीक्षा देकर सीता / सीता मैया कहलाती है

गीत पंक्तियों में मुहावरों का सार्थक प्रयोग गीत के लालित्य और चारुत्व की वृद्धि करता है। मिथलेश ने मुहावरों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है -

होंगे पीले हाथ / किस तरह / चिंता हुई सनीचर 
रूखी-सूखी / खाकर मुनिया / कंधों तक हो आई 
पति-पत्नी के बीच बनी जो, खाई कभी न पट पाई   
एक बार धुलते ही उतरी  / सारे रिश्तों की रंगत 
विपदाएँ ही आज मनुज के / सर पर चादर तान रही हैं 

सामाजिक विसंगतियाँ मिथलेश के गीतों के केंद्र में हैं। नवगीतीय शिल्प की सभी रचनाओं में विडंबनाओं, अन्यायो तथा कुरीतियों के प्रति उनका आक्रोश छलकता है- 

तन से तो उजले दिखते हैं 
लेकिन मन के काले। 
कदम-कदम पर अँधियारे के 
अजगर डेरा डाले।।
*
लच्छेदार भाषणों से अब 
जनता ऊब गई। 
जुमलेबाजी सच्चाई की 
इज्जत लूट गई।.  
पाँच वर्ष झूठे किस्सों की 
लंबी फसल पकी। 
मौलिक अधिकारों को मन की 
बातों की थपकी। 
रहत सामग्री की गाड़ी 
असमय छूट गई। 
*
बहती नदी 
योजनाओं की  
जाने कहाँ बिलानी?
कहाँ दबी है 
कर्जा माफी की  
दरखास्त पुरानी?
तीन पीढ़ियों 
का उधार है   
दुखीराम के सर पर 
*
पकी फसल कट जाने पर भी 
कृषक नहीं मुसकाता है 
साहूकारों की नजरों को 
देख-देख डर जाता है 
उसकी किस्मत घाम लिखे या
हाड़ कँपाता शीत लिखे 
*
चारों ओर बिछी है चौसर 
छल-स्वारथ के पाँसे 
अपनों से ही मिली यातना 
कदम-कदम पर झाँसे
लाश भरोसे की भारी है 
काँधा कौन लगाए?
*
कब तक भेदभाव की खाई 
खोदेगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?
नहीं सुरक्षित आज द्रौपदी 
गली-गली में हैं दु:शासन। 
मासूमों को मिली यातना 
हिला नहीं है दिल्ली-आसन 
कब तक कुंभकरण की नींदें 
सोएगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?

मिथलेश देख पाती हैं कि 'राजनीति जननीति नहीं है / कूटनीति है, घोटाला है।' उन्हें विदित है कि 'दीवारों में चुना गया है / बूँद-बूँद श्रम-सीकर।' वे कल से आज तक का अवलोकन कर कहती हैं - 'देवों को हमने मरने की / निष्ठुर सजा सुना दी।' 

नवगीत के तथाकथित मठाधीशी गीतधारा से नर्मदांचल के नवगीतकारों की गीतधारा में भिन्नता कथ्य को लेकर है। नर्मदांचली नवगीतकार कथ्य में सकारात्मकता को महत्व देता है, पारंपरिक नवगीतकार नहीं केवल नकारात्मकता का चित्रण करता है। वह सामाजिक विसंगतियों, पारिवारिक त्रासदियों और व्यक्तिगत कडुवाहट के पिंजरे में नवगीत को कैद रखता है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान से जुड़े सभी गीतकार साहित्य में सबका हित समाहित मानते हुए समाज और व्यक्ति में सकारात्मकता की स्थापना को आवश्यक मानते हैं। मिथलेश के गीतों-नवगीतों में राष्ट्रीयता, मानवता, सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों के प्रति सजगता बरती गई है। वे विसंगति का संकेत संगति की महत्ता बताने के लिए करती हैं। वे पूछती हैं 'विरह वेदना की पाती कब तक अविराम लिखें?' यह प्रश्न व्यक्तिगत नहीं समष्टिगत है। 

द्वापर की घटनाओं को वर्तमान प्रसंगों से जोड़ते हुए वे विवशतावश अन्यायकर्ताओं की जयकार बोलनेवालों की आँखों में भी आँसू पाती हैं- 'दुर्योधन-दु:शासन की है  / जग में जय जयकार / और द्रौपदी के हिस्से में / लाज और प्रतिकार / राजसभा की झुकी हुई हैं / आँखें भरी-भरी।' मिथलेश के लिए गीत मनोरंजन का माध्यम नहीं, सृजन की साधना है - 'साधना के पंथ में, हर गीत है हमराह मेरा।' उनकी  गीत साधना का लक्ष्य 'वेदों की वाणी उच्चारें, अंतर्मन को संत करें' है, आगे वे कहती हैं- 

'अगर लेखनी थमी है तो, उसका कर्ज चुकाएँ हम 
व्यथा-कथा उद्घाटित करने, कवि का धर्म निभाएँ हम' 

क्या कवि का धर्म केवल व्यथा-कथा का उद्घाटन है? मिथलेश ऐसा नहीं मानतीं। उनके अनुसार -

'अपने हाथों / अपनी किस्मत / गढ़ना सीख / रही हूँ मैं। 
धीरे-धीरे / बिना सहारे / चलना सीख।  रही हूँ मैं।' 

क्या इसका आशय यह है कि कविकर्म का उद्देश्य केवल अपना विकास करना है?  इस प्रश्न का उत्तर है -

'जिंदगी से अब मुखर संवाद होना चाहिए 
प्रेम का पर्यावरण आबाद होना चाहिए'

बात को अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ -

सूर्य नहीं तो दीपक बनकर / जग में उजियारा भरना है' 

यह होगा कैसे? इस प्रश्न का उत्तर मिथलेश स्वयं ही अन्यत्र देती हैं-  

'मन का पंछी माँग रहा है / पिंजरे से आजादी' 

प्रतिबंधों के पक्षधरों से मिथलेश का सवाल है - 

'पंछी नदिया और हवा को / सीमाएँ कब टोका करतीं?  
दुनिया  भर की रस्में-कसमें / पथिकों को क्यों रोका करतीं?'

गीतकार के लिए प्रश्न ही उत्तर पाने माध्यम हैं -

'कब तक भेदभाव की खाई / खोदेगी धृतराष्ट्र व्यवस्था?' 

तथा 'कर्तव्यों की सही राह अब / कौन इन्हें दिखलाए?'

गीत रचना का उद्देश्य 'करें पराजित अवसादों को / जीवन गीत सुनाएँ हम' है। यहीं मिथलेश की विचार सरणि तथाकथित नवगीतीय नकारात्मकता को नकार कर सकारात्मकता का वरण कर परिवर्तन हेतु आह्वान करती है -

'दौर अब भी है / अनय की आँधियों का 
साथ मिलकर /  न्याय का डंका बजाओ ....
....कुंडली अपनी / लिखो पुरुषार्थ श्रम से....
....हौसलों की थामकर / पतवार कर में 
आज हर तूफ़ान से आँखें मिलाओ' 

यह तेवर विसंगतिवादी नवगीतकारों में खोजे से भी नहीं मिलता। इस तेवर के बिना नवगीत आंदोलन ही लक्ष्यविहीन हो जाता है। गीत-आंदोलन को उद्देश्यपरकता से जोड़ते हुए मिथलेश ने राष्ट्रीय भावधारापरक गीतों को भी संग्रह में प्रतिष्ठित किया है। देश के प्रति त्याग-बलिदान और समर्पण करनेवाली विभूतियों और शहीदों  गीतों की रचना कर मिथलेश ने नई पीढ़ी के लिए प्रकाश स्तंभ खड़े किए हैं। उनका लक्ष्य बिलकुल स्पष्ट है - 

धाराएँ विपरीत समय की / फिर भी धरा संग बहना है 
अपना देश बचाना हमको / अपने ही घर में रहना है 

वे जानती हैं कि सारस्वत अनुष्ठाओं से शिक्षित-दीक्षित भावी पीढ़ी, राजनैतिक कलुष को धोकर राष्ट्रीयता को मानवता का पर्याय बनते हुए वैश्विकता का भला कर सकेगी। इसीलिए पूरे आत्मविश्वास के साथ मिथलेश का गीतकार घोषणा करता है - 'भारत के उन्नत ललाट पर विजय तिलक लगने वाला है।'

मुझे विश्वास है कि नर्मदा के कलकल निनाद की तरह लयात्मकता और निष्कलुषता से सपन्न इन गीतों-नवगीतों को पाठक न केवल पढ़ेंगे अपितु उनके कथ्य को ग्रहणकर बेहतर भारत और मानव समाज बनाने की दिशा में सक्रिय होंगे। मैं मिथलेश के उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त हूँ। 
२०-८-२०२१ 
जबलपुर 
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