कुल पेज दृश्य

सोमवार, 6 सितंबर 2021

चित्र पर रचना

चित्र पर रचना 
प्रसंगत विषय पर प्रतिष्ठित कवियों की और से स्वरचित रचनाएं : (भाग २)
रचनाकार--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
*














प्रसंग है कि एक तरुणी अत्यंत ऊँची बिल्डिंग की छत पर इस तरह से जा बैठी है।  
विभिन्न कवि इस विषय पर रचना कैसे रचते ....
*
रामधारी सिंह 'दिनकर'
*
आक्रोशित क्यों आज रूपसी,
प्रिय तेरा अवलंबन?
मन की डोर बँधी है मन से,
सात जन्म का बंधन|
बहकाता जग छले छलावा,
उससे बचकर रहना,
विषधर सी अनुभूति अगर हो,
तन-मन कर ले चन्दन|
ले-ले तेरी जान विधाता इतना क्रूर नहीं है|
बढ़ा कदम मत विचलित हो तू मंजिल दूर नहीं है|
_______________________________
जयशंकर प्रसाद
*
प्रज्ज्वलित ज्यों अनेक, मार्तंड आज भोर,
वक्ष धौंकनी समान, घन घमंड घोर-घोर |
थरथरा रहे अधर, भामिनी बनी हुई,
दग्ध दामिनी ललाट, निज भृकुटि तनी हुई |
विश्व सुन्दरी सुरम्य. कान्ति क्यों मलीन है?
आन-बान-शान हित, सहिष्णुता विलीन है,
है क्षणिक विचार किन्तु. क्रोधयुक्त लालिमा,
आत्मघात लक्ष्य है, कठोर भाव भंगिमा |
प्रचण्ड दग्ध दारिका , पग सँभल-सँभल धरो
झुको नहीं डिगो नहीं, सदैव देश हित मरो |
____________________________
सुमित्रानंदन पन्त
*
तुम हो मर्यादित मधु बन,
प्रियतम के प्राणों का धन,
अगणित स्वप्न भरे पलकों में,
उर अंगो में सुख यौवन!
उतरो ऊपर नील गगन से,
हे चिर रमणी, चिर नूतन!
मन के इस उर्वर आँगन में
जी लो ज्योतिर्मय जीवन!
___________________
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
*
दिए हैं तूने जिसे सब फूल फल.
आज वह नीचे रहा है हाथ मल,
क्रोध में मत हो विवश ऐ कामिनी!
आ उतर आ रूपसी ऋतु भामिनी!
प्राण खोकर क्या मिलेगा यह जहां?
ठाठ जीवन का मिलेगा सब यहाँ.
_____________________
मैथिली शरण गुप्त
*
नारी न निराश करो मन को
कुछ प्रेम करो निज यौवन को
अति सुन्दर दर्पण में दुहिता
अनुभूत करो मन की शुचिता
जीवन जीना भी एक कला
सँभलो कि सुयोग्य न जाय चला
है कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
हो किस नरेश के योग्य नहीं
नीचे उतरो ढक लो तन को
नारी न निराश करो मन को |
_____________________
भीगे भीगे नयन कोर हैं.
बैठी छत पर गोरी,
एक जलन से बाँध रखी है
स्नेह प्रीति की डोरी
आत्मघात करने को उद्यत
मूक हुई है भाषा,
किस निष्ठुर की एक फूँक का
देखूं खेल-तमाशा
मेरा सुन ले गीत रूपसी.
आलोकित कर मन को
उष्ण शुष्कता से आ नीचे
स्नेह मिले उपवन को
________________________
संत कबीरदास
*
दुहिता छज्जे पर चढ़ी, बिखराये है केश.
धमकाये हर एक को, सतगुरु का आदेश..
आत्मघात पर है अड़ी, सिर मँड़राए काल.
दुविधा में माने नहीं, जी का है जंजाल..
उतरेगी ललना तभी, जब हों आँखें चार.
रसगुल्ले को देखकर, ही उतरेगी नार..
___________________________
संत गोस्वामी तुलसीदास
*
दारा दुहिता भई दुखारी, गयी कूदि के बैठि अटारी..
तीव्र क्रोध झलके उर माथा, सबै आज सुमिरौ रघुनाथा..
कातर कन्त निकट चलि गयऊ, कूदनार्थ वह उद्यत भयऊ..
नीचे सास बजावे बाजा, चिंतित दीखै संत समाजा..
देवर सास ससुर बलिहारी. उतरि आव प्रिय विपदा भारी,.
बाजी लगती आज जान की. हनुमत रक्षा करें प्रान की..
अहंकार है अति दुखदायी, रघुपति सुमिरन शान्तिप्रदायी..
_______________________________________
काका हाथरसी
*
गोरी टावर जा चढ़ी, चले नहीं अब जोर|
ऊपर से मत कूदियो, सिग्नल यदि कमजोर||
सिग्नल यदि कमजोर, हुई डीजल की चोरी|
उलझ नहीं नादान, डेढ़ पसली भी तोरी|
कह काका कविराय, हमेशा मस्त मजा ले|
बदल वीक नेटवर्क, पोर्ट सिम अभी करा ले||
____________________________
- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
*
गौरी तू अम्बर चढ़ी, नीचे है पाताल,
नहीं स्वर्ग में जा सके, करती क्यों जंजाल,
करती क्यों जंजाल, उतर कर नीचे आजा
तेरा ये संसार, दुखी क्यों है बतलाजा
माने तेरी बात, सुनेंगे तेरी लोरी
शेष अभी है उम्र, करे क्यों हत्या गौरी ।
_________________________
- समोद सिंह चरौरा
*
आटा आटा कर रही, घर में कल्लो नार !
छज्जे ऊपर आ गयी, गिरने को तैयार !!
गिरने को तैयार, दूर से देखें प्यादे !
कहती बारम्बार, सजन से आटा लादे !!
कह समोद कविराय, कूद मत छत से माता !
दौड़ा दौड़ा जाय, सजनवा लेने आटा !!
**
अंबरीश
आटा जीवन दे कहे, कुण्डलिया शुभ छंद.
गृहिणी तो स्वच्छंद हैं किन्तु कन्त मतिमंद.
किन्तु कन्त मतिमंद, भूल भारी कर जाता.
महिषी हो जब क्रुद्ध, तभी वह आटा लाता .
बचकर रहना मित्र, गाल सूजे दे चाटा.
सदा रहे यह ध्यान, नहीं है घर में आटा.
_____________________________
प्रमोद तिवारी
*
तू है एक बहादुर नारी मरने की क्यों ठानी
समय कहाँ अब बच पाया जो भरे आँख में पानी
है अनमोल मिला जो तुझको जीवन इसे सम्हालो
नये सिरे से फिर जुट जाओ छोड़ो बात पुरानी
**
अम्बरीष
मनभावन है सुन्दर रचना, अपने मन को भाई.
कथ्य सहज संदेशपरक है, देता हृदय बधाई..
मार लिया मैदान आपने, अब है सबकी बारी.
है सौभाग्य हमारा पाया, अनुपम मित्र 'तिवारी'.
_____________________________
राजेंद्र कुमार
*
न राह, न मंजिल,न जाने किधर था किनारा।
किधर पग पसारे सब ओर पाए बेसहारा।।
किस्मत का लेखा समझ,जो बैठ गया।
सपना न पूरा होगा कभी,यूं जो हार गया।।
____________________________
रमेश एस. पाल रवि
*
ऊबकर जिंदगी से कोई डूब जायेगा
फ़िर तराना ज़माना उसका खूब गायेगा
जाना है पगली सबको , एक दिन आयेगा
उस दिन जाना , जिस दिन महबूब बुलायेगा
*
नार निडर नशीली छत पर बैठी
इनको लगा के वो आत्महत्या करेगी
गये उसको बचाने , खुद ही गिर पड़े
नार अबला बेचारी अब क्या करेगी ?
**
अम्बरीष
निडर नशीली बैठी छत पर कहलाती जो नारि.
दहक रही है उसकी काया हुआ वाष्पित वारि.
वारि संहनित हुआ गगन में बरस गए हैं बादल.
जमा हुआ जल बह निकला है धुला क्लेश बन काजल.
आत्मघात को उकसाती है यही कालिमा प्यारे.
स्नेह नदी बहती है नीचे उसमें अभी नहा रे..
*
अबला पर, अबला मत समझें, सबको ले डूबेगी.
हाथों में होंगीं हथकड़ियाँ, भावों से खेलेगी.
दुनिया देखे खेल तमाशा, तिल-तिल कर मरना है
इसीलिये तो बला समझ, हर अबला से डरना है..
_________________________________
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
*
ना लड़का न लड़की तुम, जीना है बेकार !!
कूदना ही बेहतर है, जाओ नर्क सिधार !
**
अंबरीष
जीवन रंगों से भरा, प्रकृति बाँटती प्यार.
स्वर्ग नर्क सारा यहीं. लगा स्वयं में धार
________________________
फणीन्द्र कुमार
*
बिखरे-बिखरे केश, लिए बैठी है नारी,
गहराई को नाप , संकुचित है बेचारी,
मरने की ली ठान, मगर मुश्किल है कितना,
कूदेगी क्या खाक, अगर सोचेगी इतना ||
___________________________
संजीव वर्मा 'सलिल'
नीलाम्बर पर चित्र लिखे से मेघ भटकते
सलिल धार को शांत देखते रहे ठिठकते
एक ब्रम्ह तन-मन में बँट दो हो जाता है
बैठ किनारे देख रहा जो खो जाता है
केश राशि में छिपा न मालुम नर या नारी?
चित्त अशांत-शांत चिंगारी या अग्यारी ?
पहरा देती अट्टालिका खड़ी एकाकी
अम्बरीष हो मुखर सराहे शुभ बेबाकी
**
धारार्यें हों एक, सहज, हमको समझायें,
ज्ञान भक्ति दो मार्ग. मिलें, प्रभु तक पहुँचायें.
एक ब्रह्म बँट तन मन में, है अलख जगाता,
सारे नारी रूप, वही नर. उससे नाता.
_______________________
रचनाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
दुष्यंत कुमार
*
दृश्य सुन्दर सामने आने लगे हैं
छा रहे थे मेघ जो जाने लगे हैं
अब न रहना इमारत में कैद मुझको
मुक्ति के स्वर टेरते भाने लगे हैं
_____________________
गोपाल प्रसाद व्यास
*
प्रकृति को परमेश्वर मानो
मत रार मनुज इससे ठानो
माता, मैया, जननी बोलो
अस्का महत्त्व भी अनुमानों
____________________
महादेवी वर्मा
ये नीर भरी जल की बदली
उमड़ी थी कल, पर आज चली
बिन बरसे ताके गगन विवश
है काल सत्य ही महाबली
_____________________
नीरज
शांत-शांत नीर के प्रवाह में
आह चाह डाह वाह राह में
छत पे बैठ भा रही है ज़िन्दगी
मौन गीत गा रही है ज़िंदगी
__________________
शैलेन्द्र
गगन रे झूठ मत बोलो
न अब बरसात आना है
गए हैं मेघ सब वापिस
नहीं उनको बुलाना है
____________________
नरेंद्र शर्मा
नीर कलश छलके
सुबह दुपहरी साँझ निशा भर हुए हल्के
पछुआ ने तन-मन सिहराया
बैठी छत पर पुलकित काया
निरख जगत हरषे
______________________
प्रदीप
आओ कवियों! कलम उठाओ बारी आई गान की
पीछे मत हट जाना भाई मुहिम मान-सम्मान की
ये है अपनी नदी सुहावन मेंढक आ टर्राया था
बगुला नकली ध्यान लगाकर मछली पा इतराया था
हरियाली को देख-देखकर शहरी मन हर्षाया था
दृश्य मनोरम कहे कहानी नर-प्रकृति सहगान की
__

कोई टिप्पणी नहीं: