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शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

लेख सामाजिक समरसता

लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया।
देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई।
सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये।
सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।
सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल अमिट सत-चित-आनंद ही है। आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया। बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।
समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा। उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था।
निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग, कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है। गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।
ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा।
गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है। भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है।
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया। राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा। इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।
सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत इस्लाम धर्म सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा' की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, सैबियन्स (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।
इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है। धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन' और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
३-९-२०१६ 
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