संजीव 'सलिल'
*
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
जीव सभ्यता ने ध्वनियों को
जब पहचाना
चेतनता ने भाव प्रगट कर
जुड़ना जाना.
भावों ने हरकर अभाव हर
सचमुच माना-
मिलने-जुलने से नव रचना
करना ठाना.
ध्वनि-अंकन हित अक्षर आये
शब्द बनाये
मानव ने नित कर नव चिंतन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
सलिला की कलकलकल सुनकर
मन हर्षाया.
सांय-सांय सुन पवन झकोरों की
उठ धाया.
चमक दामिनी की जब देखी, तब
भय खाया.
संगी पा, अपनी-उसकी कह-सुन
हर्षाया.
हुआ अचंभित, विस्मित, चिंतित,
कभी प्रफुल्लित
और कभी उन्मन अभिव्यंजन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
*
कितने पकडे, कितने छूटे
शब्द कहाँ-कब?
कितने सिरजे, कितने लूटे
भाव बता रब.
अपना कौन?, पराया किसको
कहो कहें अब?
आये-गए कहाँ से कितने
जो बोलें लब.
थाती, परिपाटी, परंपरा
कुछ भी बोलो
पर पालो सबसे अपनापन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन .
१२-८-२०१०
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