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शुक्रवार, 5 मार्च 2021

पुरोवाक् रूहानी इत्र सुनीता सिंह

पुरोवाक्
रूहानी इत्र - आत्मनुभूतियों से संपृक्त कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मानव ने जब से बोलना सीखा, वह अपनी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहा कि वे न केवल अन्यों तक संप्रेषित हों अपितु उसे और उन्हें दीर्घकाल तक स्मरण रहें। इस प्रयास ने भाषिक प्रवाह संपन्न कविता को जन्म दिया। कविता में कहा गया कथ्य गद्य की तुलना में सुबोध और सहज ग्राह्य होता है। इसीलिये माताएँ शिशुओं को लोरी पहले सुनाती हैं, कहानी बाद में। अबोध शिशु न तो भाषा जानता है न शब्द और उनके अर्थ तथापि माँ के चेहरे के भाव और अधरों से नि:सृत शब्दों को सुनकर भाव हृदयंगम कर लेता है और क्रमश: शब्दों और अर्थ से परिचित होकर बिना सीखे भाषा सीख लेता है। 
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्' अर्थात रसमय वाक्य ही कविता है। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, 'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करनेवाली रचना ही काव्य है। पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। आचार्य भामह के मत में "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात कविता शब्द और अर्थ का उचित मेल" है। 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएँ प्रस्फुटित होती हैंं।'' महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है।
मेरे विचार में कवि द्वारा अनुभूत सत्य की शब्द द्वारा सार्थक-संक्षिप्त लयबद्ध अभिव्यक्ति कविता है। कविता का गुण गेयता मात्र नहीं अपितु वैचारिक संप्रेषणीयता भी है। कविता देश, काल, परिस्थितियों, विषय तथा कवि के अनुसार रूप-रंग आकार-प्रकार धारण कर जन-मन-रंजन करती है। शाने-अवध लखनऊ निवासी सुनीता सिंह काव्य जगत के लिए अब नया नाम नहीं है। सुनीता जी ने कई पुस्तकें लिखी हैं जो सम्मानित व् पुरस्कृत हुई हैं। जटिल प्रशासनिक दायित्व का वाहन करने के साथ-साथ मातृभाषा के साहित्य-कोष को रचना-रत्नों से समृद्ध करने की उनकी जिजीविषा निस्संदेह अनुकरणीय है। 'रूहानी इत्र' कवयित्री सुनीता की छंद मुक्त कविताओं का पठनीय संग्रह है। इन कविताओं में कवयित्री अपनी 'रूह' (आत्मा) के संस्कारों को शब्दों का बना पहनकर कविता-रूप में पाठक पंचायत से साक्षात् करा रही है। जिस तरह विशाल उद्यान में बनी क्यारियों में पुष्पित अगणित फूलों से इत्र की कुछ बूँदें प्राप्त होती हैं उसी तरह आत्मा के अगिन संस्कारों में से कुछ मस्तिष्क द्वारा अनुभूत किये जाकर काव्य रचनाओं में ढल पाते हैं। ऐसी काव्य रचनाओं को प्रस्तुत करना और पढ़ कर उनका रस ग्रहण करना महत्वपूर्ण है। इसीलिए तुलसीदास 'श्रोता-बकता ज्ञाननिधि' कहते हैं। 'रूहानी इत्र' के संदर्भ में इसे 'पाठक कवि हैं ज्ञाननिधि' कर लीजिए। 
'रूहानी इत्र' के संदर्भ में सुनीता जी कहती हैं- 
'जब मैं सागर की अतल गहराइयों में उतर जाती हूँ
तब कुछ यादों की परछाइयों से मुलाकात होती है। 
चाहतों से, बेबसी का, रकीब का रिश्ता 
कुछ जलजलों की रूह को सौगात होती है। 
जो चीर कर तम का घेरा निकलते हैं 
उन्हें मिटाने की, किसकी औकात होती है? 
जिस खुशबू से रूह भीगती हो,
झूमती हो, महकती हो 
उस इत्र में आखिर कुछ तो बात होती है। 
'रूहानी इत्र' का असर भी 'रूहानी' होना लाजमी है-
बगिया में शजर लहराता है,
रूहानी असर गहराता है।
शब बीत गई लेकर जुल्मत 
अब तो ये सहर जगराता है। 
कहते हैं - 'लीक तोड़ तीनों चलें शायर सिंह सपूत' कवयित्री सुनीता  शायर, सिंह और सपूत (पुत्र पुत्रियाँ हैं समान अब) तीनों हैं तो उन्हें लीक तोड़ना और अपनी राह खुद बनाना ही चाहिए। वे 'संगत की पंगत' में रहकर  रहती और न रहकर भी रहती हैं। यह उनके पद का दायित्व है कि वे हर किसी को अपनी लगें पर अपने विरोधी की न लगें अर्थात सभी के लिए तटस्थ और निस्संग रहें। उनमें बसी कवयित्री इस स्थिति को यूँ बयां करती है-
संगत का असर तो दिखता है,
पर सीरत नहीं बदलती। 
फूल काँटों को मासूम नहीं बना पाते। 
और काँटे भी सुगंध पाते। 
फूल की खुशबू तो हवा में 
काँटों के लिए भी है। 
काँटे की चुभन और शूल 
फूल को भी घायल कर देती है। 
सुनीता जी को बहुधा बिना समुचित आधार के हो रही जुगलबंदियों को देखने के मौके मिलते हैं। उनका अधिकारी भले ही ऐसी मौकापरस्त जुगलबंदियों पर कुछ न कह मौन रह जाए, उनका कवि मन मौन नहीं रह पाता। दुष्यंत कुमार द्वारा दी गई 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं' की विरासत समेटे-सहेजे सुनीता अपने ही अंदाज़ में बात इस तरह कहती हैं कि 'कह' भी दी जाए और 'अनकही' भी रह जाए और फिर वे कह सकें 'समझनेवाले समझ गए हैं, ना समझे जो अनाड़ी है'-
मैं हैरान थी, आँसू और मुस्कान की 
खिलखिलाती जुगलबंदी पर
कि तभी मन ने आवाज़ दी 
मेरे साथ अपने भीतर चलो।  
अंतस की गहराई में खारा सागर                                                              
हिलोरें ले रहा था  
और बंदिशों के उथले टापू 
पूरी सेना लिए मौजूद थे। 
दोनों एक दूसरे को 
अनदेखा नहीं कर सकते थे 
आँख और होंठ दोनों की बेबसी में 
वे अपने को व्यक्त करते थे। 
एक और परिस्थिति का शब्द चित्र देखें-
जब महाज्ञान का 
क्रूरता से गठजोड़ होता है 
तो अतिशय बुद्धिमत्ता जन्मती है। 
फिर समझदारी का लोप हो जाता है। 
पारिस्थितिक चक्रव्यूह को देखते हुए भी न देखने की कर्तव्यबद्धता अधिकारी को मान्य हो सकती है, कवी किसी बंधन को नहीं मानता। वह अपना आक्रोश यूँ बयान करता है -
मन कहता है 
एक कैंची  आविष्कार करूँ 
जहाँ गाँठ हो, उसे कतर डालूँ। 
यह आक्रोश एक और शक्ल अख्तियार करता है -
खुश्बू क्या मोगरे की मिल्कियत है?
चलो मैं नहीं मानती। 
मेरी बात सुनकर 
गुलाब की भीनी सुगंध 
चंपा, चमेली, जूही की सुवास 
जो अभी तक अपने-अपने को 
श्रेष्ठ बता रही थीं 
मिलकर गठबंधन कर लिया।
मेरे विरुद्ध एक नया मोर्चा खोल दिया। 
'दधीचि के अस्त्र' कविता में कवयित्री सुनीता एक और परिदृश्य को रूपक के माध्यम से उपस्थित करती हैं- 
झंझावातों के मुश्किल युद्ध में 
पीड़ा, वेदना, दुःख और उदासी 
देवी-देवता जैसे बनने की 
स्वयंम्भू कोशिश करते हैं। 
अंतस के दधीचि के पास आते हैं 
अस्थियों का दान माँगते हैं 
और दया-निधान पाने पर
ब्रेनवाश करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ते। 
पर वो नहीं जानते 
अब अंतस के उस दधीचि के पास 
अस्थियों के अतिरिक्त, बहुत से नव निर्मित 
आयुध और अस्त्र-शस्त्र हैं 
और एक सबसे बड़ा अस्त्र 
बिल्कुल मौन हो जाना है। 
अनूठे बिंब-प्रतीकों से संपन्न इन कविताओं में शब्द अपने शब्द कोशीय अर्थों में कुछ और कहते  हैं और निहितार्थ में कुछ और कहते हैं बशर्ते आपमें सुनने-समझने की ताब हो। 
अलग मिजाज की कविता है 'तुहिन कण' जो  मुझे बहुत अच्छी लगी, शायद इसलिए भी कि मेरी बिटिया का नाम 'तुहिना' है -
गुनगुनी धूप के माथे पर 
तुहिन कण लगा देते हैं तिलक। 
ज्ञात है कि उम्र कम है 
जानते लेकिन न गम है। 
आरंभ से ले अंत तक 
झूमकर गाते मगन हैं। 
बस वही मन की दशा अब 
श्वास रहने तक न हारे। 
मन बना प्रतिबिम्ब सा 
अब साँझ हो या फिर सकारे। 
सुनीता जी की कुछ काव्य पंक्तियाँ सूक्तियों की तरह 'गागर में सागर' भर देती है -
जब शब्द मौन हो जाते 
निःशब्द मनन हो जाता   - मौन 
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ख़ामोशी 
वाकई खामोश होती है क्या?  - ख़ामोशी 
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अंतरिक्ष बोलता है 
अगर  सुन सको तो।  - अंतरिक्ष  बोलता है 
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तिम्हरा होना ही पर्याप्त नहीं, बात तो 
 तुम अपने होने का अर्थ तलाश सको   - तुम्हारा होना 
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हम बदले तो जग बदलेगा, मानवता की जय होगी  - परिवर्तन 
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कवयित्री सुनीता की सृजन यात्रा को निरंतर आगे जाते देखना सुखद है। सुनीता भाषाई विरासत को जी-जान से सहेजे हुए हैं। वे हिंदी या हिंदुस्तानी  में भावों को पिरोती हैं। बिना किसी पूर्वाग्रह या दुराग्रह के कविता के  कथ्य के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ हिंदी, फ़ारसी-मिश्रित हिंदी  देशज शब्दों से सजी ग्रामीण हिंदी तीनों रूप उन्हें  सहज साध्य हैं। 'रूहानी इत्र' की ये कविताएँ पूर्व रचनाओं से अधिक परिपक्व होना कवयित्री सुनीता के उज्जवल भविष्य सुनिश्चित करता है। 
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संपर्क आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल',  संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

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