[31/03, 08:24] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": बुंदेली हास्य रचना:
उल्लू उवाच
*
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
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[31/03, 08:24] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": हास्य रचना
भोर भई शुभ, पड़ोसन हिला रही थी हाथ
देख मुदित मन हो गया, तना गर्व से माथ
तना गर्व से माथ, हिलाते हाथ रहे हम
घरवाली ने होली पर, था फोड़ दिया बम
निर्ममता से तोड़ दिल, बोल रही थी साँच
'तुम्हें नहीं वह हेरती, पोंछे खिड़की- काँच'
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[31/03, 08:24] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": दोहा सलिला
(अभिनव प्रयोग - सतचरणी दोहा)
छाया की काया नहीं, पर माया बेजोड़
हटे शीश से तब लगे, पाने खातिर होड़
किसी के हाथ न आती
उजाला सखा सँगाती
तिमिर को धता बताती
*
गुझिया खा मीना कहें, मी ना कोई और
सीख यही इतिहास की, तन्नक करिए गौर
परीक्षार्थी हों गुरु जब
परीक्षाफल नकली तब
देखते भौंचक हो सब
*
करता शोक अशोक नित, तमचर है आलोक
लछमीपति दर दर फिरे, जनपथ पर है रोक
विपक्षी मुक्त देश हो
तर्क कुछ नहीं शेष हो
प्रैस चारण विशेष हो
*
रंग उड़ गया देखकर, बीबी का मुख लाल
रंग जम गया जब मिली, साली लिए गुलाल
रँगे सरहज मूँ कारा
भई बिनकी पौ बारा
कि बोलो सा रा रा रा
*
उषा दुपहरी साँझ सँग, सूरज करता डेट
थक वसुधा को सुमिरता, रजनी शैया लेट
नमन फिर भी जग करता
*
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