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शनिवार, 27 मार्च 2021

विमर्श : गणगौर : क्या और क्यों?

विमर्श :
गणगौर : क्या और क्यों?
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'गण' का अर्थ शिव के भक्त या शिव के सेवक हैं।
गणनायक, गणपति या गणेश शिवभक्तों में प्रधान हैं।
गणेश-कार्तिकेय प्रसंग में वे शिव-पार्वती की परिक्रमा कर सृष्टि परिक्रमा की शर्त जीतते हैं।
'कर्पूर गौरं करुणावतारं' के अनुसार 'गौर' शिव हैं। गण गौर में 'गण' मिलकर 'गौर' की पूजा करते हैं जो अर्धनारीश्वर हैं अर्थात् 'गौर' में ही 'गौरी' अंतर्व्याप्त हैं। तदनुसार परंपरा से गणगौर पर्व में शिव-शिवा पूज्य हैं।
'गण' स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं किंतु चैत्र में फसल पकने के कारण पति को उसका संरक्षण करना होता है। इसलिए स्त्रियाँ (अपने मन में पति की छवि लिए) 'गौर' (जिनमें गौरी अंतर्निहित हैं) को पूजती हैं। नर-नारी साम्य का इससे अधिक सुंदर उदाहरण विश्व में कहीं नहीं है।
विवाह पश्चात् प्रथम गणगौर पर्व 'तीज' पर ही पूजने की अनिवार्यता का कारण यह है कि पति के मन में बसी पत्नि और पति के मन में बसा पति एक हों। मन का मेल, तन का मेल बने और तब तीसरे (संतान) का प्रवेश हो किंतु उससे भी दोनों में दूरी नहीं, सामीप्य बढ़े।
ईसर-गौर की प्रतिमा के लिए होलिका दहन की भस्म और तालाब की मिट्टी लेना भी अकारण नहीं है। योगी शिव को भस्म अतिप्रिय है। महाकाल का श्रंगार भस्म से होता है। त्रिनेत्र खुलने से कामदेव भस्म हो गया था। होलिका के रूप में विष्णु विरोधी शक्ति जलकर भस्म हो गयी थी। शिव शिवा प्रतिमा हेतु भस्म लेने का कारण विरागी का रागी होना अर्थात् पति का पत्नि के प्रति समर्पित होना, प्रेम में काम के वशीभूत न होकर आत्मिक होना तथा वे विपरीत मतावलंबी या विचारों के हों तो विरोध को भस्मीभूत करने का भाव अंतर्निहित है।
गौरीश्वर प्रतिमा के लिए दूसरा घटक तालाब की मिट्टी होने के पीछे भी कारण है। गौरी, शिवा, उमा ही पार्वती (पर्वत पुत्री) हैं। तालाब पर्वत का पुत्र याने पार्वती का भाई है। आशय यह कि ससुराल में पर्व पूजन के समय पत्नि के मायके पक्ष का सम मान हो, तभी पत्नि को सच्ची आनंदानुभूति होगी और वह पति के प्रति समर्पिता होकर संतान की वाहक होगी।
दर्शन, आध्यात्म, समाज, परिवार और व्यक्ति को एक करने अर्थात अनेकता में एकता स्थापित करने का लोकपर्व है गणगौर।
गणगौर पर १६ दिनों तक गीत गाए जाते हैं। १६ अर्थात् १+६=७। सात फेरों तथा सात-सात वचनों से आरंभ विवाह संबंध १६ श्रंगार सज्जित होकर मंगल गीत गाते हुए पूर्णता वरे।
पर्वांत पर प्रतिमा व पूजन सामग्री जल स्रोत (नदी, तालाब, कुआं) में ही क्यों विसर्जित करें, जलायें या गड़ायें क्यों नहीं?
इसका कारण भी पूर्वानुसार ही है। जलस्रोत पर्वत से नि:सृत, पर्वतात्मज अर्थात् पार्वती बंधु हैं। ससुराल में मंगल कार्य में मायके पक्ष की सहभागिता के साथ कार्य समापन पश्चात् मायके पक्ष को भेंट-उपहार पहुँचाई जाए। इससे दोनों कुलों के मध्य स्नेह सेतु सुदृढ़ होगा तथा पत्नि के मन में ससुरालियों के प्रति प्रेमभाव बढ़ेगा।
कुँवारी कन्या और नवविवाहिता एेसे ही संबंध पाने-निभाने की कामना और प्रयास करे, इसलिए इस पर्व पर उन्हें विशेष महत्व मिलता है।
एक समय भोजन क्योँ?
ऋतु परिवर्तन और पर्व पर पकवान्न सेवन से थकी पाचन शक्ति को राहत मिले। नवदंपति प्रणय-क्रीड़ारत होने अथवा नन्हें शिशु के कारण रात्रि में प्रगाढ़ निद्रा न ले सकें तो भी एक समय का भोजन सहज ही पच सकेगा। दूसरे समय भोजन बनाने में लगनेवाला समय पर्व सामग्री की तैयारी हेतु मिल सकेगा। थके होने पर इस समय विश्राम कर ऊर्जा पा सकेंगे।
इस व्रत के मूल में शिव पूजन द्वारा शिवा को प्रसन्न कर गणनायक सदृश मेधावी संतान धारण करने का वर पाना है। पुरुष संतान धारण कर नहीं सकता। इसलिए केवल स्त्रियों को प्रसाद दिया जाता है। सिंदूर स्त्री का श्रंगार साधन है। विसर्जन पूर्व गणगौर को पानी पिलाना, तृप्त करने का परिचायक है।
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
२७-३-२०२०
९४२५१८३२४४

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