कुल पेज दृश्य

रविवार, 21 मार्च 2021

कृष्ण नीति

कृष्ण नीति के सूत्र १
संजीव
*
कृष्ण नीति विशारद हैं। उनका पूरा जीवन पारिस्थितिक वैषम्य, संघर्ष और जीवट की महागाथा है। कृष्ण का जन्म पीड़ा का पर्याय है। उनके छः अग्रज जन्मते ही मौत के घाट उतारे जा चुके थे। उनके माता-पिता अपने विवाह के तुरंत बाद से कारावास में कैद थे। उन्हें मौत के पाश से बचने के लिए जन्म के तुरंत बाद छिपाकर गोकुल भेज दिया गया। वे एक अपरिचित स्त्री की गोद में उसका पय पीकर पले-बढ़े। राजसत्ता पल-पल उनके प्राणों की प्यासी थी। तथापि कृष्ण ने भय, दैन्यता या हीनता एक पल के लिए भी अनुभव नहीं की। 
१. आत्मविश्वास :
कृष्ण नीति का प्रथम सूत्र है आत्म विश्वास। आत्मविश्वास खुद पर, अपनी बुद्धि-विवेक पर, अपने कर्म-कौशल पर, अपने साथियों पर, अपने संसाधनों पर। कृष्ण शिशु हों, बालक हों, किशोर हों, तरुण हों, युवा हों, प्रौढ़ हों या वृद्ध, ग्वाले हों या द्वारकाधीश, रणछोड़ हों सारथी, छलिया हों या तारणहार, सखा हों या शत्रु हर भूमिका में हर समय वे समय वे आत्मविश्वास से भरपूर रहे हैं। कृष्ण के अध्येताओं, भक्तों और अनुगामियों को अपने जीवन में आत्मविश्वास से भरा होना चाहिए। जिसने किसी भी स्थिति में पल भर को भी दीनता नहीं स्वीकारी उसे अपने प्रति अनुराग रखनेवालों में दीनता कैसे प्रिय हो सकती है? सूर या मीरा की रचनाओं में व्याप्त दीनता कृष्ण को कैसे भा सकती है। कृष्ण-सखा सुदामा मुट्ठी भर तंदुल लेकर द्वारकाधीश से भेंट करते समय संकुचित अवश्य हुए पर दीन नहीं हुए। कृष्ण-सखी पांचाली चीरहरण की अग्निपरीक्षा के समय भी अग्निशिखा ही थी जिसने कुरुश्रेष्ठों तथा अपने पतियों को प्रश्न-वर्षा कर निरुत्तर ही नहीं कर दिया अपितु पतियों को कौरवों के कुलनाश की प्रतिज्ञा  विवश कर दिया। कृष्ण की मैया उनसे बिछड़ने पर भी दीनता का वरण नहीं करतीं। अत:, जीवन में कैसी भी परिस्थिति हो कृष्ण-नीति के प्रथम सूत्र को नहीं छोड़ना चाहिए। 
२. विश्वास 
कृष्ण नीति का दूसरा महत्त्व पूर्ण सूत्र है विश्वास। विश्वास भारतीय सनातन जीवन परंपरा का सर्वाधिक महत्व पूर्ण सूत्र है। तुलसी के अनुसार 'भवानी शंकरौ वंदे, श्रद्धा-विश्वास रुपिणौ' वे भवानी को श्रद्धा तथा शिव को विश्वास कह रहे हैं। शिव कल्याणकारी साथ शंकर अर्थात 'शंकारि' भी हैं। शंकर शिशु कृष्ण के दर्शनार्थ आते हैं। यशोदा आशंकित होकर मना करती हैं तो कृष्ण स्वयं आगे आ जाते हैं। 'शंका' की गोद में पल रहा शिशु 'शंकारि' से मिले बिना कैसे रहे? विश्वास के दो पहलू हैं। यदि विश्वास शुभ के प्रति है, सर्वकल्याणपरक है तो उसमें अमृत का वास है। यदि विश्वास स्वहित हेतु है, स्वकल्याण हेतु है, अशुभ के प्रति है तो उसमें विष वास है। विश्वास और विष-वास में सूक्ष्म किन्तु महत्वपूर्ण अंतर है। शंकर विष को कंठ में रोक लेते हैं, विषधर को आभूषण बना लेते हैं तो अमृत रूपी उमा को ह्रदय में स्थान देते हैं, अमृतमयी नर्मदा (गंगा) तथा शिशु चंद्र को मस्तक पर धारण करते हैं। कृष्ण यशोदा, राधा, सांदीपनि, गर्गाचार्य, नेमिनाथ आदि से अमृत ग्रहण करते हैं उन्हें ह्रदय देते हैं किंतु विषधर बलराम जो शेषावतार कहे गए हैं को अपना अग्रज पाकर उन्हें सम्मान देते हैं, उनके आगे शीश झुकाते हैं किंतु उनकी सम्मति को नहीं स्वीकारते। कृष्ण नीति का दूसरा सूत्र विश्वास बहुमुखी है,  बहुआयामी है। विश्वास खुद पर, नियति पर, अपनों पर, गैरों पर और शत्रुओं पर भी। शत्रुओं पर विश्वास ? हाँ, पूरी तरह। कृष्ण हर शत्रु पर विश्वास करते हैं कि वह शत्रुता निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। इसलिए वे हर शत्रु के प्रति सतर्क रहकर उससे बच पाते हैं और उसे समुचित दंड दे पाते हैं।
३. हास 
कृष्ण नीति तीसरा महत्वपूर्ण सूत्र है 'हास'। यह 'हास' साधारण हँसी नहीं है। यह कृष्ण के आत्मविश्वास की परिचायिका है। यह बड़े से बड़े संकट में भी कृष्ण के अधरों पर 'स्मित' बनकर उनके विरोधियों और शत्रुओं को चमत्कृत और स्तब्ध कर देती है। कालिय वध, गोवर्धन लीला, रास लीला, कंस वध, द्रौपदी स्वयंवर, रुक्मिणी हरण, कौरव राजसभा कुरुक्षेत्र सभी जगहों पर कृष्ण की भुवन मोहनी मुस्कुराहट उनके शत्रुओं को पराभूत करती है। यह मुस्कराहट कृष्ण की शांत मनस्थिति का परिणाम है। कोई आतंकित, भयभीत, दीन-हीन व्यक्ति कैसे मुस्कुरा सकता है? 
 ४ लास-रास
कृष्ण नीति के प्रासाद का चतुर्थ स्तंभ है लास और रास।लास्य को मनरंजन के साथ-साथ अरि दल भंजन के लिए उपयोग करनेवाले कृष्ण अपनी मिसाल आप हैं। कालिया के फन पर नाचता कान्हा हो या यमुना की रेत पर रास रचाता गोपीवल्लभ, कनिष्ठा पर गोवर्धन उठाए गिरिधर हो या तर्जनी पर चक्र घुमाते सुदर्शनधारी लास्य छाँह की तरह कृष्ण की बाँह थामे रहता है। 
५ शांति
कृष्ण-नीति के शतरंज का वजीर है शांति। शांति कृष्ण के मन-मस्तिष्क में हमेशा निवास करती है। कमाल यह है कि यह शांति दोधारी तलवार की तरल वार कर कृष्ण के शत्रुओं की शांति छीनकर, उन्हें अशांत कर कृष्ण के समक्ष नतमस्तक होने या मर-मिटने के अलावा कोई राह नहीं छोड़ती। कृष्ण की शांति छीनकर उन्हें अशांत करने के इच्छुक कृष्णारि कृष्ण को शांत देखकर खुद अशांत हो अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं।     
                                                                 
                                                               क्रमशः 

              

कोई टिप्पणी नहीं: