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शनिवार, 20 मार्च 2021

गीत राकेश खंडेलवाल

गीत
राकेश खंडेलवाल
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केंद्र पर मैं टिक रहूँ या वृत्त का विस्तार पाऊं
जानता हूँ ये मेरी आकांक्षायें तय करेंगी
ऐतिहासिक परिधियों में सोच की सीमाये बंदी
और सपने जो विरासत आँख में आंजे हुये है
दृष्टि केवल संकुचित है देहरी की अल्पना तक
साथ है प्रतिमान जो बस एक सुर साजे हुये है
मैं इसी ​इ​क दायरे मेँ बंध रहूँ या तोड़ डालूं
​जा​नता हूँ कल्पना की स​म्प​दाये तय करें​गी

​आदिवासी रीतियों का अनुसरण करता हुआ मन
कूप के मंडूक सी समवेत दुनिया को किये है
सांस के धागे पिरोकर एक मुट्ठी धड़कनों को
रोज सूरज के सफर के साथ चलता बस जिए है
आसमानों से पर हैं और कितने वृहद अम्बर
ये मेरी ही सोच की परिमार्जनाएं तय करेंगी ​
तलघरों में छुप गया झंझाओं से भयभीत हो जो
क्या करेगा सामना जब द्वार पर आये प्रभंजन
चल नहीं पाये समय के चक्र की गति से कदम तो
एक परिणति सामने रहती सदा होता विखंडन
मै समर्पण ओढ़ लूँ, स्वीकार कर लूँ या चुनौती
ये मेरी मानी हुई संभावनाये तय करेंगी
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