कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 30 मार्च 2021

बुंदेली लोककथा कर संतोष रहो सुखी

कर संतोष रहो सुखी

किसी समय एक गाँव में एक गरीब लकड़हारा परिवार रहता था। कोई और काम न आने के कारण लकड़हारा लकड़ी काट-बेचकर अपना पेट भर था। लोग लकड़ी खरीदकर खाना पकाने के काम में लाते थे। इसलिए वह सूख गए झाड़ खोजकर काटता था, हरे झाड़ छोड़ देता था। एक झाड़ पर बरमदेव रहते थे। बरमदेव ने एक ग्रामीण का भेस बनाकर लकड़हारे से कहा की वह बरगद का विशाल झाड़ काटे तो बाउट सी लकड़ियाँ मिलेंगी जिन्हें बेचकर वह मालामाल हो सकेगा। लकड़हारा बोला कि वह ऐसा नहीं करेगा। हरे-भरे बरगद के झाड़ को काटने से अनेक पक्षियों के नीड़ नष्ट हो जाएँगे। इससे अच्छा है कि वह कम खाकर गुजारा कर ले। बरमदेव ने उससे खुश होकर वरदान दिया कि तुम्हारी काटी लकड़ियों में पसीने की खुशबू रहेगी।

उस दिन के बाद से जब लकड़हारा किसी टूटे-गिरे या सूखे वृक्ष को काटता तो उसकी लकड़ी में सुगंध होती। उसने घरवाली को यह बताया तो घरवाली ने बरमदेवता की कृपा से मिला प्रसाद कहकर वे लकड़ियाँ अलग रख लीं और पुरानी लकड़ियाँ बेचकर घर का खर्च चलाती। व्ह रोज नहाने के बाद पीपल और आँवले के पौधों मे जल सींचती थी। उसके बाद ही खाना बनाती। फिर बरमदेव को भोग लगाने के बाद लकड़ी बेचने जाती थी।

मौसम बदला और बरसात आ गई। बाजार में सूखी लकड़ियाँ मिलना बंद हो गई। एक दिन राजभवन में पर्व मनाया जाना था। लकडहारिन को जैसे ही यह बात पता चली उसने बचाकर रखी सुगंधवाली लकड़ियाँ निकाली और राजभवन के निकट लकड़ी बेचने गई। राजा को खबर मिली तो उसने लकड़हारिन को महल में बुलवाकर उसकी लकड़ियों में सुगंध होने का कारण पूछा। लकडहारिन ने बता दिया की यह मेहनत और ईमानदारी की सुगंध है। पूरी बात जानकर राजा प्रसन्न हुआ और उसने लकड़ियों का मूल्य पूछा। लकडहारिन बोली -

'भोग लगे कुछ ईश को, भूख नहीं हो शेष।
ज्यादा कछू न चाहिए, मो खों हे राजेश।।
कर संतोष रहो सुखी

वह लकड़ी का गट्ठा महल में छोड़कर अपने घर आ गई। राजा ने लकड़हारे और लकड़हारिन की जंगल और पेड़ों के प्रति प्रेम और समझदारी से खुश होकर मुट्ठीभर मुहर भिजवाईं।वे दोनों ख़ुशी-ख़ुशी जीवन बिताने लगे।

*

कोई टिप्पणी नहीं: