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सोमवार, 25 नवंबर 2019

अग्निभ मुखर्जी कागज़ के अरमान






कागज़ के अरमान
کاگز کے ارمان
Kagaz ke armaan, a collection of poems and paintings
By
NEERAV























गुरुवर श्री मुकुल शर्मा जी 

के पुनीत करकमलों में 

सादर समर्पित
***



पुरोवाक

''कागज़ के अरमान'' - जमीन पर पैर  जमकर आसमान में उड़ान 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

               मानव सभ्यता और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। चेतना के विकास के साथ मनुष्य ने अन्य जीवों की तुलना में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण-पर्यवेक्षण कर, देखे हुए को स्मृति में संचित कर, एक-दूसरे को अवगत कराने और समान परिस्थितियों में उपयुक्त कदम उठाने में सजगता, तत्परता और एकजुटता का बेहतर प्रदर्शन किया। फलत:, उसका न केवल अनुभव संचित ज्ञान भंडार बढ़ता गया, वह परिस्थितियों से तालमेल बैठने, उन्हें जीतने और अपने से अधिक शक्तिशाली पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं पर भी विजय पाने और अपने लिए आवश्यक संसाधन जुटाने में सफल हो सका। उसने प्रकृति की शक्तियों को उपास्य देव मानकर उनकी कृपा से प्रकृति के उपादानों का प्रयोग किया। प्रकृति में व्याप्त विविध ध्वनियों से उसने परिस्थितियों का अनुमान करना सीखा। वायु प्रवाह की सनसन, जल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघों का गर्जन, विद्युतपात की तड़ितध्वनि आदि से उसे सिहरन, आनंद, प्रसन्नता, आशंका, भय आदि की प्रतीति हुई। इसी तरन सिंह-गर्जन सुनकर पेड़ पर चढ़ना, सर्प की फुंफकार सुनकर दूर भागना, खाद्य योग्य पशुओं को पकड़ना-मारना आदि क्रियाएँ करते हुए उसे अन्य मानव समूहों के अवगत करने के लिए इन ध्वनियों को उच्चरित करने, अंकित करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस तरह भाषा और लिपि का जन्म हुआ। 

               कोयल की कूक और कौए की काँव-काँव का अंतर समझकर मनुष्य ने ध्वनि के आरोह-अवरोह, ध्वनि खण्डों के दुहराव और मिश्रण से नयी ध्वनियाँ बनाकर-लिखकर वर्णमाला का विकास किया, कागज़, स्याही  और कलम का प्रयोगकर लिखना आरंभ किया। इनमें से हर चरण के विकास में सदियाँ लगीं। भाषा और लिपि के विकास में नारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। प्रकृति प्रदत्त प्रजनन शक्ति और संतान को जन्मते ही शांत करने के लिए नारी ने गुनगुनाना आरम्भ कर प्रणयनुभूतियों और लाड़ की अभिव्यक्ति के लिए रूप में प्रथम कविता को जन्म दिया। आदि मानव ने ध्वनि का मूल नारी को मानकर नाद, संगीत, कला और शिल्प की अधिष्ठात्री आदि शक्ति पुरुष नहीं नारी को मान जिसे कालान्तर में 'सरस्वती (थाइलैण्ड में सुरसवदी बर्मा में सूरस्सती, थुरथदी व तिपिटक मेदाजापान में बेंज़ाइतेन, चीन में बियानचाइत्यान, ग्रीक सभ्यता में मिनर्वा, रोमन सभ्यता में एथेना) कहा गया। बोलने, लिखने, पढ़ने और समझने ने मनुष्य को सृष्टि का स्वामी बन दिया। अनुभव करना और अभिव्यक्त करना इन दो क्रियाओं में निपुणता ने मनुष्य को अद्वितीय बना दिया।

               भाषा मनुष्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साथ मनन, चिंतन और अभिकल्पन का माध्यम भी बनी। गद्य चिंतन और तर्क तथा पद्य मनन और भावना के सहारे उन्नत हुए। हर देश, काल, परिस्थिति में कविता मानव-मन की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम रही। इस पृष्ठभूमि में डॉ. अग्निभ मुखर्जी 'नीरव' की कविताओं को पढ़ना एक आनंददायी अनुभव है। सनातन सामाजिक मूल्यों को जीवनाधार मानते हुए  सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के मध्यम श्रेणी  के संस्कारधानी विशेषण से अलंकृत शहर जबलपुर में संस्कारशील बंगाली परिवार में जन्म व शालेय शिक्षाके पश्चात साम्यवाद के ग्रह, विश्व की महाशक्ति रूस में उच्च अध्ययन और अब जर्मनी में प्रवास ने अग्निभ को विविध मानव सभ्यताओं, जीवन शैलियों और अनुभवों की वह पूंजी दी, जो सामान्य रचनाकर्मी को नहीं मिलती है। इन अनुभवों ने नीरव को समय से पूर्व परिपक्व बनाकर कविताओं में विचार तत्व को प्रमुखता दी है तो दूसरी और शिल्प और संवेदना के निकष पर सामान्य से हटकर अपनी राह आप बनाने की चुनौती भी प्रस्तुत की है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि अग्निभ की सृजन क्षमता न तो कुंठित हुई, न नियंत्रणहीन अपितु वह अपने मूल से सतत जुड़ी रहकर नूतन आयामों में विकसित हुई है। 

               अग्निभ के प्रथम काव्य संग्रह 'नीरव का संगीत' की रचनाओं को संपादित-प्रकाशित करने और पुरोवाक लिखने का अवसर मुझे वर्ष २००८ में प्राप्त हुआ। ग्यारह वर्षों के अंतराल के पश्चात् यह दूसरा संग्रह 'कागज़ के अरमान' पढ़ते हुए इस युवा प्रतिभा के विकास की प्रतीति हुई है। गुरुवर श्री मुकुल शर्मा जी को समर्पण से इंगित होता है की अग्निभ गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश से उच्चतर परब्रह्म मानने की वैदिक, 'बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय' की कबीरी और 'बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ?' की समकालिक विरासत भूले नहीं हैं। संकलन का पहला गीत ही उनके कवि के पुष्ट होने की पुष्टि करता है। 'सीना' के दो अर्थों सिलना तथा छाती में यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग कर अग्निभ की सामर्थ्य का संकेत करता है। 

जिस दिन मैंने उजड़े उपवन में
अमृत रस पीना चाहा,
उस दिन मैंने जीना चाहा!

काँटों से ही उन घावों को
जिस दिन मैंने सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!

जिस दिन मैंने उत्तोलित सागर
सम करना सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!

               पुनरावृत्ति अलंकार का इतना सटीक प्रयोग काम ही देखने मिलता है - 

एक न हो हालात सभी के
एक हौसला पाया है,
एक एक कर एक गँवाता,
एक ने उसे बढ़ाया है।

               कहा जाता है कि एक बार चली गोली दुबारा नहीं चलती पर अग्निभ इस प्रयोग को चाहते और दुहराते हैं बोतल में -

महफ़िल में बोतलों की
बोतल से बोतलों ने
बोतल में बंद कितने
बोतल के राज़ खोले।
पर सभी बोतलों का
सच एक सा ही पाया-
शीशे से तन ढका है,
अंदर है रूह जलती,
सबकी अलग महक हो
पर एक सा नशा है।

बोतल से बोतलें भी
टूटी कहीं है कितनी।
बोतल से चूर बोतल
पर क्या कभी जुड़ी है?
दिलदार खुद को कहती
गुज़री कई यहाँ से,
बोतल से टूटने को
आज़ाद थी जो बोतल।
हर बार टूटने पर
एक हँसी भी थी टूटी।
किसके नसीब पर थी
अब समझ आ रहा है।

बोतल में बोतलों की
तकदीर लिख गयी है।
बोतल का दर्द पी लो,
चाहे उसे सम्हालो।
पर और अब न यूँ तुम
भर ज़हर ही सकोगे।
हद से गुज़र गए तो
जितना भी और डालो
वो छलक ही उठेगा,
रोको, मगर बहेगा।
उस दिन जो बोतलों से
कुछ अश्क भी थे छलके
वे अश्क क्यों थे छलके
अब समझ आ रहा है।

               नर्मदा को 'सौंदर्य की नदी' कहा जाता है। उसके नाम ('नर्मदा' का अर्थ 'नर्मंम ददाति इति नर्मदा'   अर्थात  जो आनंद दे वह नर्मदा है), से ही आनंदानुभूति होती है। गंगा-स्नान से मिलनेवाला पुण्य नर्मदा के 
दर्शन मात्र से मिल जाता है। अग्निभ सात समुन्दर पार भी नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य को विस्मृत न कर सके, यह स्वाभाविक है - 

सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत

महाघोष सुनाती बह चलती
नर्मदा तीर पर आज मिला,
चिर तर्षहर्ष ले नाच रही
जो पाषाणों में प्राण खिला 

पाषाण ये मुखरित लगते हैं,
सोये हों फिर भी जगते हैं,
सरिता अधरों में भरती उनके आज नवल यह गीत 
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।

        अग्निभ के काव्य संसार में गीत और कविता अनुभूति की कोख से जन्मे सहोदर हैं।वे गीत, नवगीत और कविता सम्मिश्रण हैं। अग्निभ की गीति रचनाओं में छान्दसिकता है किन्तु छंद-विधान का कठोरता से पालन नहीं है। वे अपनी शैली और शिल्प को शब्दित  लिए यथावश्यक छूट लेते हुए स्वाभाविकता को छन्दानुशासन पर वरीयता देते है। अन्त्यानुप्रास उन्हें सहज साध्य है।
लंबे विदेश प्रवास के बाद भी भाषिक लालित्य और चारुत्व अग्निभ की रचनाओं में भरपूर है। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, रूसी और जर्मनी जानने के बाद भी  शाब्दिक अपमिश्रण से बचे रहना और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर व्याकरणिक अनाचार न करने की प्रवृत्ति ने इन रचनाओं को पठनीय  बनाया है। भारत में हिंगलिश बोलकर खुद को प्रगत समझनेवाले दिशाहीन रचनाकारों को अभिनव से निज भाषा पर गर्व करना सीखना चाहिए।

        अग्निभ ने अपने प्रिय कवि रवींद्र नाथ ठाकुर की कविताओं का अनुवाद भी किया है। संकलन में गुरुदेव रचित विश्व विख्यात प्रार्थना  अग्निभ कृत  देखिये-

निर्भय मन जहाँ, जहाँ रहे उच्च भाल,
ज्ञान जहाँ मुक्त रहे,  न ही विशाल
वसुधा के आँगन का टुकड़ों में खण्डन
हो आपस के अन्तर, भेदों से अगणन ।
जहाँ वाक्य हृदय के गर्भ से उच्चल
उठते, जहाँ बहे सरिता सम कल कल
देशों में, दिशाओं में पुण्य कर्मधार
करता संतुष्ट उन्हें सैकड़ों प्रकार।
कुरीति, आडम्बरों के मरू का वह पाश
जहाँ विचारों का न कर सका विनाश-
या हुआ पुरुषार्थ ही खण्डों में विभाजित,
जहाँ तुम आनंद, कर्म, चिंता में नित,
हे प्रभु! करो स्वयं निर्दय आघात,
भारत जग उठे, देखे स्वर्गिक वह प्रात । 

       ''कागज़ के अरमान'' की कविताएँ अग्निभ के युवा मन में उठती-मचलती भावनाओं का  सागर हैं जिनमें तट को चूमती साथ लहरों के साथ क्रोध से सर पटकती अगाध जल राशि भी है, इनमें सुन्दर सीपिकाएँ, जयघोष करने में सक्षम शङख, छोटी-छोटी मछलियाँ और दानवाकार व्हेल भी हैं। वैषयिक और शैल्पिक विविधता इन सहज ग्राह्य कविताओं को पठनीय बनाती है। अग्निभ के  संकलन से आगामी संकलनों की उत्तमता के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता है। 
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, भारत  
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 
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अनुक्रमाणिका

1.  उस दिन मैंने जीना चाहा
2.  फिर वही सलाखों के पीछे से छनती हुई धूप  
कागज़ के अरमान 
समुद्र की लहरें 
3तुक
6.  अभी समय है
7.  मेरी नन्ही बहिन
8.  बोतल
9.  पतझड़ के पत्ते
10.कहाँ है वो?
11.नीरव का संगीत
12.वो कौन थी?
13.और कितनी अनकही बातें
14.चुप्पी
16.यूँ मुलाक़ात करने चले आये हैं
17.मुक्ता
18.प्रणय
19.अगर मेरा बादल भी आज़ाद होता
20.मैं प्रबल हिमपात में
21.प्रभात
22.उनको न पता था
23.अरमानों के पन्ने
24.परिवर्तन
25.ख़्वाब
26.यहीं से आकाश को तू देख
27.उस पिघलते मोम से पूछो
28.बुलाया फाग ने जब
29.तुम साहिल पर आज रुकी हो
30.प्रीती की अनुभूति
31.खिलने का मौसम
32.अनकही बातें
33.मैं पथ हूँ
34.कितने दिन ऐसे ही बीते
37.तुम मेरी अवचेतना में
38.उनके ख़्याल
39.उर्वशी का अनुनय
40.आज किसका राग ये मन गुनगुनाता
42.चुपचाप में सुनता रहा
43.अभिनय
44.शरत संध्या
45.बंधन
46.नवजात
47.राह मेरी
48.जीवन इतना माँग रहा है
49.मेरा "मैं" कहीं खो गया है
50.सत्य, तुम कितने कठिन हो
51.प्रार्थना (रवींद्रनाथ ठाकुर की बांग्ला कविता का अनुवाद)
52.तिलिस्मी राजा (योहान वुल्फगांग फान गेटे की जर्मन कविता का अनुवाद)
53.एक नीलपुष्प की अभिलाषा (योहान वुल्फगांग फान गेटे की जर्मन कविता का अनुवाद)

1 उस दिन मैंने जीना चाहा

आकाश निरंतर बहता था
और नग्न तरु थर्राते थे,
थी हाय! पवन ने क्या ठानी?
उड़ने से खग घबराते थे ।
ये कोई समय था पतझर के
पश्चात् जगी जब शीत लहर,
जब खिलने से पहले ही ठिठुरे
मुकुल सरल मुरझाते थे ।
जिस दिन मैंने उजड़े उपवन में
अमृत रस पीना चाहा,
उस दिन मैंने जीना चाहा!

अंजाम समर का देख रहा
मैं था बिखरा किन काँटों पर,
सौ घाव से बहते खून को वे
असहाय नयन तकते दिन भर।
थी बेसुध सी धारा खूँ की,
रुकने का नाम न लेती थी।
सोचा घावों की टीस थमेगी
हाय! मेरा जीवन लेकर ।
काँटों से ही निज घावों को
जिस दिन मैंने सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!

मतवाले और अहंकारी
हिल्लोलों से सागर अक्सर
आता जाता तट की सीमा
को जब तब निगल गया हँसकर ।
कितने ही बड़े जहाज़ों को
था मिला चुका अपने तल में,
सुनता उसकी ललकार
मैं बैठा लकड़ी की एक कश्ती पर,
जिस दिन मैंने उत्तोलित सागर
सम करना सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!






















2 फिर वही सलाखों के पीछे से छनती हुई धूप

फिर वही सलाखों के पीछे से छनती हुई धूप।

फिर एक दिन का शेष,
फिर क्लांति में तन,
फिर एक भूली शाम,
फिर एक व्याकुल मन,
पथ दूर तक विस्तृत, चारों ओर बढ़ती चूप।

एक गेह को उन्मुख,
एक रौशनी की ओर,
एक नीड़ का सपना
एक कोरकों में लोर,
हों सहस्त्रों जीवन, एक मनभावना का कूप।

फिर करवटें लेता,
फिर स्वप्न में तन्मय,
फिर सच समझकर मैं
फिर करूँ नव अभिनय,
एक जागरण का सच सुप्ति का क्या यह रूप?









3 कागज़ के अरमान

उनपर कितना भी लिख डालो
दिल की स्याही पड़ती थी कम
पर अरमानों को सच कैसे
कविताओं से कर पाते हम?
छंदों में जो आसान ही थे
ये कागज़ के अरमान ही थे ।

उनसे कुसुमों की पंखुरियाँ
चाहे रंगीन लगें सुन्दर,
पर कागज़ के फूलों से चाहा
दें खुशबू सच से बेहतर,
क्यों जान के भी अनजान ही थे
ये कागज़ के अरमान ही थे ।

हर बार उतारा कश्ती को
दिल के भीगे हिल्लोलों पर
'गर दूर नहीं वह जा पायी,
ये फितरत थी, हम तो पर
न जाने क्यों हैरान ही थे,
ये कागज़ के अरमान ही थे ।








4 समुद्र की लहरें

ये रंगीन समुद्र की लहरें लौट के मुझ तक आती हैं,
हिल्लोलों के कलरव में वो किसकी गाथा गाती हैं?

दूर क्षितिज पर अभी किसी
सूरज ने गोता खाया ह़ै,
दो अपरिचित, परिचित, ने
एक दूजे को यूं पाया ह़ै,
सूर्य न हो, लाली को उसकी भरकर मुझ तक लाती हैं।

बेगाने, पागल हिल्लोलों
पर कैसे विश्वास करें?
दहक रहे अरमानों की
गर्मी को लेकिन कौन हरे?
नियति ही अंतर्विरोध से मिलन के फूल खिलाती ह़ै!

नभ के तन पर मेघा
हल्दी-चंदन जैसे छायी हो,
और क्षितिज के मध्य कहीं
सिन्दूर से माँग सजायी हो,
बंदरगाह के पोतों से भी शंख-ध्वनि जैसे आती ह़ै।

मगर लहरियाँ धीरे-धीरे
तिमिर प्रहर में मग्न हुईँ,
फेन मिला केवल उनका
चरणों में ज्यों वह भग्न हुईँ,
सारी अद्भुत शोभा चुप अंधेरे में खो जाती ह़ै!

दूर क्षितिज पर मगर अचानक
देखा कोई चाँद खिला,
उसकी निश्छल आभा में
लहरों को फिर नव प्राण मिला,
नवल स्निग्धता के आकर्षण में खुद को वह पाती हैं!

वो निर्भय हो खेल रही हैं
यूँ सदियों से यह क्रीड़ा,
अनन्त सृष्टि का एक भंगुर
क्षण मैं, मेरी क्या पीड़ा?
जैसे भय को त्याग विसर्जित होने मुझे बुलाती हैं!


















5 अदृश्य आगंतुक

सुप्त रागिनियों की ठंडी यामिनी में
लुप्त मन-उद्गार नभ फिर है जगाता,
खोलकर प्रभ-द्वार स्वर्गिक दामिनी से
पूर्वा से दिव्य चुन चुन स्वप्न लाता।

मिथ्य-बंधन की जटिल सब श्रृंखलाएँ
आप जातीं टूट करके मुक्त मन को,
तिमिर उर में बसी कल्पन पालिकाएँ
बुलाती जब विचरने हर कर विमन को।

न जाने ये कौन दस्तक दे रहा है?
किसी की सुनता पुकारें मैं गगन में,
रिक्त आकर्षण से जीवन खिंच रहा है, 
जग रहा ये शून्य कैसा आज मन में!

यामिनी के स्निग्ध वातायन खुले हैं
नयन में, निस्तब्धता अद्भुत लगे पर,
शब्द किसके इन हवाओं में घुले हैं?
कौन है अदृश्य आगंतुक यहाँ पर?

सुनूँ क्या अनुरोध झींगुर का मैं क्षण-क्षण
तृप्त करने धरा की उपलालिकाएँ?
यामिनी के गर्भ से मेघों का गर्जन
स्खलित तब करता ध्वनि की ऊर्मिकाएँ।

दुबारा यह तमस नीरवता में खोकर,  
किसी का निःश्वास भर समीप आता,
किसी का मैं स्पर्श अनुभव करूँ तन पर,
कोई है जो निकट फिर कुछ गुनगुनाता।

कर बढ़ाऊँ ज्यों, रुके अदृश्य बंधु  
तभी पगली, सरसराती हुई बयार
उठी सहसा मुक्त करती सुधा बिंदु,
धरा की वह तृप्त करती तृषा सारी।

और लुटती भावनायें सकल क्षण में,
अकिंचन सा महाकलरव में मैं खोता,
भंग कर भंगुर तपस मेरा विजन में
मुखर कोई बावला वाचाल होता।

डुबोकर पीड़ाएँ सब इस महारास में 
ले गयी आषाढ़ की यामिनी व्याकुल।
ले गयी उस मीत को भी बहाकर किस
दिशा में, मैं अकेला रह गया आकुल। 

मगर अब भी चिन्ह किसके पग-धूलि में
ढूँढ़ता अवरुद्ध ये मन सदा निष्फल,
आसरा आषाढ़ की हर गोधूलि में
देखता अदृश्य आगंतुक का केवल!





6 अभी समय है

अभी समय है, अभी जला लो,
अभी दीप दीवाली है,
अभी सामने खड़ी है मंज़िल,
अभी रास्ता खाली है।

अभी अधूरी आशाएँ हैं,
अभी भुजाओं में है बल,
अभी रीढ़ में जान है लेकिन,
अभी जो है वो न हो कल।

एक ध्येय है चलते रहना
एक काम है करने को
एक ही जीवन मिला तुम्हें और
एक यही ऋण भरने को।

एक न हो हालात सभी के
एक हौसला पाया है,
एक एक कर एक गँवाता,
एक ने उसे बढ़ाया है।

कहीं हार कर बैठे पंथी
कहीं चूर तुम पाओगे,
कहीं कारवाँ मौज में डूबा,
कहीं यूँ रुकना चाहोगे।

बहु मिलेंगे साथी यूँ जो
बहुत प्रेम दिखलायेंगे,
बहु कर्म न करूँ, वे कारण
बहुधा तुम्हे सुझाएंगे।

कभी क्लेश की आँधी ऐसी,
कभी आँसुओं का सैलाब,
कभी बिछड़ना अपनों से, यूँ
कभी ये थमने के असबाब !

एक कहानी यही तुम्हारी
एक तुम्हीं लिख पाओगे
एक कलम ही मिली जिसे तुम
एक ही इसे चलाओगे।

अभी काल के पृष्ठ बचे हैं
अभी कलम में है स्याही
अभी नए प्रकरण बनने हैं
अभी कहाँ जीता राही।

किसे पता, शायद एक दिन
मैं खुद हताश हो रुक जाऊँ
और तुम्हारी कथा सुनूँ जब
नयी प्रेरणा ले पाऊँ!












7 मेरी नन्ही बहिन

अपने सपनों को लिखती अपने हाथों से,
कितनी रंगीन कल्पनाओं की सरिताएँ
तूली उसकी हँस-हँस कर नित्य बहाती है।
इन रंगों में जीवन का हर वह भाव बसा
जिसको कि वयस्कों में बेरंग कहा जाता,
जिन भावों की गुरूता न समझी जाती है।
उसकी रेखाओं की उन्मुक्ति है ऐसी
जिनके चलने की कोई दिशा निर्दिष्ट नहीँ।
उसके रंगों का चयन इंद्रधनुषों से पर,
कितने ही चाँद और सूरज उगते, ढलते हों,
फिर भी है इन चित्रों में कुछ अवशिष्ट नहीँ।
मैं भी जाकर एक सीमा तक रुक जाता हूँ
कल्पना मेरी जब दगा मुझे दे जाती है,
पर ताज्जुब होता कल्पनाओँ की होड़ में वो
अनंत दूरियाँ तय करती, चलती जाती,
वो सहज मात मुझको भी दे बढ़ जाती है।
उसके कोमल हाथों में कलम सहजता से
स्वचछंद चला करती है, न घबराती है।
मेरे इन विज्ञ, विपक्व करों में नियम की
दीवारों से भिड़ती मेरी ये कलम कभी
अपनी आकुलता जता न वैसे पाती है।
क्या उतरूँ मैं प्रतिद्वंद्व में इस नन्हें मन से,
उसकी निश्छलता, कोमलता, उन्मुक्ति से ?
जब इस सृष्टि में सब संभव उसके मन में,
जय महा दिगंतों को कर जाती सरल, जहाँ
परिपक्व बड़ा मैं, न कर पाता युक्ति से!
8 बोतल

बोतल में बंद लम्हे
बोतल में जान फूँकें,
ये नशा बोतलों का
अब समझ आ रहा है।

महफ़िल में बोतलों की
बोतल से बोतलों ने
बोतल में बंद कितने
बोतल के राज़ खोले।
पर सभी बोतलों का
सच एक सा ही पाया-
शीशे से तन ढका है,
अंदर है रूह जलती,
सबकी अलग महक हो
पर एक सा नशा है।

बोतल से बोतलें भी
टूटी कहीं है कितनी।
बोतल से चूर बोतल
पर क्या कभी जुड़ी है?
दिलदार खुद को कहती
गुज़री कई यहाँ से,
बोतल से टूटने को
आज़ाद थी जो बोतल।
हर बार टूटने पर
एक हँसी भी थी टूटी।
किसके नसीब पर थी
अब समझ आ रहा है।

बोतल में बोतलों की
तकदीर लिख गयी है।
बोतल का दर्द पी लो,
चाहे उसे सम्हालो।
पर और अब न यूँ तुम
भर ज़हर ही सकोगे।
हद से गुज़र गए तो
जितना भी और डालो
वो छलक ही उठेगा,
रोको, मगर बहेगा।
उस दिन जो बोतलों से
कुछ अश्क भी थे छलके
वे अश्क क्यों थे छलके
अब समझ आ रहा है।











9 पतझड़ के पत्ते

पतझड़ में ये झरते पत्ते
जीने फिर कैसे आएँगे?

या छूट गए जीवन पर
केवल अब वे शोक मनाएँगे?

उन अधरों में थे गीत भरे।
जब भी कोई झोंका आता था
सहसा मुखरित कर अधरों को
जीवन का गीत सुनाता था।
अब अधरहीन डालों के मुख
क्या वृथा ही शोर मचाएँगे?

न जाने कितने भाव, व्यसन
की गाथाएँ चुप लिख डाली
रुत ने अनजाने में, खिंचती गईं
रेखाएं तन पर काली।
इतने अनुभव के दाग,
ये पत्ते पल में सहज मिटाएँगे?

उन मुकुलों को हो याद अगर
सूरज में उनका उन्मोचन
यौवन में, और शशिप्रभ में
रजनी तन्द्रा का आबंधन।
क्या जीवन के बलिदान से
पत्ते ऋण ये शेष चुकाएंगे?

रोको मत, बहने दो, लहरी
आकर, टकरा कर, बिखरेगी!
कहती है बिखरे से जुड़कर
वो नवल बनेगी, निखरेगी।
एक जीवन को करने पूरा
कितने ही आकर जायेंगे।

भंगुर पत्तों का भरकर झरना
देख कई मैं पाऊँगा।
पल कितने भी जिऊँ, पर जीवन
एक ही जी कर जाऊँगा।

उस दिन तब ये पत्ते ही
शायद मेरा शोक मनाएँगे।
मेरी ही समाधी पर झरकर
भंगुर है कौन, बताएँगे।











 10 कहाँ है वो?

इधर-उधर, यहाँ-वहाँ, मैं ढूँढ़ती किधर नहीँ,
वो किस गली निकल गया, मिली कोई ख़बर नहीं।

बहुत न कुछ कहा कभी, बहुत न कुछ सुना गया,
निगाह की अदा में सिलसिला मगर बुना गया।
बना वो घर, स्वपन मेरा, मगर हुआ बसर नहीं।

मुझे कभी बुरा लगा, लगा नहीं, ये सोचकर
उसे कोई फ़र्क पड़ा, लगा नहीं ये देखकर।
मगर उसी की आस थी, मेरा रहा जिगर वहीँ।

कभी छुपी छुपी हँसी, हँसी में दर्द था बड़ा।
उसी हँसी को देखकर ये दिल भी खुश हुआ बड़ा।
मगर मेरे नसीब पर वो आखिरी हँसी गयी।

गुज़र गया समय, दबी दबी सी आह से जिधर
बड़े उफ़ान उठ गिरे, मचा नहीं कहाँ ग़दर।
ख्याल था महज़ मेरा, या कुछ घटा पता नहीं।

अलग मुझे है कर गया वो कारवाँ, हुआ तो क्या?
यहाँ खुदी बची अभी, बदन झुका हुआ तो क्या ?
मैं टूट हूँ चुकी, मुझे है टूटने का डर नहीँ!




11 नीरव का संगीत

सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत

महाघोष सुनाती बह चलती
नर्मदा तीर पर आज मिला,
चिर तर्ष, हर्ष ले नाच रही
जो पाषाणों में प्राण खिला

पाषाण ये मुखरित लगते हैं,
सोये हों फिर भी जगते हैं,
सरिता अधरों में भरती उनके आज नवल यह गीत
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।

उदीप लिंग हर ताल सुनें,
पग पग पर गड़े हुए इस तट,
जिस रुद्र ताल , मायावी पर
वे योगिनियाँ नाचें चौंसठ

जो अन्तर खोये हैं टुकड़े,
अब त्याग मूकता के दुखड़े
खो महानिझर के रास में भूले नियति की हर भीत
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।

वे त्वरित फुहारें झर झर झर,
बरसें उत्प्रभ संगमर्मर पर,
और धुआँ-धार की वादी भर
थिरके जल कण उज्ज्वल, सुंदर
यूँ अतुल प्रवहमय हृदय चले,
जैसे वलाक, आकाश मिलें,
वे श्वेत संगमर्मर झूमें पा जीवन आज पुनीत
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।

आये हैं आज सुरा भर वे
अन्तर में मेघों के बहु दल,
बरसेंगे सुप्त धरातल पर
विद्युत् जल के शर हो चंचल
हिल उठी वल्लिका गर्जन से,
नभ और धरा के तर्जन से
जागा लयमय पाषण, तड़ित और दरिया का संगीत
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।















12 वो कौन थी?

उजड़े पेड़ों की छाया में
सूखे पत्तों की शय्या पर,
अकुलाते सपनों को भरकर
दो नयनों में वो लेटी थी किस आशा में?

हाथों में कुछ पन्ने भी थे
शायद होंगी कुछ कवितायेँ,
जीवन दर्शन या और ही कुछ
था लिखा, मगर एक प्रश्न उठा किस भाषा में?

जैसे सम्मोहन में हों कर
उसके लिख जाते पन्नों पर 
थम-थम कर, पागल झोंकों संग
उठती है लहरी जैसी अतल बिपाशा पे।

आँखों में आस औ' होठों से 
जगती धुन पल-पल गीतों की,
न जाने इस निर्जन वन में
बैठी थी धीरज धर किसकी अभिलाषा में।

यूँ दिन बीता, कुछ साल गए,
एक दिन ऐसे ही अलसाते
जब दिवा-स्वप्न में डूबा था
पाया उसको मैंने मेरी परिभाषा में!


13 और कितनी अनकही बातें

और कितनी अनकही बातें?
और कितनी जागती रातें?
और कितना हृदय का संशय?
और कितना स्वप्न में तन्मय?
और कितना निसंगी ये मन?
और कितना रिक्त ये स्पंदन?
और कितना बोझ भावों का?
और कितना दर्द घावों का?
और कितने आंसुओं के कण?
और कितने दिन दूभर जीवन?
















14 चुप्पी

कुछ सुनकर भावों ने चाहा है चुप रहना,
चुप रहना भी घुटता, पर दूभर है कहना!

आहट यूँ जीवन के पहले केवल सुनकर
सहज मन रंग देता, नव छवियाँ गढ़ता था।
सुख-दुःख के क्षण जाते कर अंकित खुद को यूँ,
हर पल का शब्दों में भी विवरण रखता था।
अब उस ही जीवन के आहट ऐसे अद्भुत,
मन रह जाता चुप, सुनकर, चाहे न कहना।

पहले क्या डरता? आँसू क्या है, कब जाना,
उनकी क्या परिभाषा, वे कितने हैं अद्भुत,
अंदर जो दिल की हर धड़कन में बाधा दें,
बाहर हों तो बदले मानव का जीवन रुत।
आबंधन में थी जब, कूँची रँगती थी सब,
मुक्ति में जीती अब चाहती चुप सब सहना!

अवसर ये पहला है, भारी हैं नव अनुभव,
शक्ति न मिलती, कर हिम्मत न कर पाते,
खुद ही होता लज्जित आँसू ये जब झरते,
मन की यह दुर्बलता कितने जन सह पाते?
सागर की गरिमा क्या घट जाती होगी जब
अन्तर ज्वालामुखियों में पड़ता उसे दहना?

वे जन जिनके भावों को परवश रहना है,
जिनको चुप सहना है कुछ विकृत औरों को,
उनको ही विकृत को अवलंबन देना है,
सहना और भरना पर अपने भी घावों को।
पीड़ा और पीड़ित में भर अंतर इतना है
पीड़ा का ही औषध बन पीड़ित में बहना!

























यहाँ भी पहर दो पहर 'गर ठहरते,
यहाँ भी थे अरमां, ये एह्सास करते,
अगर तुम यहाँ पर ज़रा भी ठहरते!

तुम्हारी अगर दिन में होती थी बातें,
थी तेरे ख्यालों से आबाद रातें,
समझते की यादों से क्यूँ न उबरते
यहाँ भी पहर दो पहर 'गर ठहरते!

मेरे बाग़ आती, वो सुनसां थी राहें,
बुलाती मगर सर्द मेरी थी आहें,
समझते कि क्यूँ फाग में फूल झरते,
यहाँ भी पहर दो पहर 'गर ठहरते!

अकेले किनारे से तरनी लगी थी,
कोई माझी आयेगा समझे जगी थी,
पहुँच न सकी उस तरफ तुम समझते
यहाँ भी पहर दो पहर 'गर ठहरते!










16 यूँ मुलाक़ात करने चले आये हैं

यूँ मुलाक़ात करने चले आये हैं,
आप से मिलने बादल उतर आये हैं।

कितने भूले से थे, इतने भटके से हम
आप को थामकर मंज़िल तक आये हैं।

आप की वादियों में बयारें जवां
रुत नयी लायी हैं देखने आये हैं।

आँख नम थी मेरी, सर्द आहों से हम
ने पुकारा किसे, आप पर आये हैं।

करते फरियाद आँसू के प्याले के संग
कितने दर से यूँ ही लौटकर आये हैं।

जायें वापस कहाँ पहलू से आपके
अपना सब कुछ लिए हम चले आये हैं।











17 मुक्ता

रुक गयी थी कहाँ, कैसे,
आज फिर जो चल पड़ी है,
जम गयी थी न जाने कब
आज फिर वो गल पड़ी है।

जी रही फिर, साँस चलती,
हाय! कल तक जो घुटी है।
गयी थी मुरझा वो कोमल
कुसुम जो फिर खिल उठी है!

गयी तोड़ी हड्डियाँ उन
परों की जो जुड़ रही हैं,
जताती अधिकार नभ पर
गरुड़ सी फिर उड़ रही है।

तुम हँसे हो कभी उस पर
आज तुम पर हँस रही है,
तुम्हारे फंदों से तुमको
हर तरफ़ से कस रही है।

ये तुम्हें सन्देश उसका -
"कुट पिटी मैं, हाँ लूटी हूँ,
जो हुए अन्याय मुझ पर
उबरने उनसे जुटी हूँ!

पर तुम्हें चेतावनी है -
मैं मलिन निर्झर नहीं पर
हूँ प्रबल अग्नि की धरा,
और युगों से जो शिलायें
रोकने मुझको उठी हैं
दामिनी ज्वाला में मेरी
राख हो हो कर मिटी हैं!’






















18 प्रणय

वे कनकमयी कन कनकाचल के
अतल अतस सैम अस्ताचल से
निभृत नित् मिलते अभ्रों में
खड़े वसन के तट पर,
है कौन हृदय के पथ पर?

उस केतु का निर्वासन
क्या दिव्य प्रणय का आसन?
जो धवल केत के रुचिर स्वपन में
मिटा सहस्त्रों बार अयन में
अंध जीवनी में भरने
ऊषा की एक झलक भर!
है कौन हृदय के पथ पर?

वह परिणय परम परस्पर
विचित्र प्रणय का आहर,
जो सजल, सलिल, सज प्रेम सुमन पे
झरता प्रात प्रपात विजन में,
खो देता चिर रिक्त, मृदुल
वह प्रेम दिवस प्रगति पर!
है कौन हृदय के पथ पर?

भंगुर स्वप्नों की वीथी
और उद्गारों की भीति,
तब स्वप्नों से ही प्रीत की बातें,
रिक्त, अंध या मिथ्य हो रातें,
विप्रलब्ध को स्वप्न यही
प्रिय होंगे चिरजीवन भर।
है कौन हृदय के पथ पर?

























19 अगर मेरा बादल भी आज़ाद होता
हवाओं के झोंकों से डरकर ही मैंने
बहकने से उसको था चाहा बचाना,
'खुली धूप' क्या है, उसे न पता हो,
न सहना पड़ा आँधियों का ज़माना,
न जाने मुझे अब ये क्यों इल्म होता
अगर मेरा बादल भी आज़ाद होता।

बड़ी कश्मक़श है खुले आसमां में,
नमी है भरी, कैसा गुमसुम समा है,
यहाँ भी मगर नाखुशी में है बादल,
न आँसू का दरिया ही इक पल थमा है।
कहूँ क्या? समझता नहीं, बस वो रोता!
अगर मेरा बादल भी आज़ाद होता।

कमी थी कहाँ' बस यही सोचता हूँ,
दिया सब मगर कुछ भी उसने न पाया,
वहाँ 'गर लुटेरे से मौसम का था डर
यहाँ रूठे बादल ने सब कुछ गँवाया।
भला मुफ़लिसी से बुरा ही क्या होता ?
अगर मेरा बादल भी आज़ाद होता।

वहाँ होड़ ऐसी लगी आसमां में
लगा लो हो जितनी भी तदबीर कैसी,
ये बादल में मिटने की ज़िद ही अजब है
लिखी जो गयी उनकी तक़दीर ऐसी।
थी कोशिश की वो भी फ़ना यूँ न होता !
अगर मेरा बादल भी आज़ाद होता।

20 मैं प्रबल हिमपात में

मैं प्रबल हिमपात में,
चारों तरफ़ हिमभावनाएँ
ऋतु की हों मुखर, बरसें।
न जाने किसको वो तरसें,
मचलती आ धरा पर जो
पिघलती, बन छंद
अंतविहीन जिनमें एक लय,
किस कल्पना में आज वो तन्मय
मुझे कहती हों जैसे-
क्यों न मृत्यु की पिपासा ले करूँ
जीवन को जय!

मैं प्रबल हिमपात में!













21 प्रभात

क्षितिज पर मेघों के परदे
हटाता जैसे हो कोई,
झाँकने लगती दोबारा
रौशनी पूरव के मोहक
उन झरोखों से, सुहानी
बयारी दुल्हन सी बनकर
सम्हलकर आती वनों से,
उपवनों से, दुशाला जैसे
हटाती, स्पर्श करती
पल्लवों के तन, सिहर
उठते तभी वे, और जीवन
का नया संवाद लेकर
चहकते पंछी निरंतर
बुलाते हों सो गए और
खो गए मेरे जगत को,
टूटती तन्द्रा मेरी, फिर
अतल, जीवन की मेरी
सच्चाइयों के बाढ़ में
चुप डूबती नौका सुहाने
मृदुल सपनों की!






22 उनको न पता था

उनको न पता था,
मेरे इस उर के उपवन में
कैसे जीवन का रूत बदला,
कैसे फागुन ने दस्तक दी
और प्रीति के नव फूल खिले!

उनको न पता था,
कितने ही तूफ़ां आकर मेरे
वीरां साहिल से
होकर थे गुज़रे। 
कितनी बेबस बस्तियाँ यहाँ
चुप चाप लुटीं,
कितने खुश-हाल चमन
अब तक निर्मम लहरों से
थे उजड़े
उनको न पता था। 

पर ऐसी भी उम्मीद न थी,
अनजान उन्ही के हाथों से
जो दर्द मिला, क्या भूल हुई?
हर बार गुलाबों से ज़्यादा
उन हारों में, जो पहनाया,
रंजिश के ऐसे शूल मिले

उनको न पता था!

23 अरमानों के पन्ने

जीवन के साहिल के किनारे
खड़ा हूँ लेकर के हाथों में
मैं कुछ अरमान के कोरे, फटे पन्ने,
कलम पर आपके हाथों में है!

हों गीत होठों पर मेरे,
पर धुन बनायी आपने। 
ये गीत सब लिख दीजिये,
तक़दीर की स्याही सही,
बस ये मुझे लिख दीजिये -
हो मुनासिब, ये शाम
रुक जाये ज़रा,
लव्जों का दरिया
जब कभी निकले,
ये दिल वीरां, सँवर जाये। 
दुबारा ढूंढ लूँ कश्ती,
मुझे जो छोड़कर पीछे गयी,
आवाज़ देकर बुला लूँ उसको। 
उलझते और ये जज़्बात के झोंके
भी कट जायें,
रखी कश्ती मेरी तन्हा सदा जिसने,
मुझे कोई छोड़कर अपना
दुबारा न कभी जाये,
तसल्ली हो मुझे,
बस ये मुझे लिख दीजिये!

जीवन के साहिल के किनारे
खड़ा हूँ लेकर के हाथों में
मैं कुछ अरमान के कोरे, फटे पन्ने,
कलम पर आपके हाथों में है!
24 परिवर्तन

... और झंझावात के पश्चात
       जीवन बहुत ही भिन्न होगा!

नए पौधे खेलते कीचड़ कहीं अपने पगों में,
और उनके शाख जिनसे रिस रही होगी
बदलते हुए इस मौसम की छींटें
अभी भी क्षण क्षण।
उन्हीं से हाँ, विगत के
अनखिले कितने स्वप्न भी
अब झर चुके होंगे,
धुले जो नयी धारा में।
कहीं थकते पुराने शाख भी
परिवर्तन की वेला में, 
कहीं टूटे, कहीं उखड़े भी कुछ ऐसे मिलेंगे। 

मगर हर एक में तुमको मिलेगी महक भी सौंधी,
नयी खुशबू धरा की और आते नव ऋतु की।

और जब तुम गौर से देखोगे उनको,
इन्हीं शाखों से तुम्हे नव स्वप्न के कुछ
कुसुम खिलते भी मिलेंगे
बदलते इन हवाओं से
दोस्ती होगी मगर जिनकी बड़ी।

बाहर मेरी खिड़की के है माहौल ऐसा।
सोचता हूँ, क्यों न मैं भी
हारते से जीतने का गुर नया ये सीख लूँ,
इनकी तरह दूँ हाथ आगे
बदलते मौसम की,
लगती बावली, इन हवाओं को!







25 ख़्वाब

पलकों की ओड़ में दिखते थे जिन दिनों
चाहत के चेहरे हँसते हुए,
उन्हीं के आसपास मिलते कई बार उन दिन
ख़्वाबों के नशेमन भी बसते हुए।

पर चंद दिन ऐसे भी देखे,
सिसकियों की आवाज़ में अरमानों को धँसते हुए,
नींद से महरूम उन आँखों को
चंद ख्वाबों के लिए तरसते हुए।

पता नहीं कितना इनका ताल्लुक इस
बेहया गुज़रती हुई ज़िन्दगी से था,
आधे, पौने ही सही, कुछ तो निकले होंगे,
कुछ को छू भी न सके, महँगे जो थे,
और कुछ बेज़ार ही रह गए,
मुद्दतों के बाज़ार में वो इतने सस्ते हुए।












26 यहीं से आकाश को तू देख

निखिल नभ में स्वप्न छाये
कोई भी पर छू न पाए।
वहीँ तारक से है जलते,
वहीँ सूरज से हैं ढलते।
चंद्र की प्रीति की प्याली
देख जगती प्यास खाली।
प्यास में तर-बतर जूझूँ,
नहीं गिरता प्रीत का कण एक!

यहीं से आकाश को तू देख!
















27 उस पिघलते मोम से पूछो

उस पिघलते मोम से पूछो-
एक झुलसते हुए दिल से
उभरती हुई रौशनी का राज़ क्या है?
या ज़िंदगीभर जलकर
यूँ चुप अंधेरे में फ़ना होने का
अंदाज़ क्या है?

उस पिघलते मोम से पूछो!


















28 बुलाया फाग ने जब

कहीं थी वो तरल मदिरा,
कहीं था एक व्याकुल मन,
कहीं थी और वो प्याली,
कहीं थे प्यास के वे क्षण।

कहो कैसे मिलाऊँ आज उनको,
जोड़ लूँ ऐसे,
सुमन की पंखुड़ी एकत्र कर के
नव गढ़ूँ जीवन?

यहीं है शेष स्वप्नों का,
समझना सत्य मेरे मन -
'बुलाया फ़ाग ने जब फूल को 
था झर चुका उपवन!'












29 तुम साहिल पर आज रुकी हो

तुम साहिल पर आज रुकी हो
अपनी उस कश्ती के अंदर,
बँधी समय के डोर से ऐसे
दरिया के हिल्लोल जिसे उकसा न पाते।
नीरव दो आँखों से मैं बस 
देख रहा हूँ तेरी कश्ती एक तरफ
और एक ओर से तेरी कश्ती के माझी
को चलकर आते। 

मन में थे अरमान तो क्या!
माझी अब कश्ती खोल चुका है।
धीरे-धीरे दूर कहीं
तेरी ये कश्ती बह जाएगी,
और मेरे खाली आँखों में
कई अधूरे सपने और ये
शाम अकेली रह जाएगी!










30 प्रीती की अनुभूति

बहती है भावों की धारा तो बहने दो,
कहती हूँ दिल की बात आज, तो कहने दो!
कब तक पत्थर रख कर राहों को रोकूँगी?
छोटी छोटी बातों पर खुद को टोकूँगी?
जीवन छोटा है, छोटा ही रह जायेगा,
प्रीति की न अनुभूति 'गर कर पायेगा।
उसकी सुन्दर आँखों में कितनी बातें हैं,
उसके अभाव में मेरी सूनी रातें हैं।
ये रात आज है पूनम की यूँ रहने दो,
ये दर्द किसी का हो, तुम मुझको सहने दो,
आकर करीब, साँसो में साँसे मिला तुम्हे
क्या करती हूँ मेहसूस मुझे बस कहने दो!














31 खिलने का मौसम

खिलने का मौसम कब दुबारा आयेगा? 
या न खिले ही फाग ये कट जायेगा? 
ये राह क्या गंतव्य तक ले जायेगी
या चलते-चलते दिन मेरा ढल जायेगा? 
जो ज़ख्म खुद से दिये खुद को, 
उन्हे क्याअनजान कोई आ के भर कर जायेगा? 
मुझको नहीं मालूम, अंधी रात है, 
कब उजाले को स्पर्श फिर कर पायेगी, 
बस जानता हूँ ठोकरें खानी अभी, 
जब तक कोई नव रोशनी न आयेगी।

इस लिये मेरे दिल सम्हल कर चल ज़रा, 
कुहेलिका ये सुबह तक छँट जायेगी, 
कितनी भी काली रात हो दस्तूर है 
फिर रोशनी हँसकर सुबह की आयेगी!












32 अनकही बातें

हुई कुछ अनकही बातें,
कटीं कुछ जागती रातें,
जगा दो उरों में संशय,
मगर एक स्वप्न में तन्मय,
हुए दो निसंगी फिर मन,
जगा कर शून्य का स्पंदन। 

है कितना बोझ भावों में,
नया एक दर्द घावों में
पुराने, मिलन के सपने
दोबारा दिलों में अपने,
गढ़ेंगे मगर फिर दो मन,
सहस्रों बार आजीवन!














33 मैं पथ हूँ

मैं पथ हूँ!

मैं विश्वासों के पंख लगा
हर पथगामी का रथ हूँ।

मैं पथ हूँ!

है उत्स मेरा वह तिमिर जरा का
लुटा विजय परिमल से,
है अंत मेरा दिखता कवलित चिर
अंध महा दलदल से!
मैं गत हूँ,
मैं नव हूँ,
मैं चिर स्थायी, जीवन में जीता
एकल दिव्य प्रणव हूँ।
मैं आकुलता का, वासनाओं का
नीरव वह कलरव हूँ।

मैं पथ हूँ!

आशाओं का है महासागर,
रखते वे दृग गागर भर,
किञ्चित ही सफल हुए पर।
मैं विफल, निहत आशाओं को
पीकर बढ़ता ही जाता,
और शोक की प्यास बुझाता।
मैं जीवन में अन्वरत अरत
चलते गम का अवितथ हूँ।

मैं पथ हूँ!

वह देखो व्योमसरित, स्वप्निल
अभिलाषाओं का सागर,
जो सरल, सरस बहता है,
जीवन से क्या कहता है?
वह भंगुर मॄगतृष्णाएं गढ़ता,
मिथ्या को गहता है,
पंथी को भटकाता है।
पर मेरा यह अस्तित्व
निठुर उस सत्य का चिर अनुगामी
जिसके तन पर बिछते प्रस्तर कण,
कंटक, शर बहुतेरे,
चुभते तन में जो मेरे।

किंतु मुझ पर दुर्बल पंथी भी
आशायें गढ़ पाता,
उनको छू, सत्य बनाता।

मैं पथ हूँ!
मैं नव हूँ!
मैं गत हूँ!

तारकगण जो भर स्वप्न दिखाते
उनका मैं अवितत हूँ!
मैं पत्थर पर श्रम की बूँदों से
कुसुमों में परिणत हूँ!

मैं पथ हूँ!

मैं निर्भय, मैं परिचय,
हर दिन नव, जीवन से मर्दित
करता नियति का संशय।
मैं बढ़ता रक्त अजस्र लुटाता
जीतूँ दुर्ग वे दुर्जय,
मैं निर्भय!
बन मुक्त अगोचर-गोचर में
बढ़ता जाता हो तन्मय।
अवरोधित क्या विस्तार मेरा होगा,
मैं वह सूर्योदय
जिसके जाज्वल्य तरंगों से
पंथी का जीवन प्रत्युष।
मैं ऐसा दिव्य उदथ हूँ!
निष्ठुर नियति के वक्ष चीरता
बढ़ता मैं अविरत हूँ!

मैं पथ हूँ!

पर खग नीले आकाश के सुंदर,
वे मुझपर क्यों हँसते?
क्यों व्यंग्य हैं मुझ पर कसते?
ये चोट कभी करता है।
क्या मुझमें भी लघु कामनाओं का
अंश छिपा बैठा है?
मैं करूँ कल्पना - एक दिवस
मैं मिलता मंद अनिल से
और सपनों के पर लगा
दूर होता जीवन पंकिल से।
पर अनिल निरा आया पल पल
आँधी में मुझे भुलाने,
मेरी भर धूलि उड़ाने,
और ये सर्वस्व मिटाने!
मैं डटा मगर हूँ, रेंग रहा
चाहे मिट्टी में दरदर।
फिर भी मुस्काता अनुचर सा
पंथी संग चलता दिनभर।
मैं उड़ते ऊँचे रुचिर खगों से
सदा हुआ अवमत हूँ!

मैं पथ हूँ!

मेरा गंतव्य समक्ष,
विलक्ष नहीं है मेरा तन-मन,
आबंधित मुक्त हूँ ऐसा,
तब नियति का भय कैसा?
वह खग उन्मुक्ति के खाँचे का
उड़ता बिगड़े लय सा,
गंतव्य है उसका कैसा?
वह मुझ पर उड़ते रय सा।
हर दिवस जो मन अभिमान में
पाँखुरियाँ नभ में फैलाता,
और अंध चला दिग्भ्रांत,
स्वयं निज गौरव गीति गाता।
पर संध्या पुनः पराजित सा वह
शिथिल उतरता आये,
मुझपर आकर थम जाए।
मैं ही आदि, मैं अंत,
सकल जीवन में विराट वितत हूँ!
मैं कामनाओं को, वासनाओं को,
लहता सरुच सुगत हूँ!

मैं पथ हूँ!

















34 कितने दिन ऐसे ही बीते

कितने दिन ऐसे ही बीते
खिड़की के बस यूँ पास खड़े ।

आकाश का नीलापन भी तब
फ़लसफ़ा गहन बन जाता था,
उसपर बादल बनते-मिटते,
सपनों का सच समझाते थे।
“खालीपन का विस्तार” मेरे संग
मन ही मन बतियाता था,
धीरे-धीरे कैसे ख़्याल
फूलों से खिल मुर्झाते थे।
कुछ दिन तपते सूरज में,
कुछ दिन बारिश में हो जाते नम,
चाहे-अनचाहे खींच चले
आते सुध भी भूले हरदम।
हाँ, चंद पुरानी यादें जातीं
घाव भी कर के सीने पर
फिर जीवन की आपाधापी
से मिलते हम उनको सीते।
खिड़की के बस यूँ पास खड़े,
कितने दिन ऐसे ही बीते।

थी रातें भी क्या कम, तारे
कुछ दिन मिलते उजले सारे,
और कुछ दिन बादल से ओढ़े
वो चाँद चुराया करते थे।
मन कुमुद के दल चुप रह जाते
भर ठंडी आहें भरते थे।
उम्मीद कभी महरूम, सिरफ़
देहलीज़ से झाँका करती थी,
अंधेरी उन रातों में वो
न अंदर आया करती थी।
तन्हाई की ऐसी यारी,
रुक जाती थी पीछे अक्सर,
उसके ही कन्धों पर रख सर
न जाने कितने दिन बीते।
खिड़की के बस यूँ पास खड़े,
कितने दिन ऐसे ही बीते।

दुनिया वो ख्याली एक तरफ़
और खिड़की के मैं एक तरफ़।
उस तरफ़ हैं सपने, आज़ादी,
और इधर मेरे सौ ऐब, हरफ़।
जब गौर से देखो तो बादल
कहीं दूर क्षितिज तक जाते हैं,
मेरे मन के जैसे चलते
चलते वे भी खो जाते हैं।
ये एक नशा ही है शायद,
तफ़रीह का एक ज़रिया केवल।
टूटे पंखों की टीस भुलाकर
जीवन एक नया जीते।
खिड़की के बस यूँ पास खड़े,
कितने दिन ऐसे ही बीते।






यहाँ उनका अब न आना ही है होता, 
क्या पता मेरा पता है याद भी के नहीं उनको, 
मुझे लगता दिन ब दिन गलियाँ ये मेरी 
सँकरी होती जा रही हैं, 
रास्ते के फूल सब 
मुरझा रहे हैं, 
और देहरी पर मेरी काँटों की झाड़ी उग रही है 
मेरे घर की खिड़कियाँ सब बंद रहतीं, 
अँधेरा सा बना रहता, 
धूल की चादर से जैसे ढंक गये हों 
खिड़कियों के सभी शीशे! 
कभी सोचूं उजाला हो दुबारा, 
मगर खुद शिथिल मैं महसूस करता 
चाह मेरी कौन जाने 
कहाँ चारों तरफ फैले हुए इस
बीहड़ में मेरे खो गयी है 
कई अरसे हुए, कोई लगी थी कश्ती
मेरे इस घाट पर जब, 
बाट जोहना मगर फिर भी
नयन न भूले मेरे

किसे मैं दोष दूं? 
इसलिये अब तेरी तरफ
उन्मुख मेरे वातायनों को 
खोलता हूँ फिर दोबारा,
इसी आशा में कि फिर
बंधुत्व की चिर प्रभा से
मेरा निकेतन प्रज्ज्वलित होगा



ज़िन्दगी पर सोचता कुछ,
वक्त पर मिलता कहाँ है?
हँसूँ जी भर एक पल मैं,
नहीं अब मुमकिन है लगता,
जब यहाँ आंसू बहाने
की नहीं फुर्सत है मिलती। 
सोचना कम हो गया हो,
बोझ बढ़ता जा रहा है। 
कहीं है अरमान मेरे,
कहीं पर मैं जी रहा हूँ,
किसी की महफ़िल में बैठा
किसी का मय पी रहा हूँ। 
कहाँ हूँ मैं? या मेरा कोई
"मैं" बचा भी है कहीं पर?
सोचना बेकार लगता। 
इसलिए अनदेख सब कुछ
चला अंधा जा रहा हूँ। 
साधता औरों के सपने
बना खुद के आज अपने। 
अजब हैं सपने मगर ये -
'गर कभी टूटे बेचारे 
रहेंगे केवल वो मेरे,
पर कभी ये सच हुए तो 
जायेंगे लेकर लुटेरे! 
आज किसके हौसले पर,
रक्खे किसकी हसरतें मैं,
कौन सी मंज़िल के पीछे
भगा ऐसे जा रहा हूँ?
नहीं फुर्सत सोचने की,
चला फिर भी जा रहा हूँ। 
पर समझना ये गलत है-
‘हसरतें दिल में नहीं हैं,
या ही मुझमें हौसला है’!
सब शराफ़त का नतीजा!
यही दुनिया मुख़ालिफ़ को
तोड़ती, धिक्कारती है। 
अब नहीं ताकत बची पर
गालियाँ सुनने की मुझमें।
हैं मेरे अरमान सचमुच,
ढूंढ़ता अपने लिए कुछ,
वक्त पर कुछ देर रोकूँ,
वक्त इतना भी कहाँ है?
ज़िन्दगी पर सोचता कुछ,
वक्त पर मिलता कहाँ है?







37 तुम मेरी अवचेतना में

बहुत जल्दी थी समय को,
न जाने कब छोड़कर मेरा किनारा
बावली लहरों के संग तुम
चुप समय की धार में बह, खो गयी
और कर गयी मुझको अकेला । 
अलविदा भी कह न पाया!

विस्मृति की पर दुशाला
से नहीं पाता तुम्हें ढँक,
क्यों जो फिर फिर लौट आती
स्मृति के लहरों के संग,
मेरा मृदुल तट, मन मेरा
होता निरंतर भग्न, फिर जुड़ता ।

कहाँ तुम, दूर हो, अतिदूर यूँ मुझसे,
मिलोगी न दोबारा इस जनम में
गीत सम फिर भी मेरे
कानों में तुम कुछ कह रही हो,

और मेरी अवचेतना में तुम निरंतर बह रही हो।




38 उनके ख़्याल

उनके ख़्याल अब भी आकर
मेरे मन की देहलीज़ पे बैठा करते हैं,
किस याद में खोये, आहें भरते हैं,
मेरे उन नये खयालों से न जाने
कितनी तरह तरह की बातें करते हैं।

उनके मुँह पर कितनी ही बार दरवाज़े बंद किये फिर भी,
क्या उन्हें मेरा संकेत समझ न आता है?
मैं कब का उनसे पृथक हो चुका हूँ, उनको
फिर फिर पराये के घर डेरा देना क्या भाता है?

मेरे कुछ तरुण ख़्यालों ने शिकायत की -
उनके आगे अपनी बघारते फिरते हैं,
औक़ात मेरे तरुणों की कहाँ बताते हैं,
कैसे कैसे ख़्याल अब उनके मिलते हैं !

कितनी ही बार ठान कर, उन्हें भगा दूँगा
ये हाथ उठा होगा, अब मुझको याद नहीं,
पर कंठ पड़ा अवरुद्ध हमेशा न जाने
चुप खड़ा रहा, हो सका कोई संवाद नहीं। 
पर अपने नये ख़्यालों को ही सहला कर
संतोष मिला है, इसमे भी विवाद नहीं।   

उनके ख़्याल जानता हूँ सचमुच मेरे
और उनके साथ बिताये ऐसे कितने ही
उन बहु सुनहरे पलों में छुप कर जन्मे थे,
पर पल मेरे वे बीते, अब न आयेंगे।
फिर क्यों उनके अभाव का दर्द मैं सहूँ सदा?
जब मुझे पता हैं कितना भी ये रुकें
मेरी देहलीज़ पे पर, उनके ख़्याल
खुद उनको खींच न लायेंगे!
















39 उर्वशी का अनुनय

उर्वशी का अनुनय कैसा?
लिप्सा का कैसा यह मोचन?
शेष हृदय करुणा ने देखा
आज ये कैसा दिव्य विवेचन?

आशाएँ उतनी जीवन से
जितनी वह तरुवर है करता,
पतझड़ का पहला नव केतन
लेता, देख रहा जो झरना
अपने नव मुकुलों का हर क्षण।
उन कुसुमों को, स्मित मुख जिनमें
झलकी थी फलने की आशा,
मुर्झाती जो हँसकर अब
नियति पर अपनी छोड़ दुराशा।

अश्रु कब के सूख चुके हैं !

इतना ही अभिमान तरु का-
औरों की धाराएं जीवन की,
चुप, मिलतीं सुख सागर से।
बीहड़ में पर यह निर्झरिणी
क्षण क्षण छलकाती गागर से
अपना उच्छ्वास सरल पर
जीवन में परिताप नहीं कुछ,
चाहे उसके हिल्लोलों की
अभिव्यक्ति जाये नीरव पुँछ।

उसका रुचिर, विहंगम, नर्तन
व्यर्थ करेगा सिद्ध विवर्तन
कालचक्र का, निष्ठुर बंधन!

मुग्ध चन्द्रिका किस नंदन की,
पेलव जिसके हृद में जागा
खो जाने का मोह ये ऐसा?














40 आज किसका राग ये मन गुनगुनाता

किसी तट पर मैं खड़ा हूँ,
अकेला, अनजान खुद से,
और उस तरनि के सपने
मुझे आ आ कर सताते,
जो मुझे माझी स्वयं का समझती थी। 

उग्र उठती लहरियों को
देखकर डरता कभी था,
भरोसा वह दिलाती थी।

आज सबसे दूर कितना।
वहाँ कोलाहल था इतना
तोड़ने को अति आतुर भावना को!
और कुछ उद्गार अस्थिर,
पागलों से बह रहे जो अतल मन पर,
आज भी हैं ले के आते ज्वार फिर फिर। 

टूटने का डर वहाँ है!

उसी सागर के किनारे,
लगी है वह किस सहारे,
देखने का एक अवसर भी न पाता। 

आज किसका राग ये मन गुनगुनाता?


करता हो जैसे सब समीरण
अनादि की ओर।

कुछ प्रकट है, कुछ अप्रकट,
कुछ विकल है, कुछ अविकल,
कुछ मूढ़ है, कुछ गूढ़ है,
कुछ व्यक्त, अनभिव्यक्त में विचरे
मेरे चहुँ ओर।

ये महल रेतों के किनारे
अथाह सागर के,
वहीं उर का सतत संघर्ष लहरों से,
व्यसन की व्यर्थता ऐसी,
हृदय की मग्नता कैसी,
निरा अचरज में देखूँ
मृत्तिका के खेल में जो
रहे भाव विभोर।
करता हो जैसे सब समीरण
अनादि की ओर।

हैं कुमुद के कुछ पल,
बड़ी ही हृदय से चंचल,
निविड़ इस तिमिर की
वह निराशा को भग्न करती,
प्राण भरती, प्रणय की अग्नि में चुप
अंतर से जलती, विफल झरती,
मगर फिर भी नहीं कोई शेष
क्यों आकांक्षा का? नहीं इसकी
संसृति पर नियति का चले कोई ज़ोर!
करता हो जैसे सब समीरण
अनादि की ओर।

फिर गोधुली का लग्न है,
एक दिवस का अवसान,
बस निर्वाण देहरी पर मेरे
आशा का एक दीपक,
किसी की स्मृति डगमग डोलती
नयनों में अश्रु संग, मेरा हर अंग
कैसा शिथिल और 
मन भावना का वेग
पड़ता क्षीण, मेरी वेदना
लगती है आज अशेष।
बस अनिमेष, यूँ कुटीर में
अपने मैं बैठा बुझा सा,
ये जान कर इस रात्रि की
नयी होगी भोर।
करता हो जैसे सब समीरण
अनादि की ओर।








42 चुपचाप में सुनता रहा

एक सदी ऐसे कट गयी
दिल में कोई तो बात थी,
आँखों में सपने थे मगर
थी नींद न, यूँ रात थी।
कई बार छेड़ा कलम को
पर मना उसने कर दिया,
तूली से भी की आस पर
उसने सहारा न दिया।
बस एक कोरा दिल मेरा
आकुल मेरे संग था डटा। 
थे साथ दोनों, न जाने
पर अकेलापन न घटा।
दिल ने कहा था कुछ कि मैं
किसके लिए मरता रहा,
किसकी कमी खलने की बातें
रात भर करता रहा।
पर खो गया था मैं, सुधि के
जाल ही बुनता रहा।
किस सोच में डूबे उसे
चुपचाप में सुनता रहा।

वो रोज़ थी ऐसी, नरम
इक शाम ने दस्तक दिया। 
मैं था, वो थी, और बाँह में
पतझर ने चुप यूँ भर लिया।
हर एक झरते पात संग
धड़कन मेरी बढ़ती गयी,
एहसास की देहलीज़ पर
वो निछावर हरदम हुई।
बस आह खाली ही उसे
मैं देख कर भरता रहा,
होंठों से मैं कुछ लफ़्ज़ की
उम्मीद ही करता रहा। 
बातें हज़ारों हुई मगर
वो बात फिर भी रह गयी,
इतनी कही में अनकही
मेरी कहीं खो, बह गयी।
उस ओर से होगी पहल
समझे मैं दिन गिनता रहा,
किस सोच में डूबे उसे
चुपचाप मैं सुनता रहा।









43 अभिनय

मैं वही हूँ, हाय! तेरा
चिर भ्रमित पंथी, भटकता
आज भी अविदित हृदय में
घोर संशय ले, मलिन दो
नयन जिसके देखते हैं
निडर सपनों को किसी की
आस में। ये मरीचिका का
पाश है कैसा, लगे जो
सत्य से जीवंत ज़्यादा,
प्रिय ज़्यादा?

मुग्ध मेरी स्वप्न की
मन्दाकिनी खुद मुक्त है
सर्वस्व से, और सत्य की
निष्ठुर, भयानक श्रृंखलाओं
से। उसी का वेग मेरी
हिमित उर के स्तिमित आलुल
का बना अवलंब एकल।
इसी निश्छल तत्व ने
जीना असंभव किया जो मैं
व्यर्थ खुद को बोध करता,
जी रहा संभावनाओं
के विपुल इस नीड़ में पर 
कर न पाता एक तिनका
भर भी मैं उपकार अपना!

सत्य ने पर उतारा है
मुझे तेरे इस विपुल, विस्तृत,
कठिन रंगमंच में हर बार
कर फिर भंग तंद्रा।
और मुझको गर्व है,
सामर्थ्य था मुझमें,
किया अभिनय सरल
बन कर चहेता पात्र
अपने दर्शकों का!
मिली मुक्ति, देखता पर
निरा करने काल के
पहिये में पिसकर 
नित्य नव अनुहार में,
नव वेश में यूँ
नवल आविष्कार अपना!









44 शरत संध्या

आज शरत की शुभ संध्या से
करती हो जैसे पत्तों से
हारी शाखायें तरुवर की
रुक जाने का नम्र निवेदन।  
 
मेघों में घुलते मिलते रंग
अरुणा के आँचल के संग संग,
निभृत मन के स्वप्न दिखाते,
खेल रहे आपस में ऐसे। 
आलोकित ये क्षण जीवन के
इतने दुर्लभ, इतने चंचल,
कब कट जाएँ, अब मैं खुद को
रोकूँ तो, रोकूँ भी कैसे?

फिर कब इस एकाकी में
वह कल्पनाओं का फूल खिलेगा?
जी लेता हूँ आज कि फिर कब
जीवन यूँ अनुकूल मिलेगा?

धीरे-धीरे ढलती संध्या,
मुझ तक लाती भटके
पूरब के झोंकों में भरकर कैसी
खुशबु भूले उन फूलों की।
जिनकी खुशबु खोयी ऐसे,
अनजाने में, लेकिन जिनके
कोमल डालों के तन पर है
कमी नहीं उगते शूलों की!

आती रजनी शिथिल चरण में,
इस जीवन के घोर विजन में,
तन्द्रा की नौका में मुझको लेती,
मैं चल देता हूँ कब,
पर रह जाती पीछे मेरे ‘आशा’
उन गीतों की जो हर
सूखे डालों से उगते नव
मुकुलों में मैं हूँ आया भर। 
कहीं निखरकर, कभी मचलकर,
होगा जिनका अद्भुत फिर से
नव फाल्गुन में नव उन्मोचन!










45 बंधन

देखता हूँ दूर बैठे
संसृति उनकी मैं केवल।

इन्हीं तट की शिलाओं से
प्रणय की मृदु डोर में बँध
किसी चिर अभिशप्त मायाजाल में
वे मुग्ध, भंगुर प्राण बहकर यहीं आते,
निठुर प्रस्तर के चरण में
टूटने और छिन्न होने।
वहाँ होगी मुखर उनकी वेदना
गर्जना में, पर
प्रणय की वह भावना
नीरव मिटेगी, चोट सहकर। 
और सागर शांत होगा,
फिर तपस में लीन सा, चुप,
वृथा, भंगुर व्यसन की
उस किरण के अवसान के संग।
न जाने फिर विकल वे कब
ऊर्मियाँ तन्द्रा तजेंगी।
नवल प्रीती का प्रबल उद्वेग लेकर,
दौड़ती आएँगी जो फिर इस किनारे,
उन्ही निष्ठुर शिलाओं से
दोबारा विद्रूप होने,
टूटने और बिखरने पर
खेल उनका न रुकेगा!
प्रीत का ऋण न चुकेगा।

विफलता के स्वप्न चिरजीवन
करें क्या उन्हें विह्वल?

सोचता और देखता हूँ
उसी तट पर दूर बैठे,
संसृति उनकी मैं केवल।














46 नवजात

अपने सारे बंधनों से मुक्त होकर
मैं स्वेच्छा से इस पथ पर
उतरा हूँ,
इसमें इन नीरव काँटों का
क्या दोष?

पत्थर सारे मेरे ही
पदतल दबते हैं,
तब उन पर ही मेरा
क्यों ऐसा रोष?

उस मृदु माटी का सर्वस्व,
उसका खुद में लुटना,
मिटना, दलित होना,
उसका सुख ये पतित,
क्यों मुझसे बर्दाश्त नहीं होता?

हूँ पंखहीन खुद
लेकिन हर बार उस
असंभव आकाश के जीवन को ही
क्यों केवल रोता?

नदी की उच्छ्लता
और मेरी अनुभवहीनता
शायद एक दूजे को समझ न पाते।
अनुशासन और आदर्श विहीन प्राणों को
निर्विकार कल्लोल में बहता देख,
हाँ, शब्द फिर-फिर उठते हों,
पर घुटते और कुछ कह न पाते।

हवाएँ आतुर, बावली,
मेरे चारों ओर बहतीं,
अपनी मुक्ति जतातीं,
नाना रूपों से
परिभाषित करती हैं चंचलता।
जानता नहीं यह प्रकृति
कितनी विश्वव्यापी है,
जो लापरवाह चलती,
स्वतंत्र हो अपने पथ पर
कितने ही नव-मुकुल झराती है,
और मैं बस देख रह जाता हूँ,
जान कर अपनी दुर्बलता।

और यहाँ के कुसुम,
कोमल, नव,
जिन्हें भविष्य अपने करों से खुद सहलाता,
वचन दे रहा है सुख का,
उन कुसुमों से कितनों ने
स्वयं हँस-हँस, उन्माद में उद्देश्य से पूर्व,
अनिल के पथ पर झरना स्वीकारा है।
क्यों फिर ये मन
इस उजड़ती ज़िन्दगियों पर
व्यर्थ तरस खाते,
अपनी सीमित माया के आँसू झरा,
खुद से खुद को हारा है?      

नवजात, जिसने अभी तक
केवल गर्भ की प्रकृति जानी,
उसका एक लय, एक छंद, एक द्वंद्व,
उसको कितना दिया जाता दोष
अगर पथ पर प्रथम पदन्यास कर
यथार्थ के नए आयाम,
उनके अंतर्द्वंद्व देख वह समझे
जीवन का आदि प्रहार कहलाता
प्रथम प्रदोष?

मैं चला जा रहा हूँ
इस नवल पथ की विचित्र ऊषा या प्रदोष में,
जो चाहे मेरे आगे
अन्धकार ही करती हो,
और चाहे ये दुनिया
अपनी गंतव्यहीनता में संलग्न,
मुझमें उसके प्रति
केवल घृणा ही भरती हो।

लेकिन इस विचित्रता का
एक और कोण है।

यहाँ मैंने इस प्रकृति के
विभिन्न अंगों को अक्सर,
न जाने किस में प्रमत्त देखा है।
और यही एक तथ्य
मेरे नये जीवन के कुहासे में
एक प्रकाश की किरण है,
एक चाँदी की रेखा है।  

इनमें अनवरत अनंत आस की
राशि बहती है,
जो भटकती, टकराती,
और खोज करती रहती है
आनंद के चिर कोष का।
और इस जीवन को
सफल सिद्ध करता निरा एक सत्य,
जहाँ जीवन उदारता में उन्मत्त
हर क्षण हार रहा है अपना सर्वस्व
किन्तु फिर भी
जहाँ अभाव नहीं संतोष का!









47 राह मेरी

दिगन्तों का नज़ारा अच्छा यहाँ से।
यहीं से आकाश के दो किनारों में
स्वप्नमयी मेघों की बहती
दिखे धारा। 
अगर तुम, मैं, गोधूलि के
दो किनारे,
एक में तुम जी रही
आलोक में अब तक मगर
हो देखती चुप दिवस के
उजास का अवसान ऐसा,
दूसरे में डुबोते हों
उग रहे मेरे अँधेरे
तो हुआ क्या?
राह मेरी यही होगी,
चल सको तो चलो तुम भी साथ मेरे। 

बहुत कुंठा है क्या मुझमें?
मृदुल मन की भावनाओं 
को कभी न प्रकाशित ही किया मैंने।
जब कभी तुम देखती थी
बड़े अचरज में गरजते
विधुर, ग्लानि भरे वे बादल
निरंतर उड़ें मेरी राह पर,
सच है, मैं भी डरा उनसे।
इसी पथ पर खड़ा
मेरा कहीं वह नीड़ भी सुख का,
है मिट्टी का, बड़ा रूखा
मगर सूखा अभी तक।   
न जाने पर बाँध तोड़ें
अचानक और बना दें कीचड़
मेरा वह ठौर मेरे बावले बादल,
किसे तब दोष दूँगा?

यहाँ खतरे बड़े हों,
हाँ, छुपे हों हर मोड़ पर,
मैं ही अकेला मिलूँ
ऐसे लड़ रहा खुद से
बचाने उजड़ने से निरा मेरे ही बसेरे,
राह मेरी यही होगी,
चल सको तो चलो तुम भी साथ मेरे।

बहुत अंतर न था,
ऐसा सोचता था
शिशिर में और हिमकणों में।
एक मिलता था सदा
जब गाँव में रहता था अपने।
नित्य जाड़े की सुबह 
मैं देखता था,
स्नेह में पातों से कैसे ढुलकता था,
और बहकर न जाने
खो कहाँ जाता दोपहर तक?
क्रम ये चलता अनवरत,
ताज्जुब मगर, वे पात खुश थे,
बहुत खुश थे!
दूसरा आया है बनकर नया जीवन
शहर का, उनको भुलाने 
'प्रगति' के वर से,
जमाकर नसें पातों की
तुषारित अधर केवल
वचन देते अभय का,
कोई विपुल आते फाग का
कानों में उनके। 
रवि से बिछड़े ये अरसों,
कुहासे में ढके निष्क्रिय पात
कितने आज खुश हैं?
राह ये ठंडी बड़ी हो,
भरोसा न दे दुबारा
लौट आयेंगे सवेरे,
राह मेरी यही होगी,
चल सको तो चलो तुम भी साथ मेरे।








48 जीवन इतना माँग रहा है

अलसाती, प्यासी थी अधरें,
बलकाती सुधियाँ जब गुज़री
ऐसे मन से, उदित हुआ तब
अवलंबन स्याही में डूबा,
जो जीवन-चिंतन का जुआ
खेल रहा है; एकल ही क्या 
सुलझाएगा गिरहे मन की?
कितनी पेचें हैं जीवन की
न जाने; पर अनुपम लगता
ये अवलंबन सरस, निराला
सादे पन्नों पर जब काला
रंग उतारे, हल्का होता
मन फिर हँसता। फ़ूल ये ऐसा
कुछ पलाश सा, गंधहीन जो
मुग्ध रहा अपने वर्णों में,
दग्ध हुआ जलती किरणों में,
जलता हर क्षण लिखते लिखते,
मगर निरंतर सोच रहा है-
कुछ अभाव इसमें अब भी है,
गुप्त वेदना छुपी कहीं है,
मन से उसको खींच ला सके
बाहर, इतना माँग रहा है!
इतनी मुक्ति माँग रहा है।

जीवन इतना माँग रहा है!
49 मेरा "मैं" कहीं खो गया है

क्या कहूँ वे सब कहाँ गए
स्वप्न, जिनको देखती
आँखें मेरी थीं!

दर्द न हो, कुछ तो है अफ़सोस
लेकिन इन आँखों को,
जो न जाने अचानक
कितने अकेले हो गए हैं।

प्रश्न क्या आँसू का जब
औरों के सपने इन आँखों में
आ बसे हैं।
जो चले आये, रखा,
अपना लिया, ढाँढस बँधाया,
बहु थे भटके जिन्हें
वापस दुबारा पथ दिखाया,
पर यूँ चलते अचानक 
देखूँ मुझे क्या हो गया है,
मुझमें मेरा "मैं" नहीं है,
मेरा "मैं" ही खो गया है। 

देखता अब टकटकी भर
लगाए नियति की माया,
समय की थी कौन सी
वह वंचना ऐसी,
जहाँ मैं फँस गया?
हूँ लिए भारी हृदय
अब पलटा रहा मैं पृष्ठ
बीते काल के,
नहीं चिन्ह एक सुध का
मुझे जो समय पर देता जगा।
एक लुटे रेगिस्तान सा
जीवन मेरा ये हो गया है,
मुझमें मेरा "मैं" नहीं है,
मेरा "मैं" ही खो गया है।

पूछती मुझको मेरी आँखें-
"कहाँ हैं स्वप्न वे, संजोय
सालों तक थे तुमने,
जो तुम्हारे मन में फूलों से खिले,
आशाओं से सींचा था तुमने,
सम्हाले रखते थे मेरे कारकों में?"

विधि थी कुछ और, धीरे
वाष्पित होते गए वे स्वप्न सारे।
अब छुपे हैं वो कहाँ
मैं जानता हूँ, ले भी आता,
मगर मेरा "मैं" ही  अब
"अपनों में मेरे" बँट गया है,
मुझमें मेरा "मैं" नहीं है,
मेरा "मैं" ही खो गया है।

50 सत्य, तुम कितने कठिन हो

हे! सत्य, तुम कितने कठिन हो!

क्यों नहीं स्वीकार लेते
जगत का परिचित छलावा,
कटु, पीना  घोल मधु में, 
उपाय क्या इसके अलावा?
बैर क्यों रखते हो ?
मिथ्या, संगिनी, देती दिलासा,
हो अधूरी स्वयं, लेकिन
वही ढाँढस और सहारा ।
छीनते तुम ही उसीसे
मेरे चिर सुख की दुःशाला,
जल रहे क्या प्रीत उसके
प्रति मेरी  देख कर तुम ?
रहेगा आभार तेरा, छोड़ दे
मुझको, मेरी मिथ्या को,
हमको अब अकेला।
नहीं ये वैमन्य तुमसे,   
मगर तेरा संग गर लूँ,
छोड़ देगा जगत मुझको,
निभाने संबंध कितने,
बनाना अपनों को अपना,
इसलिए ये विनती मेरी
मिथ्य हर स्वीकार कर लो,
जानकर भी
सत्य तुम कितने कठिन हो!
51 प्रार्थना
(रविंद्रनाथ ठाकुर की बांग्ला कविता का अनुवाद)

निर्भय मन जहाँ, जहाँ रहे उच्च भाल,
ज्ञान जहाँ मुक्त रहे,  न ही विशाल
वसुधा के आँगन का टुकड़ों में खण्डन
हो आपस के अन्तर, भेदों से अगणन ।
जहाँ वाक्य हृदय के गर्भ से उच्चल
उठते, जहाँ बहे सरिता सम कल कल
देशों में, दिशाओं में पुण्य कर्मधार
करता संतुष्ट उन्हें सैकड़ों प्रकार।
कुरीति, आडम्बरों के मरू का वह पाश
जहाँ विचारों का न कर सका विनाश-
या हुआ पुरुषार्थ ही खण्डों में विभाजित,
जहाँ तुम आनंद, कर्म, चिंता में नित,
हे प्रभु! करो स्वयं निर्दय आघात,
भारत जग उठे, देखे स्वर्गिक वह प्रात ।











52 तिलिस्मी राजा
(योहान वुल्फगांग फान गेटे की जर्मन कविता "एर्लक्योनिग" का अनुवाद)

तमिस्रा में व्यग्र, मतवाली हवाएँ
चीरते ये अश्वारोही कौन बढ़ते?
पिता अपने पुत्र को बाहों में बाँधे
ले चला व्याकुल, उसे पुचकार करते।

'पुत्र मेरे, छुपाता है मुख तू किससे?'
'तिलिस्मी राजा, पिताजी, भी रहा चल,
श्वेत देखो दुशाला और ताज उसके!'
'नहीं बेटा! वह घना कोहरा है केवल।'

'आ मेरे बच्चे, तू चल अब साथ मेरे,
दिखाऊँ मैं तुझे सुन्दर खेल, छहरे
फ़ूल के रंगीन झुरमुट किनारों पर,
माँ मेरी देगी तुझे कपड़े सुनहरे!'

'पिताजी क्या आपने न सुना क्या क्या
तिलिस्मी राजा मेरे कानों में कहते?'
'नहीं बेटे, हवाओं से शाख हिलते,
सरसराते पात हैं आवाज़ करते।'

'आ, नहीं क्या चलेगा तू लाल मेरे?
राह देखे बेटियाँ मेरी तेरी ही,
रात को सब मनायेंगी साथ उत्सव
झूमती, गाती सुलायेंगी तुझे भी।'

'पिताजी क्या नहीं दिखती बेटियाँ सब
तिलिस्मी राजा की संग-संग हैं रहीं चल?'
'दिख रहा सब साफ़ मुझको, समझ बेटे,
पुराने हैं वृक्ष के वे तने केवल!'

'मुझे तू बेहद ही प्यारा लगे, 'गर तू
नहीं यूँ माने हूँ तुझको छीन लेता !'
'बचाओ मुझको पिताजी ! जकड़ता है
तिलिस्मी राजा मुझे अब दर्द देता!'

सिहरता सुन पिता और घोड़ा भगाता,
बाँह में पीड़ा में होता पुत्र का रव,
सकल विपदा झेल पहुँचा गाँव में जब
रह गया था बाँह में भर पुत्र का शव!














53 एक नीलपुष्प की अभिलाषा
(योहान वुल्फगांग फान गेटे की जर्मन कविता "दास वाईलशेन" का अनुवाद)

कहीं फैले चरागाह के बीच,
माथा झुकाये,
कुछ लजाता सा, छुपा सब से
एक नीलपुष्प, सुन्दर सा
खिला था। अकेला हो
मगर थी एक अलग ही कुछ शान उसकी!
कहीं से आती दिखी इक
गड़ेरिन भी, डोलती, यौवन के घुंघरू बाँध,
पल-पल थिरकती और खिलखिलाती,
गुनगुनाती गीत अपने मधुर होठों से।

उसे देखा औ' सोचा फ़ूल ने कि- 
काश! सबसे खूबसूरत
फ़ूल मैं होता जगत का,
सत्य चाहे ये मृदुल दो पल ही 'गर होता,
वो मुड़कर देखती तो और चुनती
मुझे, सीने से लगाती,
आह! बस एक बार,
भर एक बार,
एक पल के लिए हो ही सही! 

मगर क्यों हाय! क़िस्मत
को हुआ मंज़ूर ही कुछ और,
वो आयी, मगर एक झलक न फेंकी,
गयी आगे निकल वो रौंद कर
मासूम से उस फ़ूल को,
कुचला गया, मारा गया
वो ख़ुशी से ये सोचते -
मरना ही था सो मरा पर
मैं कम से कम उसके ही तल
प्रिय! गड़ेरिन के पैर तल!
=============

समाप्त


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