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शनिवार, 16 नवंबर 2019

नवगीत

नवगीत 
*
लगें अपरिचित
सारे परिचित
जलसा घर में

है अस्पृश्य आजकल अमिधा
नहीं लक्षणा रही चाह में
स्वर्णाभूषण सदृश व्यंजना
बदल रही है वाह; आह में
सुख में दुःख को पाल रही है
श्वास-श्वास सौतिया डाह में
हुए अपरिमित
अपने सपने
कर के कर में

सत्य नहीं है किसी काम का 
नाम न लेना भूल राम का
कैद चेतना हो विचार में
दक्षिण-दक्षिण, वाम-वाम का  
समरसता, सद्भाव त्यज्य है 
रिश्ता रिसता स्रोत दाम का 
पाल असीमित 
भ्रम निज मन में
शक्कर सागर में

चोटी, टोपी, तिलक, मँजीरा
हँसिया थामे नचे जमूरा
ए सी में शोलों के नगमे
छोटे कपड़े, बड़ा तमूरा
चूरन-डायजीन ले लिक्खो 
भूखा रहकर मरा मजूरा
है वह वन्दित  
मन अभद्र जो 
है तन नागर में
***
संजीव
१६-११-२०१९ 

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