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बुधवार, 13 नवंबर 2019

नृत्य नाटिका वाग्देवी डॉक्टर चन्द्रा चतुर्वेदी


नृत्य नाटिका

वाग्देवी
डॉक्टर चन्द्रा चतुर्वेदी
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[लेखिका परिचय - जन्म - १८ दिसंबर १९४५, पन्ना। आत्मजा - स्मृति शेष मोहनलाल नायक, जीवन साथी - आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, शिक्षा- एम. ए. संस्कृत, "कालिदास और अश्वघोष के दार्शनिक सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन" पर शोधोपाधि। संप्रति- सेवानिवृत्त अधिष्ठाता विज्ञानं संकाय, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय। सृजन - पांचरात्र वैष्णव आगम के वैदिक आधार, कालिदास और अश्वघोष के दार्शनिक सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन, भाव मंजरी, उन्मेष काव्य संग्रह, संपर्क - एच.आई.जी. ८ शताब्दीपुरम, एम.आर.४, जबलपुर ४८२००२, चलभाष- ९४२५१५७८७३]
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कह रही मधु ऋतु कथा, 
कैसे अवतरीं भगवती?
दृष्टिमयी सर्जना से उमगी थी नव सृष्टि
शून्य नभ जड़ प्रकृति, चहुँ दिश प्रलय विकल,
थिर जल स्तंभित अनल, था निश्चल अनिल
रुका काल का चिंतन-मंथन पल-पल
गाते हैं संरचना का इतिहास मधु मासी नव पल
जगत संग जीवन ही गति,
नियति है प्रलय में
दिन प्रहर प्रहर संध्या प्रातः,
घड़ी-घड़ी, अनवरत काल के सिरे
थमा थिर पल-छिन, थमी सृष्टि,
ब्रह्मा थे रुद्र भी संकोच में,
जड़ प्रकृति थी, थमी सृष्टि की धुरी।
ब्रह्मा रुद्र के अंतर्मन में
तब जगी विष्णु की स्मृति
सर्जक, पालक और संहारक हैं ब्र
ह्मा-विष्णु-महेश त्रिदेव।
रुद्र की थी दृष्टि नि:शेष,
आये विष्णु लिए संकल्प विशेष।
ब्रह्मा भी मनस-चक्षु से गढ़ने लगे संकल्प-विकल्प।
नि:शेष संकल्प और विकल्प जब आगत पथ में,
रचनाधर्मी दृष्टि नेह संचरण
हुई सृष्टि प्रक्रिया प्रगट तत्क्षण
संहारक सर्जक प्रेरणास्पद विष्णु-दर्शन
क्षण-क्षण शाश्वत निर्निमेष त्रिदेव दृष्टि मिलन
सच्चिदानंद घन विष्णु के दृष्टि नेहावर्तन, विह्वल स्पंदन
हुए रुद्र रोमांचित आकुल आनंदित संसृति संग नाद ब्रह्म।
व्यापी ध्वनि ओम शाश्वत ऋत की,
परस्पर दृष्टि विनिमय स्वीकृति,
ध्वनि-दृष्टि-दर्शन की चरम परिणति।
गढ़ने लगी सृष्टि की अनुकल्प संकल्प से
मनस-चक्षुओं में प्रगटी रूपवती सुंदरी
सर्वांग सुलक्षणा, कमलनयना सृष्टिमयी छवि।
चेतना के स्पंदन के गति के खुले द्वार।
चैतन्यमयी, जड़ प्रकृति बही वसंत बयार।
रम्यक् सम्यक् चहुँदिश, सुरभित मनोरम विस्तार
प्रकटी धरती पर थी स्वयं सृष्टि साकार।
काल की चौघड़ी, जगाने लगी संसार
नेह-दृष्टि उद्भूता, अद्भुत सरस्वती अवतार
शुभ्र नील-रक्तवर्णा, दिव्य रूप सर्जना
ब्रह्मा विष्णु रुद्र भी करें स्मित- वन्दना।
'कौन हो तुम हे देवि! दिव्यरूपा मनोरमा।
क्यों हुई है, तुम्हारी दिव्य अवतारणा यहाँ।'
''प्रश्न क्यों करते हैं देवाधिदेव त्रिदेव आप?
स्वयं प्रकट कर मुझे पूछते हो कौन मैं?"
"जगती की अवधारणा, करती मैं ही हूँ सृष्टि।
अब कहें किस भाँति, मैं देव रचूँ समष्टि?"
स्मित हास्य विष्णु का था, ब्रह्मा ने तब कहा-
अये मेरी मनस दृष्टि! अब करो साकार सृष्टि रचना
ब्राम्ही तप सिद्धा हुईं तब, दिव्य वर से ब्रह्मा के
ब्राह्मी ही एकाक्षरा, विभावरी और हैं सरस्वती
दृष्टिगोचर, दृष्टिभूता, दृष्टिमयी है सृष्टि।
ब्रह्मा के संकेत पर व्यापक जीव चराचर में
बुद्धिरूपिणी विज्ञानमयी तुम हो वीणावादिनी।
उनकी सुभग सहचरी प्रकृति, समष्टि में प्रतिबिंबित
प्राण-प्राण में बुद्धि-ज्ञान-कला-संगीत गुम्फित
हो तुम आद्या-आराध्या जगदंबा भगवती।
प्रज्ञा के मानस पटल की अधिष्ठात्री सरस्वती।
वाग्देवी! तुम ब्रह्म वर से हुईं व्यापक विविध रूप
प्रज्ञा, प्रेरणा, कल्पना, सर्जना, विचार, बुद्धि ज्ञान-संज्ञान की।
देवि ने ज्यों ही ज्यों दृष्टि सब ओर डाली
हुई कविता कामिनी की सर्जना प्रतिभा निराली।
जन्मी कविता सहृदयी साहित्य उद्भव सी
अगणित बिंब हैं शब्द ब्रह्म की थाती
करती प्राण प्रतिष्ठा स्मृति शक्ति की
फिर दृष्टि फिरी चहुँ ओर, वाग्देवी वीणाधारणी की।
गति, ताल, लय, छंद की, उद्भावना-धारणा जगी
मनुज-प्रकृति संगम सी वीणा- स्वर की झंकृति
जन्मी संगीत-विधा में नाद- ब्रह्म की संस्तुति।
बिखरे रंग, वास्तु-शिल्प, चित्रकला के नवोन्मेष
विकसीं चौंसठ कलायें, कलामयी हंसवाहिनी
तब दृष्टिबोधों से उनके नूतन परिवेश।
वीणावादिनी वाग्मयी कल्याणी देवि भगवती!
साहित्य, संगीत, कला की सर्जना कर रहीं।
चेतना के द्वार पर नयी दस्तक सी सुनतीं,
लगीं सोचने फिर विचारने सहृदय सरस सतरंग
आनन्द की हुई है सर्जना फिर क्या बाकी मानस मन में?
कल्पना स्मरण धारणा विविध बुद्धि के विलास की
कर अनुरंजना सहज सौम्य संस्कारों की रट अभ्यर्थना
पर कहीं क्या है शेष?, क्यों है अकुलाहट?
ठहरी अभी क्यों अंतस में विवेचना विशेष।
ऋत सत्य की भेरी सुनतीं ब्राम्ही भगवती
हँसी फिर आनंदमयी दृष्टि जो फिरी।
सत्य की चौखट पर आहट हुई विज्ञान की,
गति सत्य विश्लेषण की, यथार्थ की,
अणु-परमाणु, बिम्ब की, विद्युत की, ऊर्जा की।
पल-छिन ठिठके, लिये विज्ञान सत्य की भेरी
कृत्रिम दृष्टि (कैमरा) विज्ञान की बनी भौतिक शक्तिपात,
कल उपकरण आविष्करण जो हैं नित्य नूतन आस्वाद।
मुग्ध वासंती भोर में वाग्देवी, समूची सृष्टि करे अभिनंदन
दृष्टिदायिनी सृष्टिमयी शारदाम्बे!
शत-शत वंदन तव चरण कमलों में
शत शत वंदन, नमन नमन।।
(काव्य कृति उन्मेष से)
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