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बुधवार, 6 नवंबर 2019

पोखर ठोंके दावा : अविनाश ब्योहार

कृति चर्चा 
'पोखर ठोंके दावा' : जल उफने ज्यों लावा 
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण : पोखर ठोंके दावा, नवगीत संग्रह, अविनाश ब्योहार, प्रथम संस्करण २०१९, आकार  २० से. x १३ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२०, प्रकाशन काव्य प्रकाशन, नवगीतकार संपर्क - रॉयल स्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, कटंगी मार्ग, जबलपुर ४८२००२, चलभाष ९८२६७९५३७२]
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                     साहित्य सामायिक परिस्थितियों का साक्षी बनकर ही संतुष्ट नहीं होता, वह समय को दिशा देने या राह दिखाने की भूमिका का भी निर्वहन करता है। विविध विधाएँ और विविध रचनाकार 'हरि अनंत हरि अनंता' के सनातन सत्य को जानते हुए भी देश-काल-परिस्थितियों के संदर्भ में अपनी अनुभूतियों को ही अंतिम सत्य मानकर अभिव्यक्त करते हैं। ईर्षालु व्यक्तियों के संदर्भ में कहा गया है 'देख न सकहिं पराई विभूति' साहित्यकारों के संदर्भ में कहा जा सकता है 'देख न सकहिं पराई प्रतीति'। इस काल में सुख भोगते हुए दुःख के गीत गाना फैशन हो गया है। राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को साहित्य पर लादना सर्वथा अनुचित है। हिंदी साहित्य को संस्कृत और लोक भाषाओँ से सनातनता की कालजयी समृद्ध विरासत प्राप्त होने के बाद भी समसामयिक साहित्य अवास्तविक वाग्विलास का ढेर बनता जा रहा है। नवगीत, लघुकथा व्यंग्य लेख, क्षणिका आदि केवल हुए केवल अतिरेकी  विसंगति वर्णन तक सीमित होकर रह गए हैं। नित्य पाचक चूर्ण फाँकनेवाले भुखमरी को केंद्र में रखकर गीत रचे, वातानुकूलित भवन में रह रही कलम जेठ की तपिश की व्यथा-कथा कहे, विलासी जीवन जी रहा त्याग -वैराग का पाठ पढ़ाये तो यह ढोंग और पाखंड ही है। 

                     साहित्यिक मठाधीशों द्वारा नकारे जाने का खतरा उठाकर भी  जिन युवा कलमों ने अपनी राह आप बनाने का प्रयास करना ठीक समझा है, उनमें एक हैं अविनाश ब्योहार। ग्रामवासी, खेतिहर किन्तु सुशिक्षा की विरासत से संपन्न और नगरीय जीवन जी रहे अविनाश शहर-गाँव की खाई से परिचित ही नाहने हैं, उसे लाँघकर आगे बढ़े हैं। इसलिए उनकी क्षणिकाओं और नवगीतों में न सुख और न दुःख का अतिरेकी शब्दांकन होता है। वे कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने के अभ्यासी हैं। कंजूसी की हद तक शब्दों की मितव्ययिता उनकी प्रतिबद्धता है। लघ्वाकारी नवगीत रचकर वे अपनी लीक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। 'पोखर ठोंके दावा' के पूर्व उनका एक अन्य लघुगीत संकलन 'मौसम अंगार है' तथा क्षणिका संग्रह 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' प्रकाशित हैं। अविनाश के नवगीत उनकी क्षणिकाओं का विस्तार प्रतीत होते हैं। 

                      चोर-पुलिस की मिली-भगत एक अप्रिय सच्चाई है। अविनाश के अनुसार -
क्रिमिनल के लिए
सैरगाह है थाना।
रपट करने में
दाँतों पसीना आया।

                  शहरों का यांत्रिक जीवन और समयाभाव उत्सवधर्मी भारतीय मन को दुखी करे, यह स्वाभाविक है। 'कोढ़ में खाज' यह कि कृत्रिमता का आवरण ओढ़कर हम जीवन को और अधिक नीरस बना रहे हैं- 
रंगों में डूब
गई होली।
हवाओं में
उड़ रहा गुलाल।
रंगोत्सव में
घुलता मलाल।।
नकली-नकली
है बोली। 

                        नवधनाढ्यों द्वारा खुद श्रम न करना और श्रमजीवी को समुचित पारिश्रमिक न देना, सामाजिक रोग बन गया है। अविनाश इससे क्षुब्ध होकर लिखते हैं- 
चेहरा ग्लो करता।
हुआ फेशियल
औ' मसाज।
विचार हैं संकीर्ण,
बहुत सकरे।
आटो के पैसे
बहुत अखरे।।
आया-महरी
करतीं हैं
इनके सारे काज। 

                         सरकार की पूंजीपति समर्थक नीति मध्यम वर्ग का जीवन दूभर कर रही है। कवि स्वयं इस वर्ग  की पीड़ा का भुक्तभोगी है। वह इस नीति पर शब्द-प्रहार करते हुए लक्षणा में अपनी व्यथा-कथा का संकेत करता है- 
डेबिट कार्ड के आगे
बटुआ है लाचार।

                         सामाजिक विसंगतियों के फलस्वरूप शासन-प्रशासन ही नहीं न्याय व्यवस्था भी दम तोड़ रही है। अविनाश इस कटु सत्य के चश्मदीद साक्षी हैं। दिल्ली में वकील-पुलिस टकराव ने इसे सामने ला दिया है। अविनाश इसका कारण मुवक्किलों द्वारा तिल को ताड़ बना देने तथा वकीलों द्वारा झूठ  बोलने की मानसिकता को मानते हैं - 
लग जाती है
तुच्छ-तुच्छ

बातों की रिट ....
....मनगढ़ंत कहानी
कूट रचना है।
झूठी मिसिल-
गवाही से
बचना है।।

                   मेघ करे / धूप की चोरी, सपनों ने / सन्यास ओढ़ा, उम्मीद पर करने लगी / संवेदना हस्ताक्षर, अफसर-बाबू / में साँठ -गाँठ,  थाना कोर्ट कचहरी है / अंधी गूँगी बहरी है जैसी अभिव्यक्तियाँ हिंदी को नए मुहावरे देती हैं। 

                   लीक से हटकर अविनाश ने नवगीतों में कुछ नए रंग घोले हैं- 
सूरज ने
धूप से कहा
मौसम रंगीन
हो गया।
अब चलने लगी हैं
चुलबुली हवाऐं।
आपस में पेड़
जाने क्या बतियायें।।

                   ऋतु परिवर्तन का आनंद भूल रहे समाज को कवि मौसम का मजा लेने की सीख देता है। जाड़े का रंग देखें -
सबको बहुत
लुभाता है
जाड़े का मौसम।
महल, झोपड़ी,
गाँव-शहर हो।
या फिर दिन के
आठ पहर हो।।
कभी-कभी
तो लगता है

भाड़े का मौसम।

                            वर्षा के लोक गीत जान जीवन को संप्राणित करते हैं- 
वसुधा ने
कजरी गाई।
हरियाली को
बधाई।।
फुनगी से बोली

चश्मे-बद्दूर।

                             शहरी संबंधों की अजनबियत पर सटीक टिप्पणी - 
उखड़े-उखड़े से
मिलते है ं
कालोनी क े लोग।
है औपचारिक
सी बातें।
हमदर्दी पर
निष्ठुर घातें।।
उनका मिलना
अक्सर लगता

महज एक संयोग।

                           अविनाश के नवगीतों का वैशिष्ट्य जमीनी सच से जुड़ाव, सम्यक शब्द-चयन और वैचारिक स्पष्टता है। क्रमश: परिपक्व होती यह कलम नवगीतों को एक नए आयाम से समृद्ध करने का माद्दा रखती है। 
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, 
ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४   
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