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शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

एक व्यंग्य कविता

एक व्यंग्य कविता
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ऊधौ! का सरकारै सब कछु?
'विथ डिफ़रेंस' पार्टी अद्भुत, महबूबा से पेंग लड़ावै
बात न मन की हो पाए तो, पलक झपकते जेल पठावै
मनमाना किरदारै सब कछु?
कम जनमत पा येन-केन भी, लपक-लपक सरकार बनावै
'गो-आ' खेल आँख में धूला, झोंक-झोंककर वक्ष फुलावै
सत्ता पा फुँफकारै सब कछु?
मिले पटकनी तो रो-रोकर, नाहक नंगा नाच दिखावै
रातों रात शपथ ले छाती, फुला-फुला धरती थर्रावै
कैसऊ करो, जुगारै सब कछु
जोड़ी पूँजी लुटा-खर्चकर, धनपतियों को शीश चढ़ावै
रोजगार पर डाका डाले, भूखों को कानून पढ़ावै
अफरा पेट, डकारै सब कछु?
खेत ख़त्म कर भू सेठों को दे-दे पार्टी फंड जुटावै
असफलता औरों पर थोपे, दिशाहीन हर कदम उठावै
गुंडा बन दुत्कारै सब कछु?
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