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बुधवार, 6 नवंबर 2019

५ समीक्षाएं बुधिया लेता टोह, मौसम अंगार है, दिन कटे हैं धूप चुनते चुप्पियों को तोड़ते हैं, पोखर ठोंके दावा

बुधिया लेता टोह : चीख लगे विद्रोह
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य छायावादी रूमानियत (पंत, प्रसाद, महादेवी, बच्चन), राष्ट्रवादी शौर्य (मैथिली शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी) और प्रगतिवादी यथार्थ (निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध) के संगुफन का परिणाम है। गीत के संदर्भ में परंपरा और नवता के खेमों में बँटे मठाधीश अपनी सुविधा और दंभ के चलते कुछ भी कहें और करें, यह सौभाग्य है कि हिंदी का बहुसंख्यक नव रचनाकार उन पर ध्यान नहीं देता, अनुकरण करना तो दूर की बात है। अपनी आत्म चेतना को साहित्य सृजन का  मूलाधार मानकर, वरिष्ठों के विमर्श को अपने बौद्धिक तर्क के धरातल पर परख कर स्वीकार या अस्वीकार करने वाले बसन्त कुमार शर्मा ऐसे ही नव-गीतकार हैं जो नव-गीत और नवगीत को भारत पकिस्तान नहीं मानते और वह रचते हैं जो कथ्य की आवश्यकता है। नर्मदा तीर पर चिरकाल से स्वतंत्र चिंतन-मनन-सृजन की परंपरा रही है। रीवा नरेश रघुराज सिंह से लेकर गुजराती कवि नर्मद तक की यह परंपरा वर्तमान में भी निरंतर गतिमान है। बसन्त कुमार शर्मा राजस्थान की मरुभूमि से आकर इस सनातन प्रवाह की लघुतम बूँद बनने हेतु यात्रारंभ कर रहे हैं।
गीत-प्रसंग में तथाकथित प्रगतिवादी काव्य समीक्षकों द्वारा गीत को नकारने ही नहीं गीत के मरने की घोषणा करने और नवान्वेषण के पक्षधरों द्वारा गीत-तत्वों के पुनरावलोकन और पुनर्मूल्यांकन के स्थान पर निजी मान्यताओं को आरोपित करने ने नव रचनाकारों के समक्ष दुविधा उपस्थित कर दी है। 'मैं इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ?' की मन:स्थिति से मुक्त होकर बसन्त ने शीत-ग्रीष्म के संक्रांति काल में वैभव बिखेरने का निर्णय किया तो यह सर्वथा उचित ही है। पारंपरिक गीत-तनय के रूप में नवगीत के सतत बदलते रूप को स्वीकारते हुए भी उसे सर्वथा भिन्न न मानने की समन्वयवादी चिंतन धारा को स्वीकार कर बसन्त ने अपनी गीति रचनाओं को प्रस्तुत किया है। नवगीत के संबंध में महेंद्र भटनागर के नवगीत: दृष्टि और सृष्टि की भूमिका में श्रद्धेय देवेंद्र शर्मा ने ठीक ही लिखा है "वह रचना जो बहिरंग स्ट्रक्चर के स्तर पर भले ही गीत न हो किन्तु वस्तुगत भूमि पर नवोन्मेषमयी हो उसे नवगीतात्मक ही कहना संगत होगा.... गीत के लिए जितना छंद आवश्यक है, उतनी लय। लय यदि आत्मा है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। प्रकारांतर से लय यदि जनक है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। कविकर्म के संदर्भ में कहा गया है- "छंदोभंग न कारयेत" और छंदोभंग की स्थिति  जब रचनाकार का 'लय' पर अभीष्ट अधिकार न हो।... नवगीत विद्वेषी पारम्परिक (मंचीय) गीतकारों और नयी कविता के पक्षपाती इधर एक भ्रामक प्रचार करते नहीं थक रहे कि नवगीत में जिस बोध-पक्ष और चेतना-पक्ष का उन्मेष हुआ वह प्रयोगवाद और नयी कविता का ही 'उच्छिष्ट' है। ऐसी सोच पर हँसा या रोया ही जा सकता है।...'नवगीत' नयी 'कविता' का 'सहगामी' तो है, 'अनुगामी' कतई नहीं है।"
कवि बसन्त ने परंपरानुपालन करते हुए शारद-स्तवनोपरांत उन्हें समर्पित इन रचनाओं में 'लय' के साथ न्याय करते हुए 'निजता', 'तथ्यपरकता', 'सोद्देश्यता' तथा 'संप्रेषणीयता' के पंच पुष्पों से सारस्वत पूजन किया है। इनमें 'गीत' और 'नवगीत' गलबहियाँ कर 'कथ्य' को अभिव्यक्त करते हैं। नर्मदांचल में गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह भिन्न और विरोधी नहीं नीर-क्षीर की तरह अभिन्न और पूरक मानने की परंपरा है। जवाहर लाल चौरसिया तरुण, यतीन्द्र नाथ राही, संजीव वर्मा 'सलिल', राजा अवस्थी, विजय बागरी की श्रृंखला में बसन्त कुमार शर्मा और अविनाश ब्योहार अपनी निजता और वैशिष्ट्य के साथ जुड़े हैं। बसन्त की रचनाओं में लोकगीत की सुबोधता, जनगीत का जुड़ाव, पारम्परिक गीत का लावण्य और नागर गीत की बदलाव की चाहत वैयक्तिक अभिव्यक्ति के साथ संश्लिष्ट है। वे अंतर्मन की उदात्त भावनाओं को काल्पनीयक बिम्ब-प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हुए देते हैं । यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण इन गीतों-नवगीतों को सहज ग्राह्य बना देते हैं।
धौलपुर राजस्थान में जन्मे बसन्त जी भारतीय रेल सेवा में चयनित होकर परिचालन प्रबंधन के सिलसिले में देश के विभिन्न भागों से जुड़े रहे हैं। उनके गीतों में ग्रामीण उत्सवधर्मिता और नागर विसंगतियाँ, प्रकृति चित्रण और प्रशासनिक विडम्बनाएँ, विशिष्ट और आम जनों का मत-वैभिन्न्य रसमयता के साथ अभिव्यक्त होता है। गौतम बुद्ध कहते हैं 'दुःख ही सत्य है।' आंग्ल उपन्यासकार थॉमस हार्डी के अनुसार 'हैप्पीनेस इज ओनली एन इण्टरल्यूड इन द जनरल ड्रामा ऑफ़ पेन.' अर्थात दुःखपूर्ण जीवन नाटक में सुख केवल क्षणिक पट परिवर्तन है। इसीलिये शैलेन्द्र लिखते हैं 'दुनिया बनाने वाले काहे को दुनिया बनाई?' बसन्त इनसे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका हीरो 'बुधिया' बादलों की टोह लेते हुए साहब को विद्रोह लगने पर भी चीख-पुकार करता है  क्योंकि उसे अपने पुरूषार्थ पर भरोसा है-
आये बादल, कहाँ गए फिर,
बुधिया लेता टोह ...
... आढ़तियों ने मिल फसलों की
सारी कीमत खाई
सूख गयी तुलसी आँगन की
झुलस गयी अमराई
चीख पुकार कृषक की ल
साहब को विद्रोह
परम्परा से कृषि प्रधान देश भारत को बदल कर चंद उद्योगपतियों के हित साधन हेतु किसानी को हानि का व्यवसाय बनाने की नीति ने किसानों को कर्जे के पाश में जकड़कर पलायन के लिए विवश कर दिया है-
बैला खेत झौंपडी गिरवी
पर खाली पॉकेट
छोड़ा गाँव आज बुधिया ने
बिस्तर लिया लपेट ....
... रौंद रहीं खेतों को सड़कें
उजड़ रहे हैं जंगल
सूख गया पानी झरनों का
कैसे होगा मंगल?
आदम ने कर डाला नालों-
नदियों का आखेट
प्रकृति और पर्यावरण की चिंता 'बुधिया' को चैन नहीं लेने देती। खाट को प्रतीक बनाकर कवि सफलतापूर्वक गीत नायक की विपन्नता 'कम कहे से ज्यादा समझना' की तर्ज पर उद्घाटित करता है-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन,
घर में टूटी खाट
बैठा उकड़ू तर बारिश में
बुधिया जोहे बाट
गाँव से पलायन कर सुख की आस में शहर आनेवाला यह कहाँ जानता है कि शहर की आत्मा पर भी गाँव की तरह अनगिन घाव हैं। अपनी जड़ छोड़कर भागने वाले पूर्व की जड़ पश्चिम के मूल्यों को अपनाकर भी जम नहीं पातीं-
पछुआ हवा शहर से चलकर,
गाँवों तक आई
देख सड़क को पगडंडी ने
ली है अँगड़ाई
बग्घी घोड़ी कार छोड़कर
मटक रहा दूल्हा
नई बहुरिया भागे होटल
छोड़ गैस-चूल्हा
जींस पहनकर नाच रही हैं
सासू - भौजाई
ठौर-ठिकाना ढूँढते गाँव झाड़-पेड़-परिंदों के बिना निष्प्राण हैं। कोढ़ में खाज है- "संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।"  सरकारी लाल-फीताशाही की असलियत कवि से छिप नहीं पाती-
"बजता लेकिन कौन उठाये
सच का टेलीफून?"
पैसे लिए बिना कोई भी
कब थाने में हिलता
बिना दक्षिणा के पटवारी
कब किसान से मिलता
लगे वकीलों के चक्कर तो
उतर गई पतलून

जीवन केवल दर्द-दुःख का दस्तावेज नहीं है, सुख के शब्द भी इन पर अंकित-टंकित हैं। इन गीतों का वैशिष्टय दुःख के साथ सुख को भी समेटना है। इनमें फागुन मोहब्बतों की फसल उगाने आज भी आता है

गीत-प्रीत के हमें सुनाने
आया है फागुन
मोहब्बतों की फसल उगाने
आया है फागुन
सरसों के सँग गेहूं खेले,
बथुआ मस्त उगे
गौरैया के साथ खेत में
दाने काग चुने
हिल-मिलकर रहना सिखलाने
आया है फागुन
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत  वाले देश को श्रम की महत्ता बतानी पड़े इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है-
रिद्धि-सिद्धि तो वहीं दौड़तीं,
श्रम हो जहाँ अकूत
बसन्त जी समय के साथ कदमताल करते हुए तकनीक को इस्तेमाल ही नहीं करते, उसे अपनी नवगीत का विषय भी बनाते हैं-
वाट्स ऐप हो या मुखपोथी
सबके अपने-अपने मठ हैं
रहते हैं छत्तीस अधिकतर
पड़े जरूरत तो तिरसठ हैं
रंग निराले, ढंग अनोखे
ओढ़े हुए मुखौटे अनगिन
लाइक और कमेंट खटाखट
चलते ही रहते हैं  निश-दिन
छंद हुए स्वच्छंद युवा से
गीत-ग़ज़ल के भी नव हठ हैं
कृति नायक 'बुधिया' उसी तरह बार-बार विविध बिम्बों-प्रतीकों के साथ भिन्न-भिन्न भावनाओं को शब्दित करता है जैसे मेरे नवगीत संग्रहों "काल है संक्रांति का" में 'सूर्य' तथा "सड़क पर" में 'सड़क' में  गया है। हो सकता है शब्द-युग्म प्रयोगों की तरह यह चलन भी नए नवगीतकारों में प्रचलित हो। आइये, बुधिया की अर्जी पर गौर करें-
अर्जी लिए खड़ा है बुधिया
दरवाजे पर खाली पेट
राजाजी कुर्सी पर बैठे
घुमा रहे हैं पेपरवेट
कहने को तो 'लोकतंत्र' है,
मगर 'लोक' को जगह कहाँ है?
मंतर सारे पास 'तंत्र' के
लोक भटकता यहाँ-वहाँ
रोज दक्षिणा के बढ़ते हैं
सुरसा के मुँह जैसे रेट
राजाजी प्रजा को अगड़ी-पिछड़ी में बाँट कर ही संतुष्ट नहीं होते, एक-एक कर सबका शिकार करना अपन अधिकार मानते हैं। प्यासी गौरैया और नालों पर लगी लंबी लाइन उन्हें नहीं दिखती लेकिन बुढ़िया मिट्टी के घड़े को चौराहे पर तपते और आर ओ वाटर को फ्रिज में खिलवाड़ करते देखता है-
घट बिन सूनी पड़ी घरौंची
बुधिया भरता रोज उसासी
इन रचनाओं में देश-काल समाज की पड़ताल कर विविध प्रवृत्तियों को इंगित सम्प्रेषित किया गया है। कुछ उदाहरण देखें-
लालफीताशाही-
फाइलों में सज रही हैं / दर्द दुःख की अर्जियाँ/ चीख-पुकार कृषक की लगती / साहब को विद्रोह।
भ्रष्टाचार-
दाम है मुश्किल चुकाना / ऑफिसों में टीप का, पैसे लिए बिना कोई भी / कब थाने में हिलता, बिना दक्षिणा के पटवारी / कब किसान से मिलता।
न्यायालय-
लगे वकीलों के चक्कर तो / उतर गई पतलून।
कुंठा-
सबकी चाह टाँग खूँटी पर / कील एक ठोंके।
गरीबी-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन / घर में टूटी खाट / बैठा उकड़ूँ तर बारिश में /  बुधिया जोहे बाट, बैला खेत झोपड़ी गिरवी / पर खाली पॉकेट, बिना फीस के, विद्यालय में / मिला न उसे प्रवेश।
राजनैतिक-
जुमले लेकर वोट माँगने / आते सज-धज नेता।
जन असंतोष- कहीं सड़क पर, कहीं रेल पर / चल रास्ता रोकें रोकें।
पर्यावरण-   
कूप तड़ाग बावली नदियाँ / सूखीं, सूने घाट, खड़ा  गाँव से दूर सूखता / बेबस नीम अकेला, चहक नहीं अब गौरैया की / क्रंदन पड़े सुनाई।
किसान समस्या- पानी सँग सिर पर सवार था / बीज खाद का चक्कर, रौंद रहीं खेतों को सड़कें / उजड़ रहे हैं जंगल, आढ़तियों ने मिल फसलों की / सारी कीमत खाई।
सामाजिक-
उड़े हुए हैं त्योहारों से / अपनेपन के रंग, हुई कमी परछी-आँगन की / रिश्तों का दीवाला, सूख गई तुलसी आँगन की / झुलस गई अमराई अमराई, जींस पहनकर नाच रही हैं / बड़की भौजाई, संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।

जनगण की व्यथा-कथा किन्ही खास शब्दों की मोहताज नहीं होती। नीरज भले ही 'मौन ही तो भावना की भाषा है' कहें पर आज जब चीत्कार भी अनसुना किया जा रहा है, नवगीत को पूरी शिद्दत के साथ वह सब कहना ही होगा जो वह कहना चाहता है। बसन्त जी नवगीतों में शब्दों को वैसे ही पिरोते हैं जैसे माला में मोती पिरोये जाते हैं। इन नवगीतों में नोन, रस्ता, बैला, टोह, दुबारा, बहुरिया, अँगनाई, पँखुरियाँ, फिकर, उजियारे, पसरी, बिजूका, भभूका, परजा, लकुटी, घिरौंची, उससे, बतियाँ रतियाँ, निहारत जैसे शब्दों के साथ वृषभ, आरोह, अवरोह, तृषित, स्वप्न, अट्टालिकाएँ, विपदा, तिमिर, तृष्णा, संगृहीत, ह्रदय, गगन, सद्भावनाएँ, आराधनाएँ, वर्जनाएँ, कलुष, ग्रास जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं। इन गीतों में जितनी स्वाभाविकता के साथ साहब, फाइलों, ऑफिसों, पॉकेट, लैपटॉप, रॉकेट, जींस, बार्बी डॉल, मोबाईल, रेस, चैटिंग, सैटिंग, चेन, स्विमिंग पूल, डस्टबिन, बुलडोजर, गफूगल, रेट, जैकेट, वेट, वाट्स ऐप, लाइक, कमेंट, फ्रिज, आर ओ वाटर, बोतल, इंजीनियरिंग, होमवर्क आदि अंगरेजी शब्द प्रयोग में लाए गए हैं, उतने ही अपनेपन के साथ उम्र, अर्जियां, लबों, रिश्तों, हर्जाने, कर्जा, मूरत, कश्मकश, ज़िंदगी, दफ्तर, कोशिश, चिट्ठी, मंज़िल, साजिश, सरहद, इमदाद, रियायत समंदर, अहसान जैसे अरबी-फ़ारसी-तुर्की व् अन्य भाषाओँ के प्रचलित शब्द भी बेहिचक-बखूबी प्रयोग किये गए हैं।

नवगीतों में पिछले कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रही शब्द-युग्मों को प्रयोग करने की प्रवृत्ति बसन्त जी के नवगीतों में भी हैं। नव युग्मों के विविध प्रकार इन गीतों में देखे जा सकते हैं यथा- दो सार्थक शब्दों का युग्म, पहला सार्थक दूसरा निरर्थक शब्द, पहला निरर्थक दूसरा सार्थक शब्द, दोनों निरर्थक शब्द, पारिस्थितिक शब्द युग्म, संबंध आधारित शब्द युग्म, मौलिक शब्द युग्म, एक दूसरे के पूरक, एक दूसरे से असम्बद्ध, तीन शब्दों का युग्म आदि। रोटी-नोन, जैसे-तैसे, चीख-पुकार, हरा-भरा, ठौर-ठिकाना, मुन्ना-मुन्नी, भाभी-भैया, काका-काकी, चाचा-ताऊ, जीजा-साले, दादी-दादा, अफसर-नेता, पशु-पक्षी, नाली-नाला, मंदिर-मस्जिद, सज-धज, गम-शूम, झूठ-मूठ, चाल-ढाल, खाता-पीता, छुआ-छूत, रोक-थाम, रात-दिन, पाले-पोज़, आँधी-तूफ़ान, आरोह-अवरोह, गिल्ली-डंडा, सर-फिरी, घर-बाहर, तन-मन, जाती-धर्म, हाल-चाल, साँझ-सकारे, भीड़-भड़क्का, कौरव-पांडव, आस-पास, रंग-बिरंगे, नाचे-झूमे, टैग-तपस्या, बग्घी-घोडा, खेत-मढ़ैया, निश-दिन, नाचो-गाओ, पोखर-कूप-बावड़ी, ढोल-मँजीरा, इसकी-उसकी-सबकी, रिद्धि-सिद्धि, तहस-नहस, फूल-शूल, आदि।

बसन्त जी शब्दावृत्तियों के प्रयोग में भी पीछे नहीं हैं। हर-हर, हँसते-हँसते, मचा-मचा, दाना-दाना, खो-खो, साथ-साथ, संग-संग, बिछा-बिछा, टुकुर-टुकुर, कटे-कटे, हँस-हँस, गली-गली, मारा-मारा, बारी-बारी आदि अनेक शब्दावृत्तियाँ विविध प्रसंगों में प्रयोग कर भाषा को मुहावरेदार बनाने का सार्थक प्रयास किया गया है।
अलंकार
अन्त्यानुप्रास सर्वत्र दृष्टव्य है। यमक, उपमा व श्लेष का भी प्रयोग है। विरोधाभास- जितने बड़े फ़्लैट-कारें / मन उतना ज्यादा छोटा। व्यंजना- बहुतई अधिक विकास हो रहा।
मुहावरे
कहीं-कहीं मुहावरों के प्रयोग ने रसात्मकता की वृद्धि की है- दिल ये जल जाए, मेरी मुर्गी तीन टाँग की आदि।
आव्हान
इस कृति का वैशिष्ट्य विसंगतियों के गहन अन्धकार में आशा का दीप जलाए रखना है। संकीर्ण मानसिकता के पक्षधर भले ही इस आधार पर नवता में संदेह करें पर गत कुछ दशकों से नवगीत का पर्याय अँधेरा और पीड़ा बना दिए जाने के काल में नवता उजाले हुए हर्ष का आव्हान करना ही है। ''आइये, मिलकर बनायें / एक भारत, श्रेष्ठ भारत'' के आव्हान के साथ गीतों-नवगीतों की इस कृति का समापन होना अपने आप में एक नवत्व है।  छंद और लय पर बसन्त जी की पकड़ है। व्यंजनात्मकता और लाक्षणिकता का प्रभाव आगामी कृतियों में और अधिक होगा। बसन्त जी की प्रथम कृति उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करती है। पाठक निश्चय ही इन गीतों में अपने मन की बात पाएँगे हुए कहेंगे- ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।''
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मौसम अंगार है : आदमी बेज़ार है 

[कृति विवरण : मौसम अंगार  है, नवगीत संग्रह, अविनाश ब्योहार, प्रथम संस्करण २०१९, आई एस बी एन ९७८-९३-८८२५६-४१-४, पृष्ठ ९३, मूल्य १६०/-, काव्या पब्लिकेशन, अवधपुरी, भोपाल म.प्र., गीतकार संपर्क - रॉयल स्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, दमोह मार्ग, जबलपुर।]
*
नवगीत सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की खबर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष व संकल्प को अपनी विषय वस्तु बनाता है। नवगीत की शक्ति को पहचानते हुए अविनाश ब्यौहार ने अपने आस-पास घटते अघट को कभी समेटा है, कभी बिखेर कर दर्द को भी हँसना सिखाया है। अविनाश ब्यौहार के नवगीत रुदाली मात्र नहीं, सोहर भी हैं। इन नवगीतों में अंधानुकरण नहीं, अपनी राह आप बनाने की कसक है। युगीन विसंगतियों को शब्द का आवरण पहनाकर नवगीत मरती हुई नदी में सदी को धूसरित होते देखता है। विसंगतियाँ मनुज-जनित ही नहीं, प्रकृति जन्य भी हैं। तिरपाल धूप से बचने और छाया पाने के लिए ताना जाता है किन्तु यहाँ सूर्य धूप का तिरपाल तान दिया है। सूर्य को शासन, धूप को प्रशासन समझें तो रूपक स्पष्ट होता है जिसे अविनाश ने 'पंछी कस कलरव, अहेरी का जाल' कहा है -   


मृतप्राय पड़ी हुई / रेत की नदी

धूसरित होती / इक्कीसवीं सदी

पंछी कस कलरव / अहेरी का जाल
सूरज ने ताना / धूप का तिरपाल


यहाँ विसंगति में विसंगति यह भी कि तिरपाल सिर के ऊपर ताना जाता है, जबकि धूप सूरज के नीचे होती है।
अविनाश के गीत गगन विहारी ही नहीं, धरती के लाल भी हैं। वे गोबर से लिपे आँगन में उजालों के छौनों को लाते हैं।

उजियारे के / छौने लाए / पर्व दिवाली
आँगन लिपे / हुए हैं / गोबर से
पुरसा करे / दिवाली / पोखर से
खुलते में हैं / गौएँ बैठे / करें जुगाली
इन नवगीतों को नवाशा से घुटन नहीं होती। नवगीत को रुदाली या स्यापा गीत माननेवालों को अविनाश चुनौती देते हुए दिन तो दिन, रात के लिए भी सूरज उगाना चाहते हैं-
रात्रि के लिए / एक नया सा / सूर्य उगायें
जो अँधियारा / धो डालेगा
उजला किरनें / बो डालेगा
दुर्गम राहों / की भी कटी / सभी बाधाएँ
कविता का आनंद तब ही है, जब कवि का कहने का तरीका किसी और से सादृश्य न रखता हो। इसीलिए ग़ालिब के बारे में कहा जाता है 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और'। इन नवगीतों की कहन बोलचाल के साधारण शब्दों में असाधारण अर्थ भर देती है।

मौसम अंगार है / सुआ कुतरे आम
कुत्ते सा हाँफ रहे / हैं आठों याम
रातों का / सुरमा है / आँजती हवाएँ


अविनाश कल्पना के कपोल कल्पना न होने देकर उसे यथार्थ जोड़े रखते हैं-

सुख-दुख / दूर खड़े
सब कुछ / मोबाइल है
कब किस पर / क्या गाज गिरी है?
बहरों से आवाज / गिरी है

अविनाश के लिए शब्द अर्थ की अभिव्यक्ति की साधन मात्र है, वह किसी भी भाषा-नदिया बोली का हो। वे पचेली, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी के शब्दों की तरह बिना किसी भेदभाव के वापरते हैं। मोबाइल, फर्टाइल, फाइल, नेचर, फ्लर्ट, पैट्रोलिंग, रोलिंग जैसे अंग्रेज़ी शब्द, एहतियात, फ़ितरत, बदहवास, दहशत, महसूल जैसे उर्दू लफ्ज, लबरी, घिनौची, बिरवा, अमुआ, लुनाई जैसे देशज शब्द गले मिलकर इन नवगीतों में चार चाँद लगाते हैं पर पाठ्य-त्रुटियाँ केसर की खीर में कंकर की तरह है। बिंदी और चंद्र बिंदी का अंतर न समझा जाए तो रंग में भंग हो जाता है।
नवगीत का वैशिष्ट्य लाक्षणिकता है। इन नवगीतों में बिंब, प्रतीक अनूठे और मौलिक हैं। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह सकने का माद्दा नवगीतकार को असीम संभावनाओं का पथ दिखाता है।
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'दिन कटे हैं धूप चुनते' हौसले ले स्वप्न बुनते 
समीक्षाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दिन कटे हैं धूप चुनते, नवगीत संग्रह, अवनीश त्रिपाठी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८९३८८९४६२१६, आकार २२ से.मी. X १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा. लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क - ग्राम गरएं, जनपद सुल्तानपुर २२७३०४, चलभाष ९४५१५५४२४३, ईमेल tripathiawanish9@gmail.com]
*
धरती के 
मटमैलेपन में 
इंद्रधनुष बोने से पहले,
मौसम के अनुशासन की 
परिभाषा का विश्लेषण कर लो। 

साहित्य की जमीन में गीत की फसल उगाने से पहले देश, काल, परिस्थितियों और मानवीय आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विश्लेषण का आव्हान करती उक्त पंक्तियाँ गीत और नवगीत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: सार्थक हैं। तथाकथित प्रगतिवाद की आड़ में उत्सवधर्मी गीत को रुदन का पर्याय बनाने की कोशिश करनेवालों को यथार्थ का दर्पण दिखाते नवगीत संग्रह "दिन कटे हैं धूप चुनते" में नवोदित नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने गीत के उत्स "रस" को पंक्ति-पंक्ति में उँड़ेला है। मौलिक उद्भावनाएँ, अनूठे बिम्ब, नव रूपक, संयमित-संतुलित भावाभिव्यक्ति और लयमय अभिव्यक्ति का पंचामृती काव्य-प्रसाद पाकर पाठक खुद को धन्य अनुभव करता है। 

स्वर्ग निरंतर 
उत्सव में है  
मृत्युलोक का चित्र गढ़ो जब,
वर्तमान की कूची पकड़े 
आशा का अन्वेषण कर लो। 
मिट्टी के संशय को समझो 
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो।  
हठधर्मी सूरज के 
सम्मुख 
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में 
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो।  

मानव की सनातन भावनाओं और कामनाओं का सहयात्री गीत-नवगीत केवल करुणा तक सिमट कर कैसे जी सकता है? मनुष्य के अरमानों, हौसलों और कोशिशों का उद्गम और परिणिति डरे, दुःख, पीड़ा, शोक में होना सुनिश्चित हो तो कुछ करने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है? गीतकार अवनीश 'स्वर्ग निरंतर उत्सव में है' कहते हुए यह इंगित करते हैं कि गीत-नवगीत को उत्सव से जोड़कर ही रचनाकार संतुष्टि और सार्थकता के स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है। 

नवगीत के अतीत और आरंभिक मान्यताओं का प्रशस्तिगान करते विचारधारा विशेष के प्रति  प्रतिबद्ध गीतकार जब नवता को विचार के पिंजरे में कैद कर देते हैं तो "झूमती / डाली लता की / महमहाई रात भर" जैसी जीवंत अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ गीत से दूर हो जाती हैं और गीत 'रुदाली' या 'स्यापा' बनकर जिजीविषा की जयकार करने का अवसर न पाकर निष्प्राण हो जाता है। अवनीश ने अपने नवगीतों में 'रस' को मूर्तिमंत किया है-

गुदगुदाकर 
मंजरी को 
खुश्बूई लम्हे खिले, 
पंखुरी के 
पास आई 
गंध ले शिकवे-गिले,
नेह में 
गुलदाउदी 
रह-रह नहाई रात भर। 

कवि अपनी भाव सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपनी दृष्टि से सृष्टि को निरखता-परखता और मूल्यांकित करता है। "ठहरी शब्द-नदी" उसे नहीं रुचती। गीत को वैचारिक पिंजरे में कैद कर उसके पर कुतरने के पक्षधरों पर शब्दाघात करता कवि कहता है-

"चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थ हीन हो चुकी समीक्षा 
सोई चादर तान यहाँ 

कवि के  मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ- 

अक्षर-अक्षर आयातित हैं 
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं 
छलते संधि-समास पीर में 
रस के गाँव नहीं जुटते हैं। 
अलंकार ले 
चलती कविता 
सर से पाँव लदी। 

अलंकार और श्रृंगार के बिना केवल करुणा एकांगी है। अवनीश एकांगी परिदृश्य का सम्यक आकलन करते हैं -

सौंपकर 
थोथे मुखौटे 
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे 
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन 
सुख रहे हर रोज घुनते। 

सुख को जीते हुए दुखों के काल्पनिक और मिथ्या नवगीत लिखने के प्रवृत्ति को इंगित कर कवि कहता है- 

भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा 
क्या सुनाये सत्य की झूठी कथा 
किस सनातन सत्य से संवाद हो 
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो 
और 
चुप्पियों ने मर्म सारा  
लिख दिया जब चिट्ठियों में, 
अक्षरों को याद आए 
शक्ति के संचार की

अवनीश के नवगीतों की कहन सहज-सरल और सरस होने के निकष पर सौ टका खरी है। वे गंभीर बात भी इस तरह कहते हैं कि वह बोझ न लगे -

क्यों जगाकर 
दर्द के अहसास को 
मन अचानक मौन होना चाहता है? 

पूर्वाग्रहियों के ज्ञान को नवगीत की रसवंती नदी में काल्पनिक अभावों और संघर्षों से रक्त रंजीत हाथ दोने को तत्पर देखकर वे सजग करते हुए कहते हैं- 

फिर हठीला 
ज्ञान रसवंती नदी में 
रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है।  

नवगीत की चौपाल के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए वे व्यंजना के सहारे अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि साखी, सबद, रमैनी का अवमूल्यन हुआ है और तीसमारखाँ मंचों पर तीर चला कर अपनी भले ही खुद ठोंके पर कथ्य और भाव ओके नानी याद आ रही है- 

रामचरित की 
कथा पुरानी 
काट रही है कन्नी 
साखी-शबद 
रमैनी की भी 
कीमत हुई अठन्नी 
तीसमारखाँ 
मंचों पर अब 
अपना तीर चलाएँ ,
कथ्य-भाव की हिम्मत छूटी 
याद आ गई नानी। 
और 
आज तलक 
साहित्य  जिन्होंने 
अभी नहीं देखा है,
उनके हाथों 
पर उगती अब 
कविताओं की रेखा।  
नवगीत को दलितों की बपौती बनाने को तत्पर मठधीश दुहाई देते फिर रहे हैं कि नवगीत में छंद और लय की अपेक्षा दर्द और पीड़ा का महत्व अधिक है। शिल्पगत त्रुटियों, लय भंग अथवा छांदस त्रुटियों को छंदमुक्ति के नाम पर क्षम्य ही नहीं अनुकरणीय कहनेवालों को अवनीश उत्तर देते हैं- 
मात्रापतन 
आदि दोषों के
साहित्यिक कायल हैं 
इनके नव प्रयोग से सहमीं 
कवितायेँ घायल हैं 
गले फाड़ना 
फूहड़ बातें 
और बुराई करना,
इन सब रोगों से पीड़ित हैं 
नहीं दूसरा सानी। 
'दिन कटे हैं धूप चुनते' का कवि केवल विसंगतियों अथवा भाषिक अनाचार के पक्षधरताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करता अपितु क्या किया जाना चाहिए इसे भी इंगित करता है। संग्रह के भूमिकाकार मधुकर अष्ठाना भूमिका में लिखते हैं "कविता का उद्देश्य समाज के सम्मुख उसकी वास्तविकता प्रकट करना है, समस्या का यथार्थ रूप रखना है। समाधान खोजना तो समाज का ही कार्य है।' वे यह नहीं बताते कि जब समाज अपने एक अंग गीतकार के माध्यम से समस्या को उठता है तो वही समाज उसी गीतकार के माध्यम से समाधान क्यों नहीं बता सकता? समाधान, उपलब्धि, संतोष या सुख के आते ही सृजन और सृजनकार को नवगीत और नवगीतकारों के बिरादरी के बाहर कैसे खड़ा किया जा सकता है?  अपनी विचारधारा से असहमत होनेवालों को 'जात-बाहर' करने का अधिकार किसने-किसे-कब दिया? विवाद में न पड़ते हुए अवनीश समाधान इंगित करते हैं- 

स्वप्नों की 
समिधायें लेकर 
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर 
आओ, हवन करें। 
शमित सूर्य को 
बोझल तर्पण 
ायासित संबोधन,
आवेशित 
कुछ घनी चुप्पियाँ 
निरानंद आवाहन। 
निराकार 
साकार व्यवस्थित 
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष के पृष्ठों पर भी 
क्षितिज चयन करें। 
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए नवगीतकार कहता है- 

त्रुटियों का 
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ  
अर्थहीन वाचन की पद्धति 
चिंतन-मनन करें। 
और 
संस्कृत-सूक्ति 
विवेचन-दर्शन 
सूत्र-न्याय संप्रेषण 
नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था 
बौद्धिक यजन करें। 

बौद्धिक यजन की दिशा दिखाते हुए कवि लिखता है -

पीड़ाओं 
की झोली लेकर 
तरल सुखों का स्वाद चखाया...
 .... हे कविता!
जीवंत जीवनी 
तुमने मुझको गीत बनाया। 

सुख और दुःख को धूप-छाँव की तरह साथ-साथ लेकर चलते हैं अवनीश त्रिपाठी के नवगीत। नवगीत को वर्तमान दशक के नए नवगीतकारों ने पूर्व की वैचारिक कूपमंडूकता से बाहर निकालकर ताजी हवा दी है। जवाहर लाल 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही, कुमार रवींद्र, विनोद निगम, निर्मल शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, अशोक गीते, संजीव 'सलिल', गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', पूर्णिमा बर्मन, कल्पना रामानी, रोहित रूसिया, जयप्रकाश श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, मधु प्रधान, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, धीरज श्रीवास्तव, रविशंकर मिश्र बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार आदि के कई नवगीतों में करुणा से इतर वात्सल्य, शांत, श्रृंगार आदि रसों की छवि-छटाएँ ही नहीं दर्शन की सूक्तियों और सुभाषितों से सुसज्ज पंक्तियाँ भी नवगीत को समृद्ध कर नई दिशा दे रही है। इस क्रम में गरिमा सक्सेना और अवनीश त्रिपाठी का नवगीतांगन में प्रवेश नव परिमल की सुवास से नवगीत के रचनाकारों, पाठकों और श्रोताओं को संतृप्त करेगा।  

वैचारिक कूपमंडूकता के कैदी क्या कहेंगे इसका पूर्वानुमान कर नवगीत ही उन्हें दशा दिखाता है-

चुभन 
बहुत है वर्तमान में 
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम 
आओ समकालीन बनें। 
समकालीन बनने की विधि भी जान लें-
कथ्यों को 
प्रामाणिक कर दें 
गढ़ दें अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से बाहर निकलें 
थोड़ा और नवीन बनें। 

'दर्द' की देहरी लांघकर 'उत्सव' के आँगन में कदम धरता नवगीत यह बताता है की अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है- 
खोज रहे हम हरा समंदर,
मरुथल-मरुथल नीर,
पहुँच गए फिर, चले जहाँ से, 
उस गड़ही के तीर  .
नवगीत विसंगतियों को नकारता नहीं उन्हें स्वीकारता है फिर कहता है- 
चेत गए हैं अब तो भैया 
कलुआ और कदीर। 
यह लोक चेतना ही नवगीत का भविष्य है। अनीति को बेबस ऐसे झेलकर आँसू बहन नवगीत को अब नहीं रुच रहा। अब वह ज्वालामुखी बनकर धधकना और फिर आनंदित होने-करने के पथ पर चल पड़ा है -
'ज्वालामुखी हुआ मन फिर से
आग उगलने लगता है जब  
गीत धधकने लगता है तब   
और 
खाली बस्तों में किताब रख 
तक्षशिला को जीवित कर दें 
विश्व भारती उगने दें हम 
फिर विवेक आनंदित कर दें
परमहंस के गीत सुनाएँ 
नवगीत को नव आयामों में गतिशील बनाने के सत्प्रयास हेतु  अवनीश त्रिपाठी बधा ई के पात्र हैं। उन्होंने साहित्यिक विरासत को सम्हाला भर नहीं है, उसे पल्लवित-पुष्पित भी किया है। उनकी अगली कृति की उत्कंठा से प्रतीक्षा मेरा समीक्षक ही नहीं पाठक भी करेगा। 
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[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com]
कृति चर्चा: 
चुप्पियों को तोड़ते हैं  -  नवाशा से जोड़ते हैं  
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                                सृष्टि के निर्माण का मूल 'ध्वनि' है। वैदिक वांगमय में 'ओंकार' को मूल कहा गया है तो विज्ञान बिंग बैंग थियोरी'की दुहाई देता है। मानव सभ्यता के विकास के बढ़ते चरण 'ध्वनि' को सुनना-समझना, पहचानना, स्मरण रखना, उसमें अन्तर्निहित भाव को समझना, ध्वनि की पुनरावृत्ति कर पाना, ध्वनि को अंकित कर सकना और अंकित को पुनः ध्वनि के रूप में पढ़-समझ सकना है। ध्वनि से आरम्भ कर ध्वनि पर समाप्त होने वाला यह चक्र सकल कलाओं और विद्याओं का मूल है। प्रकृति-पुत्र  मानव को ध्वनि का यह अमूल्य उपहार जन्म और प्रकृति से मिला। जन्मते ही राव (कलकल) करने वाली सनातन सलिला को जल प्रवाह के शांतिदाई कलकल 'रव' के कारण 'रेवा' नाम मिला तो जन्मते ही उच्च रुदन 'रव' के कारण  शांति हर्ता कैकसी तनय को 'रावण' नाम मिला। परम शांति और परम अशांति दोनों का मूल 'रव' अर्थात ध्वनि ही है। यह ध्वनि जीवनदायी पंचतत्वों में व्याप्त है। सलिल, अनिल, भू, नभ, अनल में व्याप्त कलकल, सनसन, कलरव, गर्जन, चरचराहट आदि ध्वनियों का प्रभाव देखकर आदि मानव ने इनका महत्व जाना। प्राकृतिक घटनाओं जल प्रवाह, जल-वृष्टि, आँधी-तूफ़ान, तड़ितपात, सिंह-गर्जन, सर्प की फुँफकार, पंछियों का कलरव-चहचहाहट, हास, रुदन, चीत्कार, आदि में अंतर्निहित अनुभूतियों की प्रतीति कर, उन्हें स्मरण रखकर-दुहराकर अपने साथियों को सजग-सचेत करना, ध्वनियों को आरम्भ में संकेतों फिर अक्षरों और शब्दों के माध्यम से लिखना-पढ़ना अन्य जीवों की तुलना में मानव के द्रुत और श्रेष्ठ विकास का कारण बना। 
                           नाद की देवी सरस्वती और लिपि, लेखनी, स्याही और अक्षर दाता चित्रगुप्त की अवधारणा व सर्वकालिक पूजन ध्वनि के प्रति मानवीय कृतग्यता ज्ञापन ही है। ध्वनि में 'रस' है। रस के बिना जीवन रसहीन या नीरस होकर अवांछनीय होगा। इसलिए 'रसो वै स:' कहा गया। वह (सृष्टिकर्ता रस ही है), रसवान भगवान और रसवती भगवती। यह रसवती जब 'रस' का उपहार मानव के लिए लाई तो रास सहित आने के कारण 'सरस्वती' हो गई। यह 'रस' निराकार है। आकार ही चित्र का जनक होता है। आकार नहीं है अर्थात चित्र नहीं है, अर्थात चित्र गुप्त है। गुप्त चित्र को प्रगट करने अर्थात निराकार को साकार करनेवाला अक्षर (जिसका क्षर न हो) ही हो सकता है। अक्षर अपनी सार्थकता के साथ संयुक्त होकर 'शब्द' हो जाता है। 'अक्षर' का 'क्षर' त्रयी (पटल, स्याही, कलम) से मिलन द्वैत को मिटाकर अद्वैत की सृष्टि करता है। ध्वनि प्राण संचार कर रचना को जीवंत कर देती है। तब शब्द सन्नाटे को भंग कर मुखर हो जाते हैं, 'चुप्पियों को तोड़ते हैं'। 
                                शब्द का अन्य त्रयी (अर्थ, रस, लय) से संयोग सर्व हित साध सके तो साहित्य हो जाता है। सबका हित समाहित करता साहित्य जन-जन के कंठ में विराजता है। शब्द-साधना तप और योग दोनों है। इंद्र की तरह ध्येय प्राप्ति हेतु 'योग' कर्ता 'योगेंद्र' का 'प्रताप', पीड़ित-दलित मानव रूपी 'मुरा' से व्युत्पन्न 'मौर्य' के साथ संयुक्त होकर जन-वाणी से जन-हित साधने के लिए शस्त्र के स्थान पर शास्त्र का वरण करता है तो आदि कवि की परंपरा की अगली कड़ी बनते हुए काव्य रचता है। यह काव्य नवता और गेयता का वरण  कर नवगीत के रूप में सामने हो तो उसे आत्मसात करने का मोह संवरण कैसे किया जा सकता है? 

                                  कवि शब्द-सिपाही होता है। भाषा कवि का अस्त्र और शस्त्र  दोनों होती है। भाषा के साथ छल कवि को सहन नहीं होता। वह मुखर होकर अपनी पीड़ा को वाणी देता है -
लगा भाल पर 
बिंदी हिंदी-
ने धूम मचाई
बाहर-बाहर 
खिली हुयी 
पर भीतर से मुरझाई
लील गए हैं
अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो
मार रही है 
भोजपुरी को ताने
                                  गाँवों से नगरों की और पलायन, स्वभाषा बोलने में लज्जा और गलत ही सही विदेशी भाषा बोलने में छद्म गौरव की प्रतीति कवि को व्यथित करती है।  यहाँ व्यंजना कवि के भावों को पैना बनाती है-
अलगू की 
औरत को देखो
बैठी आस बुने है
भले गाँव में 
पली-बढ़ी है
रहना शहर चुने है
घर की 
खस्ताहाली पर भी
आती नहीं दया है
सीख चुकी वह 
यहाँ बोलना
फर्राटे से 'हिंग्लिश'
दाँतों तले 
दबाए उँगली
उसे देखकर 'इंग्लिश'
हर पल फैशन 
में रहने का
छाया हुआ नशा है
                                  लोकतंत्र लोक और तंत्र के मध्य विश्वास का तंत्र है। जब जन प्रतिनिधियों का कदाचरण इस विश्वास को नष्ट कर देता है तब जनता जनार्दन की पीड़ा को कवि गीत के माध्यम से स्वर देता है -
संसद स्वयं 
सड़क तक आई
ले झूठा आश्वासन
छली गई फिर
भूख यहाँ पर
मौज उड़ाये शासन
लंबे-चौड़े
कोरे वादे
जानें पुनः मुकरना

                                  अपसंस्कृति के संक्रांति काल में समय से पहले सयानी होती सहनशीलता में अन्तर्निहित लाक्षणिकता पाठक को अपने घर-परिवेश की प्रतीत होती है -
सुबह-सुबह
अखबार बाँचता
पीड़ा भरी कहानी
सहनशीलता 
आज समय से
पहले हुई सयानी
एक सफर की 
आस लगाये
दिन का घाम हुआ
अय्याशी 
पहचान न पाती
अपने और पराये
बीयर ह्विस्की 
'चियर्स' में
किससे कौन लजाये?

धर्म के नाम पर होता पाखंड कवि को सालता है। रावण से अधिक अनीति करनेवाले रावण को जलाते हुए भी अपने कुकर्मों पर नहीं लजाते। धर्म के नाम पर फागुन  में हुए रावण वध को कार्तिक में विजय दशमी से जोड़नेवाले भले ही इतिहास को झुठलाते हैं किन्तु कवि को विश्वास है कि अंतत: सच्चाई ही जीतेगी -
फिर आयी है 
विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर 
कागज का रावण
एक ओर इतिहास
एक बार फिर
सच्चाई की
होगी झूठी जीत 
                                   शासक दल के मुखिया द्वारा बार-बार चेतावनी देना, अनुयायी भक्तों द्वारा चेतावनी की अनदेखी कर अपनी कारगुजारियाँ जारी रखी जाना, दल प्रमुख द्वारा मंत्रियों-अधिकारियों दलीय कार्यकर्ताओं के काम काम करने हेतु प्रेरित करना और सरकार का सोने रहना आदि जनतंत्री संवैधानिक व्यवस्थ के कफ़न में कील ठोंकने की तरह है -
महज कागजी
है इस युग के
हाकिम की फटकार
बे-लगाम 
बोली में जाने
कितने ट्रैप छुपाये
बहरी दिल्ली 
इयरफोन में
बैठी मौन उगाये
लंबी चादर 
तान सो गई
जनता की सरकार

                                 कृषि प्रधान देश को उद्योग प्रधान बनाने की मृग-मरीचिका में दम तोड़ते किसान की व्यथा कवि को विचलित  करती है-
लगी पटखनी 
फिर सूखे से
धान हुये फिर पाई
एक बार फिर से
बिटिया की
टाली गयी सगाई
गला घोंटती 
यहाँ निराशा
टूट रहे अरमान

                               इन नवगीतों में योगेंद्र ने अमिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों  का यथावश्यक उपयोग किया है। इन नवगीतों की भाषा सहज, सरल, सरस, सार्थक और सटीक है। कवि जानता है कि शब्द  अर्थवाही होते हैं। अनुभूति को अभिव्यक्त  करते शब्दों की अर्थवत्ता मुख्या घटक है, शब्द का देशज, तद्भव, तत्सम या अन्य  भाषा से व्युत्पन्न हो पाठकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, समीक्षक  भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहे-
उतरा पानी
हैंडपम्प का
हत्था बोले चर-चर
बिन पानी के
व्याकुल धरती
प्यासी तड़प रही है
मिट्टी में से
दूब झाँकती
फिर भी पनप रही है  
                                'दूब झाँकती', मुखर यहाँ अपराध / ओढ़कर / गाँधी जी की खादी, नहीं भरा है घाव / जुल्म का / मरहम कौन लगाये, मेहनत कर / हम पेट भरेंगे / दो मत हमें सहारे,  जैसे प्रयोग कम शब्दों में  अधिक कहने की सामर्थ्य रखते हैं। यह कवि कौशल योगेंद्र के उज्जवल भविष्य के प्रति आशा जगाता है। 
                               रूपक, उपमा आदि अलंकारों तथा बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से यत्र-तत्र प्रस्तुत शब्द-चित्र नवोदित की सामर्थ्य का परिचय देते हैं- 
जल के ऊपर
जमी बर्फ का
जलचर स्वेटर पहने
सेंक रहा है 
दिवस बैठकर
जलती हुई अँगीठी
और सुनाती
दादी सबको
बातें खट्टी-मीठी
आसमान 
बर्फ़ीली चादर
पंछी लगे ठिठुरने
दुबका भोर 
रजाई अंदर
बाहर झाँके पल-पल 
                                विसंगियों  के साथ आशावादी उत्साह का स्वर  नवगीतों को भीड़ से अलग, अपनी पहचान प्रदान करता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन जीवन के लिए के लिए संजीवनी का काम करती है। अपनत्व और जीवट के सहारे भारतीय जनजीवन यम के दरवाजे से भी सकुशल लौट आता है। होली का अभिवादन शीर्षक नवगीत नेह नर्मदा  प्रवाह का साक्षी है- 
ले आया ऋतुओं 
का राजा
सबके लिए गुलाल
थोड़ा ढीला 
हो आया है
भाभी का अनुशासन
पिचकारी
से करतीं देखो
होली का अभिवादन
किसी तरह का
मन में कोई
रखतीं नहीं मलाल
ढोलक,झाँझ,
मजीरों को हम
दें फिर से नवजीवन
इनके होंठों पर 
खुशियों का
उत्सव हो आजीवन
भूख नहीं 
मजबूर यहाँ हो
करने को हड़ताल
                                'चुप्पियों को तोड़ते हैं' से योगेंद्र प्रताप मौर्य ने नवगीत के आँगन में प्रवेश किया है। वे पगडंडी को चहल-पहल करते देख किसानी अर्थात श्रम या उद्योग करने हेतु उत्सुक हैं। देश का युवा मन, कोशिश के दरवाजे पर दस्तक देता है - 
सुबह-सुबह 
उठकर पगडंडी
करती चहल-पहल है
टन-टन करे 
गले की घंटी
करता बैल किसानी

उद्यम निरर्थक-निष्फल नहीं होता, परिणाम लाता है- 
श्रम की सच्ची 
ताकत ही तो
फसल यहाँ उपजाती
खुरपी,हँसिया 
और कुदाली
मजदूरों के साथी
तीसी,मटर

चना,सरसों की
फिर से पकी फसल है
चूल्हा-चौका
बाद,रसोई
खलिहानों को जाती
देख अनाजों 
के चेहरों को
फूली नहीं समाती
टूटी-फूटी
भले झोपड़ी  
लेकिन हृदय महल है

नवगीत की यह भाव मुद्रा इस संकलन की उपलब्धि है। नवगीत के आँगन में उगती कोंपलें इसे 'स्यापा ग़ीत, शोकगीत या रुदाली नहीं, आशा गीत, भविष्य गीत, उत्साह गीत बनाने की दिशा में पग बढ़ा रही है। योगेंद्र प्रताप मौर्य की पीढ़ी यदि नवगीत को इस मुकाम पर ले जाने की कोशिश करती है तो यह स्वागतेय है। किसी नवगीत संकलन का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता। यह संकलन पाठक बाँधे ही नहीं रखता अपितु उसे अन्य नवगीत संकलन पढ़ने  प्रेरित भी करता है। योगेंद्र 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। 
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संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व  हिंदी संस्थान, ४०१ विजय  अपार्टमेंट, नेपियरटाउन , जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 
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कृति चर्चा
'पोखर ठोंके दावा' : जल उफने ज्यों लावा
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : पोखर ठोंके दावा, नवगीत संग्रह, अविनाश ब्योहार, प्रथम संस्करण २०१९, आकार २० से. x १३ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२०, प्रकाशन काव्य प्रकाशन, नवगीतकार संपर्क - रॉयल स्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, कटंगी मार्ग, जबलपुर ४८२००२, चलभाष ९८२६७९५३७२]
*
साहित्य सामायिक परिस्थितियों का साक्षी बनकर ही संतुष्ट नहीं होता, वह समय को दिशा देने या राह दिखाने की भूमिका का भी निर्वहन करता है। विविध विधाएँ और विविध रचनाकार 'हरि अनंत हरि अनंता' के सनातन सत्य को जानते हुए भी देश-काल-परिस्थितियों के संदर्भ में अपनी अनुभूतियों को ही अंतिम सत्य मानकर अभिव्यक्त करते हैं। ईर्षालु व्यक्तियों के संदर्भ में कहा गया है 'देख न सकहिं पराई विभूति' साहित्यकारों के संदर्भ में कहा जा सकता है 'देख न सकहिं पराई प्रतीति'। इस काल में सुख भोगते हुए दुःख के गीत गाना फैशन हो गया है। राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को साहित्य पर लादना सर्वथा अनुचित है। हिंदी साहित्य को संस्कृत और लोक भाषाओँ से सनातनता की कालजयी समृद्ध विरासत प्राप्त होने के बाद भी समसामयिक साहित्य अवास्तविक वाग्विलास का ढेर बनता जा रहा है। नवगीत, लघुकथा व्यंग्य लेख, क्षणिका आदि केवल हुए केवल अतिरेकी विसंगति वर्णन तक सीमित होकर रह गए हैं। नित्य पाचक चूर्ण फाँकनेवाले भुखमरी को केंद्र में रखकर गीत रचे, वातानुकूलित भवन में रह रही कलम जेठ की तपिश की व्यथा-कथा कहे, विलासी जीवन जी रहा त्याग -वैराग का पाठ पढ़ाये तो यह ढोंग और पाखंड ही है।
साहित्यिक मठाधीशों द्वारा नकारे जाने का खतरा उठाकर भी जिन युवा कलमों ने अपनी राह आप बनाने का प्रयास करना ठीक समझा है, उनमें एक हैं अविनाश ब्योहार। ग्रामवासी, खेतिहर किन्तु सुशिक्षा की विरासत से संपन्न और नगरीय जीवन जी रहे अविनाश शहर-गाँव की खाई से परिचित ही नाहने हैं, उसे लाँघकर आगे बढ़े हैं। इसलिए उनकी क्षणिकाओं और नवगीतों में न सुख और न दुःख का अतिरेकी शब्दांकन होता है। वे कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने के अभ्यासी हैं। कंजूसी की हद तक शब्दों की मितव्ययिता उनकी प्रतिबद्धता है। लघ्वाकारी नवगीत रचकर वे अपनी लीक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। 'पोखर ठोंके दावा' के पूर्व उनका एक अन्य लघुगीत संकलन 'मौसम अंगार है' तथा क्षणिका संग्रह 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' प्रकाशित हैं। अविनाश के नवगीत उनकी क्षणिकाओं का विस्तार प्रतीत होते हैं।
चोर-पुलिस की मिली-भगत एक अप्रिय सच्चाई है। अविनाश के अनुसार -
क्रिमिनल के लिए
सैरगाह है थाना।
रपट करने में
दाँतों पसीना आया।
शहरों का यांत्रिक जीवन और समयाभाव उत्सवधर्मी भारतीय मन को दुखी करे, यह स्वाभाविक है। 'कोढ़ में खाज' यह कि कृत्रिमता का आवरण ओढ़कर हम जीवन को और अधिक नीरस बना रहे हैं-
रंगों में डूब
गई होली।
हवाओं में
उड़ रहा गुलाल।
रंगोत्सव में
घुलता मलाल।।
नकली-नकली
है बोली।
नवधनाढ्यों द्वारा खुद श्रम न करना और श्रमजीवी को समुचित पारिश्रमिक न देना, सामाजिक रोग बन गया है। अविनाश इससे क्षुब्ध होकर लिखते हैं-
चेहरा ग्लो करता।
हुआ फेशियल
औ' मसाज।
विचार हैं संकीर्ण,
बहुत सकरे।
आटो के पैसे
बहुत अखरे।।
आया-महर
करतीं हैं
इनके सारे काज।
सरकार की पूंजीपति समर्थक नीति मध्यम वर्ग का जीवन दूभर कर रही है। कवि स्वयं इस वर्ग की पीड़ा का भुक्तभोगी है। वह इस नीति पर शब्द-प्रहार करते हुए लक्षणा में अपनी व्यथा-कथा का संकेत करता है-
डेबिट कार्ड के आगे
बटुआ है लाचार।
सामाजिक विसंगतियों के फलस्वरूप शासन-प्रशासन ही नहीं न्याय व्यवस्था भी दम तोड़ रही है। अविनाश इस कटु सत्य के चश्मदीद साक्षी हैं। दिल्ली में वकील-पुलिस टकराव ने इसे सामने ला दिया है। अविनाश इसका कारण मुवक्किलों द्वारा तिल को ताड़ बना देने तथा वकीलों द्वारा झूठ बोलने की मानसिकता को मानते हैं -
लग जाती है
तुच्छ-तुच्छ
बातों की रिट ....
....मनगढ़ंत कहानी
कूट रचना है।
झूठी मिसिल-
गवाही से
बचना है।।
मेघ करे / धूप की चोरी, सपनों ने / सन्यास ओढ़ा, उम्मीद पर करने लगी / संवेदना हस्ताक्षर, अफसर-बाबू / में साँठ -गाँठ, थाना कोर्ट कचहरी है / अंधी गूँगी बहरी है जैसी अभिव्यक्तियाँ हिंदी को नए मुहावरे देती हैं।
लीक से हटकर अविनाश ने नवगीतों में कुछ नए रंग घोले हैं-
सूरज ने
धूप से कहा
मौसम रंगीन
हो गया।
अब चलने लगी हैं
चुलबुली हवाऐं।
आपस में पेड़
जाने क्या बतियायें।।
ऋतु परिवर्तन का आनंद भूल रहे समाज को कवि मौसम का मजा लेने की सीख देता है। जाड़े का रंग देखें -
सबको बहुत
लुभाता है
जाड़े का मौसम।
महल, झोपड़ी,
गाँव-शहर हो।
या फिर दिन के
आठ पहर हो।।
कभी-कभी
तो लगता है
भाड़े का मौसम।
वर्षा के लोक गीत जान जीवन को संप्राणित करते हैं-
वसुधा ने
कजरी गाई।
हरियाली को
बधाई।।
फुनगी से बोली
चश्मे-बद्दूर।
शहरी संबंधों की अजनबियत पर सटीक टिप्पणी -
उखड़े-उखड़े से
मिलते है
कालोनी के लोग।
है औपचारिक
सी बातें।
हमदर्दी पर
निष्ठुर घातें।।
उनका मिलना
अक्सर लगता
महज एक संयोग।
अविनाश के नवगीतों का वैशिष्ट्य जमीनी सच से जुड़ाव, सम्यक शब्द-चयन और वैचारिक स्पष्टता है। क्रमश: परिपक्व होती यह कलम नवगीतों को एक नए आयाम से समृद्ध करने का माद्दा रखती है।
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१,
ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४
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