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रविवार, 27 मार्च 2016

navgeet

नवगीत
*
ताप धरा का 
बढ़ा चैत में 
या तुम रूठीं?
लू-लपटों में बन अमराई राहत देतीं। 
कभी दर्प की उच्च इमारत तपतीं-दहतीं।
बाहों में आ, चाहों ने हारना न सीखा-
पगडंडी बन, राजमार्ग से जुड़-मिल जीतीं।
ठंडाई, लस्सी, अमरस 
ठंडा खस-पर्दा-
बहा पसीना 
हुई घमौरी 
निंदिया टूटी।
*
सावन भावन 
रक्षाबंधन 
साड़ी-चूड़ी।
पावस की मनहर फुहार  मुस्काई-झूमी।
लीक तोड़कर कदम-दर-कदम मंजिल चूमी।
ध्वजा तिरंगी फहर हँस पड़ी आँचल बनकर- 
नागपंचमी, कृष्ण-अष्टमी सोहर-कजरी।
पूनम-एकादशी उपासी 
कथा कही-सुन-
नव पीढ़ी में 
संस्कार की
कोंपल फूटी। 
*
अन्नपूर्णा!
शक्ति-भक्ति-रति 
नेह-नर्मदा।
किया मकां को घर, घरनी कण-कण में पैठीं।
नवदुर्गा, दशहरा पुजीं लेकिन कब ऐंठीं?
धान्या, रूपा, रमा, प्रकृति कल्याणकारिणी-
सूत्रधारिणी सदा रहीं छोटी या जेठी। 
शीत-प्रीत, संगीत ऊष्णता 
श्वासों की तुम- 
सुजला-सुफला 
हर्षदायिनी 
तुम्हीं वर्मदा।
*
जननी, भगिनी 
बहिन, भार्या 
सुता नवेली।
चाची, मामी, फूफी, मौसी, सखी-सहेली।
भौजी, सासू, साली, सरहज छवि अलबेली-
गति-यति, रस-जस,लास-रास नातों की सरगम-
स्वप्न अकेला नहीं, नहीं है आस अकेली। 
रुदन, रोष, उल्लास, हास, 
परिहास,लाड़ नव- 
संग तुम्हारे 
हुई जिंदगी ही
अठखेली।
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