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बुधवार, 9 मार्च 2016

samiksha

पुस्तक सलिला:
कोई रोता है मेरे भीतर : तब कहता कविता व्याकुल होकर 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[पुस्तक विवरण- कोई रोता है मेरे भीतर, कविता संग्रह, आलोक वर्मा,  वर्ष २०१५, ISBN ९७८-९३-८५९४२-०७-५ आकार डिमाई, आवरण, बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १२०, मूल्य १००/-, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७ सेक्टर ९, पथ ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क ७१ विवेकानंद नगर, रायपुर ४९२००१, ९८२६६ ७४६१४, lokdhvani@gmail.com]
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कविता और ज़िन्दगी का नाता सूरज और धूप का सा है सूरज ऊगे या डूबे, धूप साथ होती है इसी तरह मनुष्य का मन सुख अनुभव करे या दुख अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से हो होती है मनुष्येतर पशु-पक्षी भी अपनी अनुभूतियों को ध्वनि के माध्यम से व्यक्त करते हैं ऐसी ही एक ध्वनि आदिकवि वाल्मीकि की प्रथम काव्याभिव्यक्ति का कारण बनी कहा जाता हैं ग़ज़ल की उत्पत्ति भी हिरणी के आर्तनाद से हुई आलोक जी के मन का क्रौंच पक्षी या हिरण जब-जब आदमी को त्रस्त होते देखता है, जब-जब विसंगतियों से दो-चार होता है, विडम्बनाओं को पुरअसर होते देखता तब-तब अपनी संवेदना को शब्द में ढाल कर प्रस्तुत कर देता है 

कोई रोता है मेरे भीतर ५८ वर्षीय कवि आलोक वर्मा की ६१ यथार्थपरक कविताओं का पठनीय संग्रह है इन कविताओं का वैशिष्ट्य परिवेश को मूर्तित कर पाना है पाठक जैसे-जैसे कविता पढ़ता जाता है उसके मानस में संबंधित व्यक्ति, परिस्थिति और परिवेश अंकित होता जाता है पाठक कवि की अभिव्यक्ति से जुड़ पाता है। 'लोग देखेंगे' शीर्षक कविता में कवि परोक्षत: इंगित करता है की वह कविता को कहाँ से ग्रहण करता है- 

शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास 
जब हम भाग रहे होंगे सड़कों पर / और लिखी नहीं जाएगी 
शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास 
जब हमारे हाथों में / दोस्त का हाथ होगा 
या हम अकेले / तेज बुखार में तप रहे होंगे / और लिखी नहीं जाएगी 

दैनंदिन जीवन की सामान्य सी प्रतीत होती परिस्थितियाँ, घटनाएँ और व्यक्ति ही आलोक जी की कविताओं का उत्स हैं इसलिए इन कविताओं में आम आदमी का जीवन स्पंदित होता है अनवर मियाँ, बस्तर २०१०, फुटपाथ पर, हम साधारण, यह इस पृथ्वी का नन्हा है आदि कविताओं में यह आदमी विविध स्थितियों से दो-चार होता पर अपनी आशा नहीं छोड़ता। यह आशा उसे मौत के मुँह में भी जिन्दा रहने, लड़ने और जितने का हौसला देती है। 'सब ठीक हो जायेगा' शीर्षक कविता आम भारतीय को शब्दित करती है -
सुदूर अबूझमाड़ का / अनपढ़ गरीब बूढ़ा 
बैठा अकेला महुआ के घने पेड़ के नीचे 
बुदबुदाता है धीरे-धीरे / सब ठीक हो जायेगा एक दिन 
यह आशा काम ढूंढने शहर के अँधेरे फुथपाथ पर भटके, अस्पताल में कराहे या झुग्गी में पिटे, कैसा भी भयावह समय हो कभी नहीं मरती। 

समाज में जो घटता है उस देखता-भोगता तो हर शख्स है पर हर शख्स कवि नहीं हो सकता। कवि होने के लिए आँख और कान होना मात्र पर्याप्त नहीं। उनका खुला होना जरूरी है- 
जिनके पास खुली आँखें हैं / और जो वाकई देखते हैं.... 
... जिनके पास कान हैं / और जो  वाकई सुनते हैं 
सिर्फ वे ही सुन सकते हैं / इस अथाह घुप्प अँधेरे में 
अनवरत उभरती-डूबती / यह रोने की आर्त पुकार।

'एक कप चाय' को हर आदमी जीता है पर कविता में ढाल नहीं पाता- 
अक्सर सुबह तुम नींद में डूबी होगी / और मैं बनाऊंगा चाय 
सुनते ही मेरी आवाज़ / उठोगी तुम मुस्कुराते हुए 
देखते ही चाय कहोगी / 'फिर बना दी चाय' 
करते कुछ बातें / हम लेंगे धीरे-धीरे / चाय की चुस्कियाँ 
घुला रहेगा प्रेम सदा / इस जीवन में इसी तरह 
दूध में शक्कर सा / और छिपा रहेगा 
फिर झलकेगा अनायास कभी भी 
धूमकेतु सा चमकते और मुझे जिलाते 
कि तुम्हें देखने मुस्कुराते / मैं बनाना चाहूँगा / ज़िंदगी भर यह चाय 
यूं देखे तो / कुछ भी नहीं है 
पर सोचें तो / बहुत कुछ है / यह एक कप चाय 

अनुभूति को पकड़ने और अभिव्यक्त करने की यह सादगी, सरलता, अकृत्रिमता और अपनापन आलोक जी की कविताओं की पहचान हैं इन्हें पढ़ना मात्र पर्याप्त नहीं है। इनमें डूबना पाठक को जिए क्षणों को जीना सिखाता है। जीकर भी न जिए गए क्षणों को उद्घाटित कर फिर जीने की लालसा उत्पन्न करती ये कवितायें संवेदनशील मनुष्य की प्रतीति करती है जो आज के अस्त-वस्त-संत्रस्त यांत्रिक-भौतिक युग की पहली जरूरत है
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-समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 

1 टिप्पणी:

AMIT GORDHANDAS DAVE ने कहा…

Divy narmafaka patrikaka co.no.dijiye.narmada kinare aaye free Aashramka co.no. dijiye.please