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शुक्रवार, 4 मार्च 2016

navgeet

नवगीत 
तू 
*
पल-दिन, 
माह-बरस बीते पर
तू न 
पुरानी लगी कभी 
पहली बार 
लगी चिर-परिचित 
अब लगती  
है निपट नई 
*
खुद को नहीं समझ पाया पर 
लगता तुझे जानता हूँ  
अपने मन की कम सुनता पर 
तेरी अधिक मानता हूँ 
मन को मन से 
प्रीति पली जो 
कम न 
सुहानी हुई कभी 
*
कनखी-चितवन 
मुस्कानों ने 
कब-कब 
क्या संदेश दिए? 
प्राण प्रवासी 
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि  
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र 
जीवन का 
सच, न 
कहानी हुई कभी 
***

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