यूँ तो तेरी गली से , मैं बार बार गुज़रा
लेकिन हूँ जब भी गुज़रा ,मैं सोगवार गुज़रा
तुमको यकीं न होगा ,गर दाग़-ए-दिल दिखाऊँ
राहे-ए-तलब में कितना ,गर्द-ओ-गुबार गुज़रा
आते नहीं हो अब तुम ,क्या हो गया है तुमको
क्या कह गया हूँ ऐसा ,जो नागवार गुज़रा
दामन बचा बचा कर ,मेरे मकां से बच कर
राह-ए-वफ़ा से हट कर ,मेरा निगार गुज़रा
मैं चाहता था कितना तुझको ख़बर न होगी
राह-ए-वफ़ा से तेरा सजदागुज़ार गुज़रा
सारे गुनाह मेरे हैं साथ साथ चलते
दैर-ओ-हरम के आगे ,मैं शरमसार गुज़रा
रिश्तों की वो तिज़ारत करता नहीं था,’आनन’
मेरी तरह से वो भी था गुनहगार गुज़रा
-आनन्द पाठक-
09413395592
राह-ए-तलब = प्रेम के मार्ग में
1 टिप्पणी:
गजल पढ़कर आनंद मिल. आभार
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