मुक्तिका:
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जब भी होती है हव्वा बेघर
आदम रोता है मेरे भीतर
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आरक्षण की फाँस बनी बंदूक
जले घोंसले, मरे विवश तीतर
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बगुले तालाबों को दे धाढ़स
मार रहे मछली घुसकर भीतर
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नहीं चेतना-चिंतन संसद में
बजट निचोड़े खूं थोपे जब कर
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खुद के हाथ तमाचा गालों पर
मार रहे जनतंत्र अश्रु से तर
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पीड़ा-लाश सियासत का औज़ार
शांति-कपोतों के कतरें नित पर
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भक्षक के पहरे पर रक्षक दीन
तक्षक कुंडली मार बना अफसर
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