एक और मुक्तिका:
माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई
संजीव 'सलिल'
*
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई.
अब न पहले सी यह ज़िंदगी रह गई..
मन ने रोका बहुत, तन ने टोका बहुत.
आस खो, आँख में पुरनमी रह गई..
दिल की धड़कन बढ़ी, दिल की धड़कन थमी.
दिल पे बिजली गिरी कि गिरी रह गई..
साँस जो थम गई तो थमी रह गई.
आँख जो मुंद गई तो मुंदी रह गई..
मौन वाणी हुई, मौन ही रह गई.
फिर कहर में कसर कौन सी रह गई?.
दीप पल में बुझे, शीश पल में झुके.
ज़िन्दगी बिन कहे अनकही कह गई..
माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई..
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 20 सितंबर 2010
एक और मुक्तिका: माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई संजीव 'सलिल'
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7 टिप्पणियां:
वाह ! ख़ूबसूरत ग़ज़ल .....
//माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई...//
आचार्य जी, दिल भर आया ये पंक्तियाँ पढ़कर ! स्वर्गीय माँ आज बहुत ही शिद्दत से याद आई !
सलिल जी पुनः आपने एक खुबसूरत शे'र कही है| एक बार फिर मन बिना कुछ पूछे वाह वाह कह गया|
माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई..
बहुत खूब , क्या शब्दों की जादूगरी दिखाई है आपने, बहुत खूब , साथ ही एक ग़ज़ल मे ४ बार मतला और २ बार गिरह, कुछ अलग सी है |
bahot badhiya
१०० फीसदी सफल है ,
शुक्र है ऊपरवाले और ऊपर वाले के समीप जा पहुँची माँ का जिनके आशीर्वाद से बात कुछ बन गयी.
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