जन्माष्टमी पर कुण्डलियाँ:
बजे बाँसुरी कृष्ण की
संजीव 'सलिल'
*
*
बजे बाँसुरी कृष्ण की, हर तन-मन की पीर.
'सलिल' आपको कर सके, सबसे बड़ा अमीर..
सबसे बड़ा अमीर, फकीरी मन को भाए.
पिज्जा-आइसक्रीम फेंक, दधि-माखन खाए.
पद-धन का मद मिटे, न पनपे वृत्ति आसुरी.
'सलिल' जगत में पुनः कृष्ण की बजे बाँसुरी..
*
बजे बाँसुरी कृष्ण की, कटें न जंगल-वृक्ष.
गोवर्धन गिरि ना खुदे, बचे न कंस सुदक्ष..
बचे न कंस सुदक्ष, पूतनाएँ दण्डित हों.
कौरव सत्तासीन न, महिमा से मंडित हों.
कहे 'सलिल' कविराय, न यमुना पाये त्रास री.
लहर-लहर लहराए, कृष्ण की बजे बाँसुरी..
*
बजे बाँसुरी कृष्ण की, यमुना-तट हो रास.
गोप-गोपियों के मिटें, पल में सारे त्रास.
पल में सारे त्रास, संगठित होकर जूझें.
कौन पहेली जिसका हल वे संग न बूझें..
कहे 'सलिल' कवि, तजें न मुश्किल में प्रयास री.
मंजिल चूमे कदम, कृष्ण की बजे बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, दुर्योधन हैरान.
कैसे यह सच-झूठ को लेता है पहचान?
लेता है पहचान, कौन दोषी-निर्दोषी?
लालच सके न व्याप, वृत्ति है चिर संतोषी..
राजमहल तज विदुर-कुटी में खाए शाक री.
द्रुपदसुता जी गयी, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, हुए पितामह मौन.
तोड़ शपथ ले शस्त्र यह दौड़ा आता कौन?
दौड़ा आता कौन, भक्त का बन संरक्षक.
हर विसंगति हर बुराई का है यह भक्षक.
साध कनिष्ठा घुमा रहा है तीव्र चाक री.
समयचक्र थम गया, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की,आशाओं को सींच.
पांडव वंशज सुरक्षित, आया दुनिया बीच..
आया दुनिया बीच, अबोले कृष्ण रहे कह.
चलो समेटो जाल, लिखेगा नई कथा यह..
सुरा-मोह ने किया यादवी कुल-विनाश री.
तीर चरण में लगा, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, कुल-वधु लूटें भील.
निबल धनञ्जय रो रहे, हँसते कौए-चील..
हँसते कौए-चील, गया है हार धनञ्जय.
कहीं न दिखते विदुर, कर्ण, धृतराष्ट्र, न संजय..
हिमगिरि जाते पथिक काल भी भरे आह री.
प्रगट हुआ कलिकाल, कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
बजी बाँसुरी कृष्ण की, सूरदास बेचैन.
मीरा ने पाया नहीं, पल भर भी सुख-चैन..
पल भर भी सुख-चैन न जब तक उसको देखें.
आज न ऐसा कोई कथा हम जिसकी लेखें.
रुक्मी कौरव कंस कर्ण भी हैं उदास री.
कौन सुने कब-कहाँ कृष्ण की बजी बाँसुरी..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 2 सितंबर 2010
जन्माष्टमी पर कुण्डलियाँ: बजे बाँसुरी कृष्ण की: --संजीव 'सलिल'
चिप्पियाँ Labels:
-Acharya Sanjiv Verma 'Salil',
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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4 टिप्पणियां:
आ० आचार्य जी,
सभी कुण्डलियाँ सराहनीय | जन्माष्टमी की बधाई !
कमल
आदरणीय आचार्य सलिल ,
आपकी कुण्डलिया पढीं, बहुत ही आनंद आया |
कृष्ण मेरे आराध्य हैं , उनसे सम्बंधित कुछ भी मुझे बहुत ही लुभावना लगता है |
आपको अतिशय धन्यबाद ||
लेकिन एक जगह मैं अटक गया :
"बजी बाँसुरी कृष्ण की, कुल-वधु लूटें भील.
निबल धनञ्जय रो रहे, हँसते कौए-चील..
हँसते कौए-चील, गया है हार धनञ्जय.
कहीं न दिखते विदुर, कर्ण, धृतराष्ट्र, न संजय..
हिमगिरि जाते पथिक काल भी भरे आह री.
प्रगट हुआ कलिकाल, कृष्ण की बजी बाँसुरी..|
इन पन्तियों का आशय नहीं समझ सका हूँ |
Your's ,
Achal Verma
आत्मीय!
वन्दे मातरम.
श्री कृष्ण की बाँसुरी अनाहद नाद गुँजाती है जिससे सकल सृष्टि प्रगट होकर अंततः उसी में विलीन भी हो जाती है. यादवों को सुरापान से रोकने के समस्त प्रयास असफल होने पर कृष्ण विराग भाव से बाँसुरी वादन करते हैं और बहेलिये के माध्यम से इहलोक का त्याग करते हैं. यह पूर्व की कुण्डली में है. कृष्ण (परमात्मा) से दूर होते ही कुलवधुओं (आत्मा) को भील (सांसारिक प्रपंच) लूट लेते हैं. निर्बल धनञ्जय (वैराग) रुदन कर रहा है. उसे परस्त देखकर चील-कौए (राग) प्रसन्न हो रहे हैं. परमात्मा से दूर होने के कारण वहाँ समदर्शी विदुर , मित्रमोही कर्ण, पुत्रमोही धृतराष्ट्र, तटस्थ द्रष्टा संजय अर्थात शुभ-अशुभ कुछ भी शेष नहीं रह पाता. कृष्ण (परमात्मा) नहीं तो उनके सखा पञ्च देवताओं (परमात्मा के अंश) के अंश भी परमात्मा को पाने के लिये सब तजकर हिमालय की ओर चल देते हैं. यह देखकर समय स्वयं को आह भरने से रोक नहीं पाता. सांसारिक घटनाक्रम से अप्रभावित बाँसुरी बजती रहती है.
Pratibha Saksena
ekavita
विवरण दिखाएँ १२:२२ पूर्वाह्न (6 मिनट पहले)
आचार्य जी ,
रचना का भाव और उसका सार तत्व जान कर धन्य हुई !
बाँसुरी की व्याप्ति को चराचर में अनुभव करनेवाले ,आप में निहित तत्व ज्ञानी, को प्रणाम करती हूँ .
सादर ,
प्रतिभा.
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