कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 31 जनवरी 2019

कविता। पानी

कविता
पानी
*
देखकर
मनुष्य की करनी
हो रही है मनुष्यता
पानी-पानी।
विस्मित है विधाता
कहाँ गया
इसकी आँखों का पानी।
कहीं अतिवृष्टि
कहीं अनावृष्टि
प्रकृति
दिला रही याद
छठी का दूध।
पानी पी-पीकर
कोस रहा इंसान
नियति को
ईश्वर को
एक-दूसरे को।
समझकर भी
नहीं चाहता समझना
कि उसकी हरकतों से
नाराज कुदरत
मार रही है उसे
पिला-पिलाकर पानी।
***

कोई टिप्पणी नहीं: