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बुधवार, 2 जनवरी 2019

जैनेन्द्र

स्मरणांजलि:
हिंदी उपन्यास जगत में विराग में राग के शोधक जैनेन्द्र   
संजीव 
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हिंदी के अनूठे उपन्यासकार (जन्म २ जनवरी १९०५, कौडियागंज अलीगढ़ - निधन २४ दिसंबर१९८८) उनके बचपन का नाम आनंदीलाल  था। इनकी मुख्य देन उपन्यास तथा कहानी है। एक साहित्य विचारक के रूप में भी इनका स्थान मान्य है। इनके जन्म के दो वर्ष पश्चात इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता एवं मामा ने ही इनका पालन-पोषण किया। इनके मामा ने हस्तिनापुर में एक गुरुकुल की स्थापना की थी। वहीं जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई। उनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ। उनका घर का नाम आनंदी लाल था। सन १९१२ में उन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। प्राइवेट रूप से मैट्रिक परीक्षा में बैठने की तैयारी के लिए वह बिजनौर आ गए। १९१९ में उन्होंने यह परीक्षा बिजनौर से न देकर पंजाब से उत्तीर्ण की। जैनेंद्र की उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई।  १९२० से स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों में भाग लेना प्रारंभ किया। १९२१ में उन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के उद्देश्य से दिल्ली आ गए। कुछ समय के लिए ये लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे, परंतु अंत में उसे भी छोड़ दिया।
सन १९२१ से २३ के बीच जैनेंद्र ने अपनी माता की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली। परंतु सन २३ में वे नागपुर चले गए और वहाँ राजनीतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे। उसी वर्ष ये झंडा सत्याग्रह में गिरफ्तार होकर तीन माह के बाद छूटे। दिल्ली लौटने पर इन्होंने व्यापार से अपने को अलग कर लिया। जीविका की खोज में ये कलकत्ते भी गए, परंतु वहाँ से भी इन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लेखन कार्य आरंभ किया।  देश जाग उठा था' शीर्षक से लिखा लेख 'देवी अहिंसे' नाम से चर्चित हुआ। १९२९ में प्रथम कहानी संग्रह 'फांसी' और प्रथम उपन्यास 'परख' प्रकाशित । १९४६ में राजनीतिक सक्रियता से विराग एवं सर्वतोभावेन लेखन व चिंतन को समर्पित । साहित्य अकादेमी की स्थापना (१९५४) पर पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी प्रथम उच्चस्तरीय समिति में शामिल किए गए। 
जैनेन्द्र की प्रमुख कृतियाँ निम्न हैं- उपन्यासः 'परख' (१९२९), 'सुनीता' (१९३५), 'त्यागपत्र' (१९३७), 'कल्याणी' (१९३९), 'विवर्त' (१९५३), 'सुखदा' (१९५३), 'व्यतीत' (१९५३) तथा 'जयवर्धन' (१९५६)। कहानी संग्रहः 'फाँसी' (१९२९), 'वातायन' (१९३०), 'नीलम देश की राजकन्या' (१९३३), 'एक रात' (१९३४), 'दो चिड़ियाँ' (१९३५), 'पाजेब' (१९४२), 'जयसंधि' (१९४९) तथा 'जैनेंद्र की कहानियाँ' (सात भाग)।निबंध संग्रहः 'प्रस्तुत प्रश्न' (१९३६), 'जड़ की बात' (१९४५), 'पूर्वोदय' (१९५१), 'साहित्य का श्रेय और प्रेय' (१९५३), 'मंथन' (१९५३), 'सोच विचार' (१९५३), 'काम, प्रेम और परिवार' (१९५३), तथा 'ये और वे' (१९५४)। अनूदित ग्रंथः 'मंदालिनी' (नाटक-१९३५), 'प्रेम में भगवान' (कहानी संग्रह-१९३७), तथा 'पाप और प्रकाश' (नाटक-१९५३)। सह लेखनः 'तपोभूमि' (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ-१९३२)। संपादित ग्रंथः 'साहित्य चयन' (निबंध संग्रह-१९५१) तथा 'विचारवल्लरी' (निबंध संग्रह-१९५२)। (सहायक ग्रंथ- जैनेंद्र- साहित्य और समीक्षाः रामरतन भटनागर।), मुक्तिबोध, अनाम स्वामी, दशार्क (उपन्यास) ; अपना-जपना भाग्य, नीलम देश की राजकन्या, जाह्नवी, साधु की हठ, अभागे लोग, दो सहेलियां, महामहिम (कहानी-संग्रह); समय और हम, समय समस्या और सिद्धांत, काम प्रेम और परिवार, पूर्वोदय, मंथन, साहित्य का श्रेय और प्रेय, वृत्त विहार (निबंध व विचार संग्रह); राष्ट्र और राज्य, कहानी-आनुभव और शिल्प, बंगला देश का यक्ष प्रश्न, इतस्तत: (ललित निबंध व संस्मरण); मेरे भटकाव, स्मृति पर्व, कश्मीर की वह यात्रा, विहंगावलोकन (अन्यान्य निंबध) आदि। 
'मुक्तिबोध' उपन्यास पर साहित्य अकादेमी सम्मान ( १९६८) । १९७१ में भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण  । साहित्य अकादेमी की 'महत्तर सदस्यता' तथा 'अणुव्रत सम्मान' से विभूषित (१९८२) । १९८४ में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान 'भारत भारती' से सम्मानित। 
जैनेन्द्र हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक हैं। वे  अपने पात्रों की सामान्य गति में नियति के सूक्ष्म संकेतों को कुशलता से प्रस्तुत करते हैं। उनके उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं। जैनेन्द्र अपने पथ के अनूठे अन्वेषक थे। उन्होंने प्रेमचन्द के सामाजिक यथार्थ के मार्ग को नहीं अपनाया, जो उस  समय का राजमार्ग था। वे प्रेमचन्द के विलोम नहीं प्रेरक थे। प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को साथ-साथ रखकर ही जीवन और इतिहास को उसकी समग्रता के साथ समझा जा सकता है। जैनेन्द्र का सबसे बड़ा योगदान हिन्दी गद्य के निर्माण में था। भाषा के स्तर पर जैनेन्द्र की प्रयोगपरकता ने हिन्दी को तराशने का अभूतपूर्व काम किया। जैनेन्द्र के गद्य की पीठिका पर अज्ञेय का गद्य आकारित हुआ। हिन्दी कहानी ने प्रयोगशीलता का पहला पाठ जैनेन्द्र से ही सीखा। जैनेन्द्र ने हिन्दी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया `सिंटेक्स' दिया। आज के हिन्दी गद्य पर जैनेन्द्र की अमिट छाप है।--रवींद्र कालिया 
जैनेंद्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और आध्यात्मिक तत्वों के समावेश से दुरूहता आई है परंतु ये सारे तत्व जहाँ-जहाँ भी उपन्यासों में समाविष्ट हुए हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर का सृजन प्रतीत होते हैं। जैनेंद्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों से अप्रभावित और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित होकर प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार करते हैं। इसीलिए जैनेंद्र के उपन्यासों में चरित्रों की भरमार न होकर पात्रों की अल्पसंख्या के कारण वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता है।
क्रांतिकारिता तथा आतंकवादिता के आदर्शवादी तत्व जैनेंद्र के उपन्यासों के महत्वपूर्ण आधार है। उनके सभी उपन्यासों में प्रमुख पुरुष पात्र सशक्त क्रांति में आस्था रखते हैं। बाह्य स्वभाव, रुचि और व्यवहार में एक प्रकार की कोमलता और भीरुता की भावना लिए होकर भी ये अपने अंतर में महान विध्वंसक होते हैं। उनका यह विध्वंसकारी व्यक्तित्व नारी की प्रेमविषयक अस्वीकृतियों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप निर्मित होता है। वे नारी का यत्किंचित आश्रय, सहानुभूति या प्रेम पाते ही टूटकर गिर पड़ते हैं , उनका बाह्य स्वभाव कोमल बन जाता है। जैनेंद्र के नारी पात्र प्रायः उपन्यास में प्रधानता लिए हुए होते हैं। उपन्यासकार ने अपने नारी पात्रों के चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। स्त्री के विविध रूपों, उसकी क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का विश्वसनीय अंकन जैनेंद्र कर सके हैं। 'सुनीता', 'त्यागपत्र' तथा 'सुखदा' आदि उपन्यासों में ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब उनके नारी चरित्र भीषण मानसिक संघर्ष की स्थिति से गुज़रे हैं। नारी और पुरुष की अपूर्णता तथा अंतर्निर्भरता की भावना इस संघर्ष का मूल आधार है। वह अपने प्रति पुरुष के आकर्षण को समझती है, समर्पण के लिए प्रस्तुत रहती है और पूरक भावना की इस क्षमता से आल्हादित होती है, साथ ही पुरुष में इस आकर्षण मोह का अभाव देखकर क्षुब्ध-व्यथित होती है। पुरुष से कठोरता की अपेक्षा के समय विनम्रता पाना भी उसे असह्य हो जाता है। जैनेन्द्र को पढ़े बिना हिंदी साहित्य संसार का यथार्थ परिचय नहीं पाया जा सकता। 
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