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''सडक़ पर'' नवगीत संग्रह, गीतकार-आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल '
संतोष शुक्ल
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आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल ' जी का नाम नवीन छंदों के निर्माण तथा उनपर गहनता से कये गए कार्यों के लिए प्रबुद्ध जगत में बड़े गौरव से लिया जाता है। माँ भारती के वरदपुत्र आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल 'जी को अथस्रोतञान का भण्डार मानो उन्हें विरासत में मिला हो। स्वयं आचार्य सलिल जी अपनी बुआश्री महादेवी वर्मा और अपनी माँ कवियत्री शांति देवी को साहित्य और भाषा के प्रति अटूट स्नेह का प्रेरणा श्रोत मानते हैं। जिनकी रग-रग में संस्कारों के बीज बचपन से ही अंकुरित, प्रस्फुटित और पल्लवित हुए हों उनकी प्रतिभा का आकलन करना सरल काम नहीं।
सलिल जी आभासी जगत में भी अपनी निरंतर साहित्यिक उपलब्धियों से साहित्य प्रमियों को लाभान्वित कर रहे हैं। अभियंता और अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी की कोई भी विधा नहीं है जिस पर आचार्य जी ने गहनता से कार्य न किया हो। रस, अलंकार और छंद का गहन ज्ञान उनकी कृतियों में स्पष्ट दिखाई देता है। विषय वस्तु की दृष्टि से कोई विषय उनकी लेखनी से बचा नहीं है। रचनाओं पर उनकी पकड़ गहरी है। हर क्षेत्र का अनुभव उसी रूप में बोलता है जिससे पाठक और श्रोता उसी परिवेश में पहुंच जाता है। हिन्दी के साथ साथ बुन्देली, पचेली, भोजपुरी, ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी तथा अंग्रेजी भाषा में भी आपने लेखन कार्य किया है।
उनकी पूर्व प्रकाशित नवगीत कृति 'काल है संक्रांति की 'उद्भट समीक्षकों द्वारा की गई समीक्षाओं को पढ़कर ही पता चलता है कि आचार्य सलिल जी ज्ञान के अक्षय भण्डार हैं अनन्त सागर हैं। आचार्य सलिल जी की सद्य प्रकाशित 'सड़क पर' मैंने अभी-अभी पढ़ी है। 'सड़क पर' नवगीत संग्रह में गीतकार सलिल जी ने देश में हो रहे राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से दर्शाया है। उनके नवगीतों में भाग्य के सहारे न रहकर परिश्रम द्वारा लक्ष्य प्राप्त करने पर सदैव जोर दिया है।छोटे छोटे शब्दों द्वारा बड़े बड़े संदेश दिये हैं और चेतावनी भी दी है। कहीं अभावग्रसित होने के कारण तो कहीं अत्याधुनिक होने पर प्यार की खरीद फरोख्त को भी उन्होंने सृजन में उकेरा है।आजकल शादी कम और तलाक ज्यादा होते हैं, यह भी आधुनिकता का एक चोला है।
इसके अतिरिक्त सलिल जी ने एक और डाइवोर्स की बात लिखी है-
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है।
आगे भी-
मलिन बिंब देख -देख
मन दर्पण
चटका है
आजकल बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता। सलिल जी के शब्दों में-
पद -मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है ।
पाश्चात्य के प्रभाव में लोगों को ग्रसित देख गीतकार का हृदय व्यथित है-
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है
मानो लगी होड़
कौन कितना सकता है छोड़।
प्रभाव के कारण ही लोग अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में असहाय छोड़ कर अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते हैं। अपने पुराने स्वास्थ्य वर्धक खान-पान को भूलकर हानिकारक चीजों को शौक से खाते हैं। एक शब्द-चित्र देखिए-
ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है।
अब
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है
इसी क्रम में-
नाक बहा,टाई बाँध
अंग्रेजी बोलेंगे
कब कान्हा गोकुल में
शायद ही डोलेंगे।
आजकल शिक्षा बहुत मँहगी हो गई है।उच्च शिक्षा प्राप्त युवक नौकरी की तलाश इधर- उधर भटकते हैं। बढ़ती बेरोजगारी पर भी आचार्य जी ने चिंता व्यक्त की है।शायद ही कोई ऐसा विषय है जिस पर सलिल जी की पैनी दृष्टि न पड़ी हो।
आचार्य जी के नवगीतों के केंद्र में श्रमजीवी श्रमिक है। चाहे वह खेतों में काम करनेवाला किसान हो,फैक्ट्रियों में काम करनेवाला श्रमिक या दिनभर पसीना बहाने वाला कोई मजदूर जो अथक परिश्रम के बाद भी उचित पारिश्रमिक नहीं पाता तो दूसरी ओर मिल मालिक, सेठों,सूदखोरों की तोंद बढ़ती रहती है। देखिए-
चूहा झाँक रहा हंडी में
लेकिन पाई
सिर्फ हताशा
यह भी देखने में आता है
जो नही हासिल
वही चाहिए
जितनी आँखें
उतने सपने
समाज के विभिन्न पहलुओं पर बड़ी बरीकी से कलम चलाई है। घर में काम वाली बाइयों, ऑफिस में सहकर्मियों तथा पास पड़ोस में रहने वाली महिलाओं के प्रति पुरुषों की कुदृष्टि को भी आपने पैनी कलम का शिकार बनाया है।
आज भले ही लगभग सभी क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित कर रही हैं फिर भी मध्यम और सामान्य वर्ग की महिलाओं की स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है। कार्यरत महिलाओं को दोहरी भूमिका निभाने के बाद भी ताने, प्रताड़ना और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
सलिल जी के शब्दों में-
मैंने पाए कर कमल,तुमने पाए हाथ
मेरा सर ऊँचा रहे झुके तुम्हारा माथ
सलिल जी ने नवगीतों में विसंगतियों को खूब उकेरा है।कुछ उदाहरण देखते हैं-
आँखें रहते सूर हो गए
जब हम खुद से दूर हो गए
मन की मछली तन की तितली
हाथ न आई पल में फिसली
जब तक कुर्सी तब तक ठाट
नाच जमूरा नाच मदारी
मँहगाई आई
दीवाली दीवाला है
नेता हैं अफसर हैं
पग-पग घोटाला है
आजादी के इतने वर्षों बाद भी गाँव और गरीबी का अभी भी बुरा हाल है लेकिन गीतकार का कहना है-
अब तक जो बीता सो बीता
अब न आस घट होगा रीता
मिल कर काटें तम की कारा
उजियारे के हों पौ बारा
बहुत झुकाया अब तक तूने
अब तो अपना भाल उठा
मनभावन सावन के माध्यम से जहाँ किसानों की खुशी का अंकन किया है वहीं बरसात में होने वाली समस्याओं को भी चित्रित किया है। आचार्य जी ने नये नये छंदों की रचना कर अभिनव प्रयोग किया है। सलिल जी ने नवगीतों में परिवेश की सजीवता बनाए रखने के लिए उन्होंने घरों में उपयोग में आने वाली वस्तुओं, रिश्तों के सम्बोधनों आदि का ही प्रयोग किया है। संचार क्रांति के आने से लोगों में कितना बदलाव आया है उसकी चिंता भी गीतकार को है-
हलो हाय मोबाइल ने
दिया न हाय गले मिलने
नातों को जीता छलने
आचार्य ' सलिल 'जी ने गीतों-नवगीतों में लयबद्धता पर विशेष जोर दिया है। लोकगीतों में गाये जाने वाले शब्दों, छंदों, अन्य भाषाओं के शब्दों, नये-नये बिंबों तथा प्रतीकों का निर्माण कर लोगों के लिए सड़क पर भी फुटपाथ बनाये हैं। जो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। 'सड़क पर' गीत नवगीत संग्रह में अनेकानेक छोटे-छोटे बिंदुओं को अंकित किया है, उन सब को इंगित करना असंभव है। सलिल जी ने ' सड़क पर ' गीत-नवगीत संग्रह में सड़क को केंद्र बिंदु बनाकर जीवन के अनेकानेक पहलुओं को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है-
सड़क पर जनम है
सड़क पर मरण है
सड़क पर शरम है
सड़क बेशरम है
सड़क पर सियासत
सड़क पर भजन है
सड़क सख्त लेकिन
सड़क ही नरम है
सड़क पर सड़क से
सड़क मिल रही है।
आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल 'जी ने अपनी सभी रचनाओं में माँ नर्मदा के वर्चस्व को सदा वर्णित किया है तथा 'सलिल' को अपनी रचनाओं में भी यथासंभव प्रयुक्त किया है। माँ नर्मदा के पावन निर्मल सलिल की तरह आचार्य 'सलिल 'जी भी सदा प्रवहमान हैं और सदा रहेंगे। उनकी इस कृति को पाठकों का भरपूर मान, सम्मान और प्यार मिलेगा ऐसा मेरा विश्वास है।
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