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बुधवार, 23 जनवरी 2019

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका
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हर संध्या संजीव हो, स्वप्नमयी हो रात।
आँख मिलाकर ज़िंदगी, करे प्रात से बात।।
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मंजूषा मन की रहे, स्नेह-सलिल भरपूर।
द्वेष न कर पाए कभी, सजग रहें आघात।।
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ऋतु बसंत की आ रही, झूम मंजरी शाख।
मधुरिम गीत सुना रही, दे कोयल को मात।।
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जब-जब मन उन्मन हुआ, तुम ही आईं याद।
सफल साधना दे गई, सपनों की सौगात।।
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तन्मय होकर रूप को, आराधा दिन-रैन।
तन तनहा ही रह गया. चुप अंतर्मन तात।।
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संजीव
२३.१.२०१९

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