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गुरुवार, 24 मई 2018

महाराणा प्रताप

“प्रताप! हमारे देश का प्रताप! हमारी जाति का प्रताप! दृढ़ता और उदारता का प्रताप! आज तू नहीं है लेकिन तेरा यश और कीर्ति है. जब तक यह देश है और जब तक संसार में दृढ़ता.उदारता, स्वतंत्रता और तपस्या का आदर है, तब तक हम ही नहीं, सारा संसार तुझे आदर की दृष्टि से देखेगा.” ---गणेश शंकर विद्यार्थी
प्रेरक प्रसंग, 
जिन्होंने कीका की प्रताप यात्रा को महाराणा तक पहुंचाया
- सुरेन्द्र सिंह पंवार
मेदपाट की गद्दी पर बैठने के पूर्व महाराणा प्रताप को ‘कीका’ नाम से संबोधित किया जाता था. मेवाड़ की पहाड़ी भीली-भाषा(बांगडी) में कीका, शब्द लाड़-प्यार में लड़के के लिए प्रयुक्त होता है.कीका से महाराणा प्रताप तक की यात्रा में बहुत-से प्रसंग है, जिन्हें प्रताप का पर्याय माना जाता है, कुछ हैं---
झुके न तुम प्रताप प्यारे---मेदपाट के सभी राजा “एकलिंग के दीवान” कहलाये.इसी क्रम में प्रताप ने भी एकलिंग शासन के प्रतिनिधि बनकर राज्य किया उनका सिर अपने राजा यानि एकलिंग को छोड़कर कभी किसी के सामने नहीं झुका. दिल्ली- दरबार में एक विरुदावली गायक भाट ने अपने सर पर बंधी पगड़ी हाथ में लेकर बादशाह अकबर को मुजरा(प्रणाम) किया. पगड़ी उतारने का कारण पूछे जाने पर उसने उत्तर दिया,-‘वह पगड़ी महाराणा प्रताप ने बाँधी थी, वह न झुके, महाराणा का मान बना रहे, इसलिए उतार ली.’ बादशाह, उत्तर सुनकर प्रसन्न हुआ परन्तु उसके दिल में एक कसक रह गई—
“सूर्य झुके, झुक गये कलाधर, झुके गगन के तारे.
अखिल विश्व के शीश झुके, पर झुके न तुम प्रताप प्यारे.
हल्दीघाटी रंगी खून ज्यों, नालो बहतो जाये-----हल्दीघाटी की पीली मिटटी चन्दन सदृश्य है, जहाँ मातृभूमि की रक्षा करते सुभक्तों ने अपना रक्त मिलाकर उसके रंग को और गहरा कर दिया है. महाराणा प्रताप की गौरव-गाथाओं से जुड़कर महातीर्थ बनी वह जड़-स्थली जन-जन में चेतना का संचार कर रही है. बकौल श्याम नारायण पांडे---
यह सम्मानित अधिराजों से,अर्चित है राज समाजों से.
इसके पदरज पौंछे जाते, भूपों के सर के ताजों से.
अकबरनामा में लिखा है कि, ‘हल्दीघाटी का मुख्य युध्द खामनौर में हुआ, उस रणक्षेत्र को रक्ततलाई के नाम से जाना जाता है. युध्द हुआ, 18 जून 1576 को वह भी मात्र 4 घंटे,’----किसी लोक कवि ने कहा है, “हल्दीघाटी रंगी खून ज्यों,नालो बहतो जावे.” बदायूँनी, जो उस युध्द क्षेत्र में मौजूद रहा के शब्दों में-‘यह सच है कि शाही पक्ष को बड़ी कठिनता से सफलता मिली थी जिसका श्रेय भी राजपूतों को जाता है.’इस घाटी के विषय में किंवदन्ती चली आ रही है कि मरे हुए सैनिक रात्रि की नीरवता में अब भी युध्द करते हैं और उनके मुँह से ‘मारो-काटो’ के भयद शब्द पहाड़ों के चक्कर खाते, टकराते, गूंजते हुये आकाश में विलीन हो जाते हैं. जौहर सूर पठानी का—हाकिम खां सूर,जो शेरशाह सूरी का वंशज था और महाराणा प्रताप की सेना का प्रधान सेनापति, ने युध्द के प्रारम्भ में महाराणा से प्रार्थना की कि,--“हे मेवाड़ी मालिक! मुझे और मेरे जान्वाज जवानों को को हरावल(अग्रिम पंक्ति) में लड़ने की इज्जत बक्शें. फिर देखें, यह मुसलमान पठान अपने कौल पर किस तरह मिटता है. जहाँ आपका पसीना गिरेगा, उस मिटटी को पठान अपने खून से लाल कर देगा.कसम उस खुदा की मरने पर ये पठान शमशीर नहीं छोड़ेगा.महाराणा जी, यह पठान जान हार सकता है परन्तु कौल नहीं.” महाराणा मुस्लिम विरोधी नहीं थे; उन्हें राष्ट्रीय एकात्मता और अखंडता में गहरा विश्वास रहा, उन्होंने हाकिम खां को युध्द की कमान सौंपी. उल्लेख्य है कि हल्दी घाटी के युध्द-यज्ञ में हाकिम खां पठान की पहली आहुति चढ़ी. मरने के बाद भी पठान सख्ती से तलवार की मूंठ थामे हुए था, जिसे छुड़ाने में असफल होने पर उसे तलवार सहित दफनाया गया.
नीला घोडा रा सवार—
घोड़े तो कई हैं, परन्तु चेतक सबसे भिन्न था. ‘वह कैसा था?’--- यह तो प्रताप के पर्यायवाची सम्बोधन “ओ नीला घोडा रा सवार” से ज्ञात हो जाता है, श्याम नारायण पांडे ने “हल्दीघाटी” महाकाव्य में चेतक का परिचय इस प्रकार दिया---
लड़ता था वह बाजि,लगाकर बाजी अपने प्राणों की.
करता था परवाह नहीं वह, भाला-बरछी-वाणों की.
लड़ते-लड़ते रख देता था,टाप कूद कर गैरों पर.
हो जाता था खड़ा कभी, अपने चंचल पैरों पर.
आगे-आगे बढ़ता था वह, भूल न पीछे मुड़ता था.
बाज नहीं,खगराज नहीं,पर आसमान में उड़ता था.
वाकयानवीस बदायूँनी लिखता है, “राणा एक नाले के निकट घाटी को पार कर पहुंच गया. लंगड़े घोड़े को नाला पार कराना कठिन था. उसका वहीं दम टूट गया और उसके प्राण-पखेरू उड़ गये.” हल्दी घाटी के युध्द में प्रताप के जीवन में दो अहम घटनाएँ घटीं- एक, बिछड़े भाई शक्ति सिंह का मिलन और दूसरी, स्वामी भक्त चेतक का निधन. विषम से विषमतर परिस्थितियों में भी न घबराने वाला महाराणा, चेतक के धराशाही होने पर फूट-फूट कर रोया था.
भुज उठाय प्रण कीन्ह—
महाराणा के चरित्र में जो बात सर्वाधिक आकर्षित करती है; वह है,स्वाधीनता-संघर्ष के लिए उनका भुजा उठाकर प्रण करना. चारण कहते हैं उदयपुर से 19 मील दूर गोंगुदा नामका स्थान पर सिंहासनारूढ होते समय महाराणा ने कसम खाई मैं तब तक संघर्ष करता रहूँगा जब तक सरे मेवाड़ को यवनों से मुक्त नहीं करा लूँगा.इस कृत्य में उन्होंने अपनी कुल रीति का अक्षरशः पालन किया जो कभी उनके पूर्वज भगवान श्रीराम ने इस धरा को “निश्चिर हीन” करने के लिए शपथ लेकर प्रारंभ किया था. प्रताप की इस सिंह-गर्जना का क्या असर हुआ? एक स्फुट रचना में देवी सिंह चौहान लिखते हैं-
प्रण किया जब तक मातृभूमि आजाद नहीं होगी.
उजड़े खण्डों की हर बस्ती,जब तक आजाद नहीं होगी.
तब तक जूझेंगे रण में बलिपथ पर बढ़ते जायेंगे.
दुश्मन की लाशों के टीलों पर निर्भय चढ़ते जायेंगे.
महलों का सुख,कोमल शैय्या. छोड़ भूमि पर सोयेंगे.
पत्तल पर सादा भोजन कर, दासत्व कालिमा धोंयेंगे.
राणा ने भुजा उठा ज्यों ही ऐसा ऐलान किया .
जनता के जय-जय कारों ने उसको वीरोचित मान दिया.
महाराणा ने अपने परिजनों सहित कठिन पर्वतीय जीवन जिया. काव्य में यमक का श्रेष्ठ उदाहरण-‘तीन बेर खाती थी सो तीन बेर खाती है’, उसी सिसोदिया कुल की रानियों की स्थिति पर केन्द्रित है. इतिहास गवाह है कि महाराणा ने एक-एक कर अपने हारे हुए सभी किले वापिस जीते, चित्तौडगढ और मान्दलगढ़ को छोड़कर. घास की रोटी का सच—राजस्थानी कवि कन्हैया लाल सेठिया की एक कविता का अंश है –
अरे घास की रोटी भी जद, बन बिलावडो ले भागो.
नानो सो अमरियो चीख पडियो,राणा रो सोयो दुःख जाग्यो. 
इस कल्पना की प्रधानता है. गोपाल सिंह राठौड़, ‘हमारे गौरव’ में लिखते हैं कि प्रताप का संघर्ष 1580 के आसपास चरम था.और कवि ने जिन परिस्थितियों का वर्णन किया है तब अमरसिंह 18-20 साल के युवा थे, और इतने बलिष्ट कि शेर को भी निहत्थे पछाड़ सकते थे. कवितांश केवल एक मिथक माना जाना चाहिए, जिसमें भावात्मक अतिरेक के सिवाय कुछ नहीं. ‘पीथल और पातल’ कविता के विस्तार में कवि सेठिया की कल्पना है कि तत्कालीन स्थितियों से घबरा कर महाराणा ने अकबर से समझौता का प्रस्ताव भेज दिया, परन्तु वह पत्र महराज
पृथ्वीराज(बीकानेर) के हाथ लग गया और उन्होंने समझौता-पत्र की पुष्टि के लिए दो सोरठ लिख भेजे—जिनका आशय रहा कि ‘हे वीर प्रताप! लिख भेजिए, यह सत्य नहीं है.अन्यथा की स्थिति में मैं अपनी मूंछों को ख़म कैसे दूंगा और तब यही होगा की मैं ग्रीवा पर खंग रखकर मौन सो जाऊँ.’ कहते है, महाराणा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उत्तर में तीन दोहे लिखे जिनमें मेवाड़ का स्वभिमान यथावत रहने/रखने का बचन दिया.
धरम रहसी रहसी धरा---
शेरपुर में कुँवर अमरसिंह ने खानखाना के शिविर पर अप्रत्याशित हमला कर मुगल टुकड़ी को तितर-बितर कर दिया और लूट के माल के साथ खंखानके परिवार को भी बंदी बनाकर ले गया.जब प्रताप को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने मिर्जा की बेगमों और बच्चों को ससम्मान वापिस भिजवा दिया.खानखाना महाराणा की इस उदारता एवं म्हणता से बड़ा प्रभावित हुआ और उनकी शान में यह दोहा पढ़ा—
धरम रहसी,रहसी धरा,खप जनि खुरसाण.
अमर विशम्भर ऊपरे,रख निहच्चो राण.
दानी भामाशाह –एक जनश्रुति है कि जब प्रताप भीषण संकट और आर्थिक अभावों से घबरा गये तो उन्होंने मेवाड़ छोड़कर सिंध जाने का मन बना लिया तब भामाशाह एक बड़ी धनराशी और अशर्फियाँ लेकर उपस्थित हुए, यह उनके परिजनों की संग्रहित सम्पत्ति थी. इसमें कितनी सच्चाई है? नहीं कहा जा सकता. हाँ! हल्दी घाटी के युध्द में भामाशाह के मौजूद होने का स्पष्ट उल्लेख तवारीखों में मिलता है. हल्दी घाटी युध्द के बाद जब प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए लम्बे समय तक कठिन छापामार लड़ाई लड़ने तथा मेवाड़ के सम्पूर्ण जन- जीवन,अर्थव्यवस्था तथा प्रशासनिक ढांचे को संचालित करने का निर्णय लिया उस समय भामाशाह को 1578 के लगभग पूर्व प्रधान राम महासाणी के स्थान पर दीवान का उत्तरदायित्व दिया.
भामो परधानो करे, रामो कीड़ो रद्द.
धरची बाहर करण नूं, मिलियो आय मरद्द.
महाराणा प्रताप व्दारा भामाशाह की नियुक्ति एक राजनैतिक सूझ-बूझ और कूटनीति थी. भामाशाह को दीवान बनाकर उनके माध्यम से देश के उस संपन्न धनिक वर्ग एवं पड़ोसी रियासतों से संपर्क साधा, जिसमें देशप्रेम का जज्बा था, जो
मेवाड़ के स्वतंत्रता अभियान में सहयोग करना चाहते थे परन्तु मुग़ल सल्तनत की सीधी नाराजी से डरते थे. जब महाराणा प्रताप छापामार कर मुग़ल ठिकानों को तबाह कर रहे थे तब भामाशाह, अमरसिंह को साथ लेकर सीमांत राज्यों और चौकियों पर प्रायोजित हमले कर यथेष्ट धन, सैन्य-बल और उनका भावनात्मक सहयोग बटोर रहे थे.
यायावर-लोहडिया—
महाराणा ने जब महलों का परित्याग किया तब लोहार जाति के हजारों लोगों ने भी उनका अनुगमन किया. वे प्रताप के साथ रहते हुए तलवार, भाले और तीर गढ़ते रहे ताकि मेवाड़ी सेना को हथियारों की कमी न पडे. और आवश्यकता होने पर छापामार युध्द का भी हिस्सा बने.चूंकि सुरक्षा की दृष्टि से महाराणा के ठिकाने बदलते रहे इसलिए लुहार/लोहाणा क्षत्रिय संवर्ग का भी स्थायी ठिकाना न रहा. वे आज भी यायावरी जीवन जीते हैं.
छापामार(गुरिल्ला)युध्द प्रणाली—
महाराणा प्रताप ने पर्वतीय जीवन में वहां की जन- जातियों को अपने विश्वास में लिया. उनकी युध्द प्रणाली सीखी,उन्हें अपनी सेना में महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे. प्रताप ने अपनी सेना को कई टुकड़ियों में विभाजित कर अलग-अलग स्थानों पर नियुक्त कर छापामार प्रणाली अपनाई.इसमें मुग़ल सेना से सीधा सामना नहीं किया जाता था.सैनिक टुकड़ी गुप्त स्थानों से निकलकर मुग़ल चौकियों पर यकायक हमला करती,सैनिकों को मरती,रसद ,शस्त्र आदि लूटकर तेजी से गायब हो जाती. प्रताप ने ‘जमीन-फूंको’ नीति( scorched earth policy) का अनुसरण किया.यानि जिस भूभाग पर मुग़ल आधिपत्य जमा लेते, वहां के लोग अपना मॉल-असबाब लेकर पर्वतों पर चले जाते, साथ ही कृषि आदि बर्वाद कर जाते,और कुछ भी उपयोगी सामग्री शत्रु के लिए नही छोड़ते. आज भारतीय सेना में छोड़ी हुई चौकियों के आस-पास आवागमन के साधन नष्ट करना और पानी के स्त्रोतों को विषेला कर देना उसी नीति का हिस्सा है.यही छापामार पध्दति
परवर्ती पीढ़ी के छत्रपति शिवाजी और बुंदेला छत्रसालने सीखी और सफलतापूर्वक प्रयोग की.------ महाराणा के आदर्शों पर चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने देश को आजादी दिलाई. वे सच्चे अर्थों में एक संस्कारित क्षत्रिय
थे—शौर्य, तेज, वीरता, उदारता जैसे गुणों से अभिषिक्त कालजयी योध्दा.
और चलते-चलते दो अल्पख्यात प्रताप-पुजारियों का उल्लेख करना सामयिक होगा -
एक,अमेरिकी राष्टपति अब्राहिम लिंकन की माँ,जिन्होंने लिंकन के तत्कालीन भारत प्रवास से लौटते हुए हल्दीघाटी की माटी मंगवाई थी.वे प्रताप की प्रजा वत्सलता और स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष जैसे गुणों से प्रभवित रहीं और उस मिटटी को माथे से लगाना चाहतीं थीं.दुसरे.जलगाँव के विद्याधर पानत (दैनिक सकल के संपादक)जो प्रताप साहिर थे,यानि उन्हें भाव(भाल)में महाराणा प्रताप आते थे.उन्होंने महाराष्ट्र और गोवा में एक करोड़ स्कूली बच्चों को महाराणा प्रताप की कथा सुनाने का संकल्प पूरा किया.


201,शास्त्री नगर गढ़ा,जबलपुर,म.प्र.
9300104296/7000 388 332
email--- pawarss2506@gmail.com

1 टिप्पणी:

Meena sharma ने कहा…

अत्यंत रोचक एवं जानकारीपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज सा लेख है। आभार।