कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 4 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी २ : बीनू भटनागर

आलेख:


२. छंद, छंद से मुक्ति और संगीत
बीनू भटनागर

परिचय: जन्म: १४.९.१९४७, बुलंदशहर (उ.प्र), शिक्षा: ऐम.ए. मनोविज्ञान, प्रकाशन: मैं सागर में एक बूँद सही (कविता संग्रह), झूठ बोले कौवा काटे (व्यंग्य संग्रह), I do not live in dreams( A poem collection), गागर में सागर(दोहा संग्रह), Meaning of your happiness, मैं, मैं हूँ, मैं, ही रहूँगी (कविता संग्रह), संप्रति स्वतंत्र लेखन।

संपर्क: binu.bhatnagar@gmail.com
*
हिंदी में आदिकाल से ही काव्य छंद में लिखने की प्रथा रही है। छंद के बाहर जाकर लिखना पद्य की श्रेणी में ही नहीं माना गया। हिंदी में पिंगल छंद शास्त्र सबसे पुराना ग्रंथ है। छंदों के नियम-बंधन से काव्य में लय और रंजकता की वृद्धि होती है किंतु छंद शास्त्र का विधिवत अध्ययन करना काव्य रचना हेतु अनिवार्य नहीं है। कबीर सदृश्य अधिकांश भक्तिकालीन कवि पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनकी पद्य रचनाएँ नियमों पर खरी हैं क्योंकि उनके मन में सुन-सुनकर लय बसी होती थी जिसमें वे शब्द पिरो देते थे। ऐसा भी नहीं है कि छंद-लेखन की जन्मना स्वाभाविक प्रतिभा न हो तो कोई छंद लिख ही न सके। गुरु के मार्गदर्शन में अभ्यास करने से छंद विधा में लिखना सीखा जा सकता है।
आदि काल (वीरगाथा काल) की अधिकतर रचनायें दोहों में हैं। ये दोहे कवियों ने अधिकतर अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा मे लिखे थे। भक्तिकाल में निर्गुण धारा के प्रमुख कवियों दादू, कबीर आदि ने सिखाने के लिए साखी (दोहों) का प्रयोग किया। गुरु नानक ने जिस 'सबद' के माध्यम से सिक्खी धर्म का प्रचार किया, वह दोहा ही है। सगुण भक्तिशाखा के कवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में दोहे-चौपाई के साथ कवित्त, छप्पय, सोरठा और कुण्डलिया छंद का भी प्रयोग किया। कृष्ण भक्त सूरदास, मीरा आदि ने पद-रचना की। रीति कालीन कवियों ने मुक्तक, कवित्त दोहे कुण्डलिया इत्यादि छंदों में श्रृंगार रस की रचनायें की।
पश्चिमी साहित्य के प्रभाव में धीरे-धीरे हिंदी जगत में भी छंद-बंधन खुलने लगे। महाप्राण निराला और महाकवि पंत ने पारंपरिक छंदों से हटकर प्रयोग किए। छंद की रूढ़ियों से मुक्त होकर भी इनके काव्य में प्रवाह बना रहा, इन कविताओं ने पाठकों को चमत्कृत भी किया। अनायास ही कहीं तुक मिलना, कहीं तुक न मिलना, छंद मुक्त काव्य की विशेषता मानी गई। यहाँ पूर्व प्रचलित नियम नहीं है; फिर भी कविता का प्रवाह नहीं रुकता। कहीं न कहीं यह छंदमुक्त काव्य छंद के आधार पर ही लिखे गए थे। छायावादी युग के छंदमुक्त काव्य का आधार रोला और घनाक्षरी माना जाता है। प्रयोगवादी युग मे सवैया तथा अन्य पुराने छंदों को रूढ़िमुक्त करके लिखा गया। कविता अनायास छंदमुक्त नहीं हुई, समाज ने रुढ़ियों को तोड़ा तो कवियों ने छंद-विधान को तोड़ा, यद्यपि विरोध हुआ पर कविता छंदों की जकड़न से मुक्त होने लगी। निराला जी की एक कविता 'मौन' प्रस्तुत है, इसमें लय भी है, प्रवाह भी है और कोई गुणी संगीतकार इसे संगीतबद्ध भी कर सकता है-
मौन बैठ लें कुछ देर, १३ आओ,एक पथ के पथिक-से १६
प्रिय, अंत और अनंत के, १४ तम-गहन-जीवन घेर। १२ मौन मधु हो जाए ११ भाषा मूकता की आड़ में, १६ मन सरलता की बाढ़ में, १४ जल-बिंदु सा बह जाए। १३ सरल अति स्वच्छंद १० जीवन, प्रात के लघुपात से, १६
उत्थान-पतनाघात से १४ रह जाए चुप, निर्द्वंद।. १२ निराला और सुमित्रानंदन पंत की काव्य शैलियाँ भिन्न थीं फिर भी दोनों ने पारंपरिक छंद से बाहर निकल कर लिखा, विरोध हुआ पर अंत मे छंद मुक्त काव्य को मान्यता मिली। पंत जी की एक प्रसिद्ध कविता का अंश प्रस्तुत है- चींटी वह चींटी को देखा आज? १५ वह सरल विरल काली रेखा १५ तम के तागे सी जो हिल-डुल १६ चलती लघु पद मिल-जुल, मिल-जुल १६ यह है पिपीलिका पाँति! देखो न किस भाँति। २३ काम करती वह सतत, कन-कन चुनके चुनती अविरत। २८ इस कड़ी में जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह 'दिनकर' का नाम भी जुड़ता है। छंद-बंधन शिथिल हुए तो कुछ लोगों को लगा कि कविता लिखना बहुत आसान है। मन में जो भी भाव उठ रहे हैं या विचार आ रहे हैं; उन्हें लिखते चलो, बस बन गई कविता किंतु वे गलत सिद्ध हुए। छंदमुक्त कविता में भी लय, यति और गति होती है। प्रारंभ में छंदमुक्त कविताओं में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का ही प्रयोग होता रहा फिर धीरे-धीरे हिंदीतर शब्द कविता में जगह बनाने लगे और आज के कवि तो भाषा की सब सीमाएँ तोड़कर; अंग्रेजी शब्द ही नहीं, वाक्यांश तक प्रयोग करने लगे हैं। हिंदी-उर्दू सहचरी भाषाएँ हैं; इसलिये इनका सम्मिश्रण भाषा-सौंदर्य को कम नहीं करता। अंग्रेजी भी हिंदी में घुलने-मिलने लगी है; इसलियें यदा-कदा यदि हिंदी में समुचित शब्द ज्ञात या उपलब्ध न हो तो अंग्रेजी शब्द का भी प्रयोग आपद्धर्म की तरह किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि छंद के साथ भाषा की रूढ़ियाँ भी टूटने लगीं। रूढ़ियों का टूटना एक हद तक सही हो सकता है पर एक मशहूर कवि की एक कविता में 'बाइ द वे' (by the way) जैसा वाक्यांश मुझे निराश करता है। शायद; मैं विषय से भटक रही हूँ क्योंकि इस लेख का मकसद अन्य भाषाओं के शब्दों का कविता में समाहित होना नहीं बल्कि छंद युक्त और छंद मुक्त काव्य की तुलना कर संगीत में उन्हें ढालने के प्रयोगों को समझना है।
सामान्य धारणा है कि छंदबद्ध काव्य संगीतबद्ध किया जा सकता है, छंदमुक्त काव्य संगीत में नहीं ढाला जा सकता। गीत-नवगीत विधा पूरी तरह छंदबद्ध न होने पर भी गायन के लिये ही बने हैं। इनमें 'मुखड़ा' और 'अंतरे' होते हैं। 'मुखड़े' को शास्त्रीय संगीत में 'स्थाई' कहते हैं। मुखड़े की अंतिम पंक्ति और स्थाई की अंतिम पंक्ति तुकांत होती है, इससे अंतरे के बाद मुखड़े पर आना सहज होता है। यहाँ स्थाई और अंतरे का मात्रा-साम्य आवश्यक नहीं होता। छंद में भी लय होती है और संगीत में भी किंतु गौर से देखा जाय तो 'लय' शब्द के अर्थ दोनों में भिन्न है। छंद में 'लय' से तात्पर्य 'प्रवाह' से है कि बिना अटके उसको पढ़ा जा सके। संगीत में 'लय' का अर्थ 'गति' है, कितनी तीव्र या कितनी मंद गति से गायन या वादन हो रहा है। 'विलंबित लय' और 'द्रुत लय' गायन-वादन की गति को इंगित करते हैं। 'स्वर' शब्द का भी संगीत और भाषा में भिन्न अर्थ है। अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ हिंदी भाषा के स्वर (वौवल्स) है। संगीत के स्वर षडज, रिषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हैं जिन्हें हम 'सा रे ग म प ध नी' या 'सरगम' के नाम से जानते हैं। इन्हें इंगलिश मे नोट्स (do re me fa so la ti) कहते हैं। संगीत में 'ताल' का भी बहुत महत्व है। 'ताल' में छंद की तरह मात्रायें गिनी जाती हैं पर 'मात्रा' गिनने का तरीका एकदम अलग होता है। यहाँ एक मात्रा में दो वर्ण भी बिठाये जा सकते हैं और एक वर्ण को दो या तीन मात्राओं में आकार के साथ बढ़ाया जा सकता है। ताल के एक चक्र में गति के अनुसार मात्राएँ निर्धारित होती हैं; न कि वर्ण और स्वर की गिनती के अनुसार। शास्त्रीय संगीत की बंदिशों को ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा कि वे कहीं भी छंद-बद्ध नहीं हैं। राग जोग की बंदिश देखें:
स्थाई- साजन मोरे घर आए (स्थाई) १४ मात्राएँ मंगल गावो चौक पुरावो,(अंतरा) १६ मात्राएँ अंतरा- दरस पिया हम पाए १२ मात्राएँ अब मालकौस की एक बंदिश पर ध्यान देते हैं- स्थाई- मुख मोर-मोर मुसकात जात, १६ मात्राएँ ऐसी छबीली नार चली कर सिंगार २१ मात्राएँ अंतरा- काहू की अँखियाँ रसीली मन भाईं, २१ मात्राएँ चली जात सब सखियाँ साथ १५ मात्राएँ (अंतरा)

इन दोनों बंदिशों में कोई छंद नहीं है। संगीत में इन दोनों बंदिशों को सैकड़ों सालों से तीन ताल में गाया जा रहा है। तीन ताल में सोलह मात्राएँ चार खंडों में विभाजित रहती हैं- 'धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा ना तिं तिं ना धा धिं धिं धा'
इसी तरह लोकगीत भी छंदबद्ध नहीं होते पर कहरवा ताल में गाए जाते हैं। ये ताल ढोलक पर भी सजती है किंतु शास्त्रीय संगीत के लिये उपयुक्त नहीं मानी जाती। कहरवा के बोल इस प्रकार हैं- धा गे ना ति न क धि न स्पष्ट है कि संगीत-बद्ध होने के लिये रचना का छंद-बद्ध होना ज़रूरी नहीं है। गुणी संगीतकार के पास वाद्य यंत्र होते हैं, कोरस हो सकता है जिससे यदि ज़रूरी हो तो वो उन्हीं शब्दों के साथ मात्राओं को घटा-बढ़ा सकता है। ग़ज़ल संस्कृत के द्विपदिक श्लोकों से नि:सृत, फारसी से उर्दू में आई शायरी (कविता) की विधा है जिसे हिंदी तथा अन्य भाषाओं ने अपना लिया है। ग़ज़ल गायिकी एक भिन्न प्रकार की विधा बन चुकी है। ग़ज़ल लेखन में बहुत पाबंदियाँ है इन्हें अलग-अलग रागों में बाँधकर गाया जाता है। इसमें गायक को भावों की अभिव्यक्ति सही तरह निभाने के साथ स्वर और ताल में बँधकर गाना होता है पर शुद्ध शास्त्रीय संगीत की शैली से ग़ज़ल गायन की शैली अलग होती है यहाँ ताने लेने या मुरकियाँ लेने की जगह भावों और शब्दों का उच्चारण अधिक महत्वपूर्ण होता है इसलिये ग़ज़ल गायकी को उप शास्त्रीय संगीत की श्रेणी में रखा जाता है। ग़ज़ल की बहर (मीटर) छोटी-बड़ी हो सकती है पर ग़ज़ल के लिये संगीतकार अधिकतर ताल दादरा का प्रयोग करते हैं। तीन ताल, झपताल व कुछ अन्य तालों में भी ग़ज़ल बाँधी जाती है। दादरा, तीनताल और झपताल में क्रमश: ६, १६ और १० मात्राएँ होती हैं।
एक समय था जब ग़ज़ल को गायक के नाम से पहचाना जाता था, यह मंहदी हसन की ग़ज़ल है, यह ग़ुलाम अली की और यह जगजीत सिंह की। जगजीत सिंह, पंकज उधास और ग़ुलाम अली के बाद कोई महान ग़ज़ल गायक उभरकर नहीं आया। कुछ होनहार ग़ज़ल गायक रंजीत रजवाड़ा, जैस्मिन शर्मा आदि अधिकतर ग़ुलाम अली या किसी प्रतिष्ठित गायक की ग़ज़ल ही गाकर रह गए, कुछ नया नहीं किया या उन्हें मौक़ा नहीं मिला। ग़ज़ल गायकों का अभाव है पर ग़ज़ल लिखनेवालों की कोई कमी नहीं है। सर्वश्री प्राण शर्मा, अशोक रावत, नीरज गोस्वामी, दीक्षित दनकौरी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी आदि के अलावा और बहुत से लोग ग़ज़ल लिख रहे हैं पर गायिकी में ग़ज़ल के क्षेत्र में प्रतिभा का अभाव है, फिल्मों में भी आजकल ग़ज़ल गायिकी की गुंजाइश नहीं रह गई है। संगीतकार क्यों इस विधा से दूर हो रहे हैं? यह जानने की ज़रूरत है। हम सिर्फ श्रोता को दोष नहीं दे सकते, जब ग़ज़ल सुनने को नहीं मिलेगी; तो श्रोता क्या करेगा। ग़ज़ल पढ़नेवाले भी बहुत तो नहीं हैं पर फिर भी गज़लें लिखी जा रही हैं। अब छंदमुक्त काव्य और संगीत की बात करते हैं। फिल्म 'हक़ीकत' के एक गाने ने सबको बहुत भावुक कर दिया था।, “मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था” यह पूरी तरह मुक्त था इसमें मुखड़ा और अंतरा भी नहीं था, न तुकांत पंक्तियाँ। कैफ़ी आज़मी, मोहम्मद रफ़ी और मदनमोहन ने इसे जो रूप दिया अनोखा था, असरदार था! यहाँ मेरा नाम जोकर के गीत “ए भाई! ज़रा देख के चलो” का जिक्र करना भी अप्रासांगिक नहीं होगा। नीरज, शंकर-जयकिशन और मन्ना डे ने इसे कभी न भुला पाने वाले गीतों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। छंदमुक्त कविता की तरह ही जावेद अख्तर साहब का एक गीत '1942 ए लवस्टोरी' में था जिसको पहली बार सुनते ही मुझे लगा "वाह! क्या गीत है। क्या संगीत है। ' इसमें तो सारे बंधन ही टूट चुके थे न अंतरा था न मुखड़ा बस.....’ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ....... “ से हर पंक्ति शुरू हुई और फिर एक से एक सुंदर उपमाओं का सिलसिला शुरू हो गया, भले ही यहाँ मुखड़े और अंतरे न हों, सभी उपमाएँ दो-दो के जोड़े में तुकांत थीं, लघु पर समाप्त होती थीं, अंतिम उपमा दीर्घ पर समाप्त हुईं। जावेद अख्तर साहब के बोल आर.डी.बर्मन का संगीत और कुमार शानू की आवाज का ये जादू बहुत चला– एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा २२ जैसे खिलता गुलाsब, १३
जैसे शायर का ख़्वाब १३ जैसे उजली किरण, ११ जैसे बन में हिरन ११ जैसे चाँदनी राsत, १३ जैसे नगमों की बात १३ जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया २२
(प्रथम-अंतिम पंक्ति २२ मात्रिक महारौद्रजातीय, सुखदा छंद, प्रथम-अंतिम द्विपदी भागवतजातीय छंद, मध्य द्विपदी रौद्र जातीय शिव छंद - सं.) इस सिलसिले में जगजीत सिंह की गाई एक लोकप्रिय नज़्म भी याद आ रही है-“बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी’’. नज़्म काफ़ी हद तक छंदमुक्त कविता जैसी ही होती है। जगजीत सिंह की लोकप्रियता इसी नज़्म से आरंभ हुई थी। गुलज़ार साहब तो शायरी में 'दिन ख़ाली-ख़ाली बर्तन हैं' जैसी पंक्तियाँ लिखकर चकित करते रहे हैं पर उनका इजाज़त फिल्म का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है.....' इसमें न कोई पंक्ति तुकांत थी न कोई दीर्घ-लघु पर अंत होने का बँधा हुआ सिलसिला। इस गाने में तो हर पंक्ति के मीटर में भी बहुत अंतर था। जब गुलज़ार साहब ने आर. डी. बर्मन को यह पूर्ण रूप से छंदमुक्त कविता दिखाई तो उन्होंने गुलज़ार साहब से कहा 'कल तुम 'टाइम्ज़ आफ इण्डिया' ले आओगे और कहोगे कि इसकी धुन बनाओ' किंतु आर. डी. बर्मन ने चुनौती स्वीकार की और ये गाना कितना मधुर बना और लोकप्रिय हुआ; हम सभी जानते हैं।
आजकल नए प्रयोग करने का ज़माना है कुछ अच्छे लगते हैं, कुछ अच्छे नहीं लगते। कवि-लेखक बंधन-मुक्त होकर लिख रहे हैं, इससे छंद का महत्व कम नहीं हो सकता। संगीतकार पूरे विश्व से संगीत लाकर, उससे कुछ नया कुछ अच्छा संगीत दे रहे हैं । एक ही गीत में कभी राग बदल जाता है, कभी ताल, कभी वैस्टर्न बीट पर ड्रम बजने लगते हैं।इस्माइल दरबार ने 'हम दिल दे चुके सनम' में पूरी तरह शास्त्रीय संगीत में बद्ध गीत जिसमें ताने भी थीं, मुरकियाँ भी थी ‘’अलबेला सजन आयो री’’ में ताल-वाद्य को बहुत गौण कर दिया। ताल-वाद्य की आवाज गायिकी के नीचे दब गई जबकि आम तौर पर शास्त्रीय संगीत में तबला या पखावज का रूप निखरकर आता है। यह बंदिश राग अहीर भैरव में उस्ताद सुल्तान खाँ ने गाई थी और आदि ताल में बद्ध थी जिसमें ८ मात्रायें होती है। इस्माइल दरबार ने इसे लगभग मूल रूप में रखा पर एक गायिका और एक गायक की आवाज़ फिल्म के किरदारों के हिसाब से जोड़ दी। कुछ समय पहले संजय लीला भंसाली ने इसी बंदिश को बाजीराव मस्तानी के लिये बिलकुल नए कलेवर में कई गायक और गायिकाऔं की आवाज़ मे पेश किया। यह राग भोपाली और राग देशकर का मिला-जुला रूप था इसमें ताल कहरवा का थोड़ा परिवर्तित रूप अपनाया गया। ताल कहरवा में भी ८ ही मात्रायें होती है। राग और ताल बदलने से बंदिश का स्वरूप बदल गया, गंभीरता की जगह ख़ुशी का माहौल बना दिया गया। ‘’हम दिल दे चुके सनम’’ में यह बंदिश शास्त्रीय संगीत लगी और बाजीराव मस्तानी मे लोकसंगीत की छटा दिखी परंतु इन प्रयोगों से शास्त्रीय संगीत की नियम प्रणालियों की गरिमा नष्ट होने का भी कोई सवाल नहीं हैं, क्योंकि जिस प्रकार काव्य का आधार छंद हैं, छंद हैं तो ही छंद मुक्त है। इसी तरह संगीत का आधार भी शास्त्रीय संगीत है और वही सात स्वर हैं पूरे विश्व के संगीत में।
===========

कोई टिप्पणी नहीं: