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बुधवार, 30 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी ६ आदर्शिनी श्रीवास्तव -पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छंद-छटा



 ६. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छंद-छटा

आदर्शिनी श्रीवास्तव
जन्म: २६ जून १९६४,गोंडा उ.प्र.। आत्मजा: श्रीमती सिद्धेश्वरी-डॉ. के०पी० श्रीवास्तव।जीवन साथी: श्री अभयकुमार श्रीवास्तव। शिक्षा: स्नातकोत्तर हिंदी साहित्य। लेखन विधा: कविता, गीत, ग़ज़ल, कहानी, लेख, संस्मरण, समीक्षा।प्रकाशित: तपस्विनी (काव्य संग्रह), नाद और झंकार (गीत संग्रह)। संपर्क:  १/८१ फेज़-१, श्रद्धापुरी , कंकड़ खेड़ा, मेरठ २५०००१, चलभाष:  ० ९४१०८८७७९४ / ८७५५९६७५६७ ईमेल: srivastava.adarshini@gmail.com, ब्लॉग: http//adarshinisrivastava.blog spot.in   कलिकाएँ अधखिली रुकी हैं, तरुओं पर कलरव है ठहरा।
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सामान्यत: छंदों के लिए कोई  देश-विदेश नहीं होता।  ध्वनि और साहित्य को किसी क्षेत्र की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।  किसी भी स्थान के लोग, किसी भी समय, किसी भी छंद में अपनी रचना सृजित कर सकते हैं। फिर भी अलग- अलग क्षेत्रों के काव्य-सृजन में वहाँ प्रचलित संगीत, मनोभाव, धुन, वातावरण, स्थिति और प्रकृति काव्य सृजन पर अपना प्रभाव डालते हैं। इस काल का कवि साहित्य सृजन के प्रति समर्पित, मौन साधक नहीं है। उसमे संयम नहीं, छटपटाहट है। वह शीघ्रादिशीघ्र उथली यश-प्राप्ति चाहता है। वह चार पंक्तियाँ पढ़कर उसमें से ही भाव या शब्द ग्रहणकर यत्किंचित हेर-फेर कर अपनी रचना सृजित कर देना चाहता है। कहा गया है कि एक पृष्ठ लिखने के लिए चार सौ पृष्ठ पढ़ने की आवश्यकता है। छंद ही नहीं किसी भी प्रकार के साहित्य सृजन का उद्देश्य लेखन मात्र नहीं, भावाभिव्यक्ति तथा ज्ञान-प्रसार हो तो उसका प्रभाव पाठक पर गहरा तथा स्थाई होता है। नवपीढ़ी में मंच, यश और धन-प्राप्ति की लालसा उसे साहित्य के प्रति गंभीर नहीं होने देती। नव पीढ़ी का सौभाग्य है कि कुछ समकालिक छंदाचार्य औ छंद प्रेमी प्रयासरत हैं कि नई पीढ़ी को छंदों का शुद्ध रूप को समझा सकें ताकि वह स्तरीय सत्साहित्य का सृजन कर; अपने पुरातन साहित्य की रक्षा कर सके और अगली पीढ़ी के लिए उनका सृजन उदाहरण हो। कुछ रचनाकार इस अवसर का लाभ तत्परता से छंद सीखकर उठा भी रहे हैं। सवैया, घनाक्षरी, कवित्त, दोहा जैसे लयात्मक छंदों के प्रति रचनाकारों का ही नहीं सामान्य पाठकों और श्रोताओं का भी आकर्षण बढ़ा है। दुख है कि इसके बाद भी कई युवा रचनाकार छंद रचना को दुष्कर या कालबाह्य मानकर छंदहीन कविता का अंधानुकरण कर रहे हैं।  
उत्तर प्रदेश का पश्चिमी अंचल आरंभ से ही खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी) का केंद्र है। इन क्षेत्रों में खड़ी बोली में छंद सृजन की प्रधानता हैं। कोई छंद गायन में जितना मोहक, तरल, सुगम और श्रुतिप्रिय होगा वह छंद उतना ही अधिक काव्य-पाठ के लिए प्रचलित होगा। प्रेममय-रागमय वृत्तियों की कलात्मक वाचिक अभिव्यक्ति ही काव्य है जो पाठक को आनंद, आह्लाद, करुणा और आश्चर्य से भर देती है।  किसी भी काव्य रचना में दो तत्व मुख्य होते हैं।
१. अंतर्जगत की अनुभूति और
२. काव्य लेखन का शिल्प।
जब हमारा मन आनंद की स्थूल सीमा से परे, लौकिक जगत से हटकर, लोकोत्तर आनंद पाकर एक अलग ही दुनिया में  विचरण करता है तब जिस आनंद को प्राप्त करता है; वह अभिव्यक्ति से परे होता है। काव्य की रमणीयता का अपना अलग महत्त्व है। इसके अंतर्गत ही काव्य का कथ्य, छंद, भाव और रस होता है। छंद काव्य का शरीर है, जब शरीर ही नहीं होगा तो आत्मा (कथ्य), मन (भाव) और रुचि (रस) का निवास कहाँ होगा? जितना सुगठित, समानुपातिक, सुंदर, स्वस्थ, शरीर होगा उसमें उतने ही अधिक रम्य भावों का समावेश अनुभूत होगा। रुग्ण शरीर में न स्वस्थ मन होता है; न आकर्षण। इसी तरह त्रुटिपूर्ण काव्य भी अरुचिकर प्रतीत होता है। उसके भेद, छंद, रस,  भाव,  गुण, अलंकार, दोष आदि का विवेचन काव्य साहित्य के अंतर्गत आता है। छंदशास्त्र काव्य का बाह्य आवरण अथवा वसन है। दाग रहित, स्वच्छ, सलवटरहित, भली-भाँति काटा-सिला हुआ, वसन सहज ही सबका मन आकर्षित करता है। पद्य में मात्रा एवं वर्णों की संख्या, उनके क्रम, नियमित विराम, गति-यति, प्रवाह, आदि से व्यवस्थित शब्द योजना ही छंद है। यदि इसमें व्याकरण सम्मत विधि से शब्द क्रम में कोई फेर-बदल किया जाए तो इसे दोष नहीं माना जाता। वर्णों और मात्राओं की गेय व्यवस्था ही छंद है। भाषा में शब्द, वर्ण और स्वर को सुव्यवस्थित विधि-विधान से रखना ही छंद-सृजन है। छंद से काव्य में चारुत्व और लावण्य आता है, काव्य श्रुतिप्रिय और मनोरम हो जाता है। ऋषि-मुनियों ने छंद को वेद का अंग (पैर) माना है। (पैर मानने में हीनता का भाव नहीं है। जिस प्रकार बिना पैर किसी भवन में प्रवेश नहीं किया जा सकता उसी प्रकार वेद-के प्रासाद में प्रवेश छंद को जाने बिना नहीं किया जा सकता। अर्थात वेद को पढ़ने, समझने और उसके रसामृत का पान करने के लिए छंद का समुचित ज्ञान ही एकमात्र मार्ग है।-सं.) छंदबद्ध रचना स्मृति में अधिक देर ठहरती है, आसानी से याद होती है, मन पर सुखद प्रभाव डालती है। यही कारण है कि सभी पुरातन ग्रंथ स्मृति, पुराण, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि छंदबद्ध हैं। 
छंद शास्त्र गणितीय और पूर्णत: विज्ञान सम्मत है। काव्य की अटारी छंद के गणों की नींव पर आधारित है l तीन-तीन वर्णों व भिन्न मात्रा भारों के हर गण का अपना रूप है, संकेत है, फल है और देवता है। वर्जित शब्द और दग्धाक्षरों का प्रयोग करना ही हो तो देववाची शब्द या मंगलात्मक शब्द/वर्ण से करने पर उस काव्य-दोष की निवृत्ति हो जाती है। काव्य शास्त्र में छंदों की संख्या कल्पनातीत (छंद प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार मात्रिक छंद ९२,२७,७६३ तथा वार्णिक छंद १३, ४२, १७, ६२६ हैं जिनमें से लगभग ६१२ छंदों के उदाहरण प्राप्त हैं। -सं.) है। नए आचार्यगण आज भी नए छंदों का सृजन कर शोधपरक कार्य कर रहे हैं। (समय-समय पर देशी/विदेशी भाषाओँ के छंदों का हिन्दीकरण भी किया गया है। जैसे पंजाबी का माहिया, बृज का रास, बुंदेली का फाग, अंग्रेजी का सोनेट, जापानी  के हाइकु, तांका, बांका, स्नैर्यु आदि। -सं.)   समकालिक और भावी रचनाकारों के समक्ष चुनौती नवाविष्कृत छंदों को पढ़-समझ-सीखकर उनमें रचना करने की है। छंद का प्रमुख तत्व 'लय' है।  उच्चारण में मात्रा/वर्ण क्रम अगर व्यवस्थित हो तो काव्य के सौंदर्य में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है, अगर मात्रा/वर्ण-शुद्धता हो और गति पर ध्यान न दिया गया हो तो छंद त्रुटिपूर्ण हो जाता है:
अशुद्ध- मिले निश्छल नेह के समर्पित नैन थे जब से
शुद्ध-   नैन थे जब से मिले निश्छल समर्पित नेह के।   -आदर्शिनी  
yअशुद्धआ - बरु नरक कर भल वास ताता 
शुद्ध- बरु भल वास नरक कर ताता।     - गो. तुलसीदास 
स्पष्ट है कि छंद में गतिभंग दोष नहीं होना चाहिए। छंद में गति का महत्त्व इतना अधिक है कि गाँवों की अशिक्षित महिलाओं-पुरुषों द्वारा रचे-गाए लोकगीत भी गति व तुक से युक्त होते हैं। उनका रुदन तक एक लय और प्रवाह में होता है। सामान्यत: हर गीत, ग़ज़ल, मुक्तक आदि किसी न किसी छंद पर आधारित होते हैं।पश्चिमी उत्तर प्रदेश  में अधिक प्रचलित  कुछ मात्रिक, वार्णिक और मुक्तक छंदों की रस-धार में अवगाहन कर काव्यामृत का पान करें।  
दोहा- 
अर्द्धसम मात्रिक, द्विपदिक, चतुष्चरणिक छंद दोहा के विषम चरण १३-१३ और सम चरण ११-११ मात्राओं के होते हैं। चरणादि में एक शब्दीय जगण वर्जित तथा चरणान्त में गुरु-लघु आवश्यक होता है। उदाहरण:
नित्य नई ही वेदना, रही ह्रदय को चीर। 
तीन ताप से दग्ध है, जग का सकल शरीर।।    -आदर्शिनी
चौपाई-
सम मात्रिक, द्विपदिक, चतुष्चरणिक छंद चौपाई छंद के प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ तथा दो-दो चरणों में सम तुकांतता आवश्यक है। उदाहरण:
१. रघुपति भरत दमन रिपु लछमन। सहित अवधपुर बसहिं मुदित मन।।   -गो. तुलसीदास 
२. जन्म दिवस का पर्व मनाना। मत मिष्ठान्न अकेले खाना।। 
    मात-पिता को शीश नवाना। शुभ आशीष सभी से पाना।।     - संजीव वर्मा 'सलिल'
गीतिका-
भानु कवि के अनुसार यह चार पदों का सममात्रिक छंद है। प्रत्येक पंक्ति में २६ मात्राएँ तथा १४-१२ अथवा १२-१४ मात्राओं पर यति और अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य है।  हर पद में तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं, और चौबीसवीं मात्राएँ लघु हों तो छंद की गेयता सुन्दर प्रवाहमयी  होती है। उदाहरण:
१. शारदे के पद-कमल पर, पुष्प अर्पित कर दिया। 
    गीत तुम पर रच दिया, निज भावना का जल दिया।।    - आदर्शिनी  
२. नर्मदा को नमन कर, शिव-शिवा का वंदन किया। 
    नर्मदा-जल अमिय सम, कर पान हुलसाया हिया।।       - संजीव वर्मा 'सलिल'      
हरिगीतिका:
यह भी गीतिका की तरह चार पदों का सममात्रिक छंद है।  प्रत्येक पंक्ति में २८ मात्राएँ तथा १६-१४ पर मात्राओं पर यति और अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य है।  इसके हर पद में पाँचवी, बारहवीं, उन्नीसवीं और छब्बीसवीं  मात्राएँ लघु होना विशेषता है। हरिगीतिका शब्द की चार आवृत्तियों ४ x हरिगीतिका या ४ (११२१२) से यह छंद बनता है। उदाहरण:
१. 'हरिगीतिका' यदि चार बार मिला-सुना कर गाइए।
    यति सोलवीं फिर चौदवीं पर हो, सदा मुसकाइए।।      - आदर्शिनी   
२. बँधना सदा हँस प्रीत में, हँसना सदा तकलीफ में। 
    रखना सदा पग सीध में, चलना सदा पग लीक में।।     - संजीव वर्मा 'सलिल'
कुण्डलिया:
६ चरणों वाले इस छंद में पहला दो चरण दोहा और चार चरण रोला के होते हैं।  दोहा व रोला के प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। इस छंद का श्री गणेश जिस शब्द या शब्द समूह से होता है, छंद का अंत भी उसी शब्द या शब्द समूह से करना अनिवार्य है। रोला की ११वीं मात्रा लघु होती हैं। उदाहरण: 
आए मेरे गाँव में, ये कैसे भूचाल?                                                                                                                              खुरपीवाले हाथ ने, ली बंदूक सँभाल।। 
ली बंदूक सँभाल, अदावत हँसती-गाती। 
रोज सुहानी भोर, अदालत चलकर जाती।।
लड़े मेढ़ से खेत, लड़ रहे माँ के जाए।
कैसे-कैसे हाय!, नए परिवर्तन आए।।   डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘ यायावर ‘
ताटंक (चौबोला):
इसके प्रत्येक पद में ३० मात्राएँ, १६-१४ पर यति  व पदांत में तीन गुरु अनिवार्य हैं।  उदाहरण:
१. सोलह-चौदह यतिमय दो पद, 'मगण' अंत में आया हो
    रचें छंद 'ताटंक' झूम ज्यों, 'चौबोला' मिल गाया हो।        - संजीव वर्मा 'सलिल'     
२. देख झाँककर भीतर अपने, उत्तर खुद मिल जाएगा। 
    बहुत जरूरी खुलनी तुझसे, भक्तिभाव की मधुशाला।।      - राजीव प्रखर
भुजंगप्रपात: 
'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति', भुजंगप्रयात  चार भगण ४ x (१२२) से बना छंद है l १, ६, ११ और १६ पर लघु मात्राएँ होती हैं l वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय, मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद।  उदाहरण: 
१. सितमगर है मुझको रुलाता बहुत है / मगर जान से भी वो प्यारा बहुत है   -आदर्शिनी
२. कहो आज काहे पुकारा मुझे है​? / 
छिपी हो कहाँ, क्यों गुहारा मुझे है?​
    पड़ा था अकेला, सहारा दिया क्यों- / न बोला-बताया, निहारा मुझे है।      - संजीव वर्मा 'सलिल'
विधाता छंद – 
इसमें २८ मात्राएँ और १४-१४ पर यति हैl १, ८, १५ और २२वीं मात्राएँ लघु होतीं हैंl (अथाष्टि जातीय वार्णिक छंद, यौगिक जातीय मात्रिक विधाता छंद, मापनी १२२२ १२२२ १२२२ १२२२, बह्र  मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।-सं.) उदाहरण:
    विधाता को / नमन कर ले, प्रयासों को / गगन कर ले 
    रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले - संजीव वर्मा 'सलिल'       
    संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७, सिद्धि = ८, तिथि = १५ 
स्रग्विणि छंद:
चार रगण ४ x (२१२) से बना मूल स्रग्विणि वर्णिक होता है l गुरु के स्थान पर दो लघु लगने पर वाचिक स्राग्विणि होता है l उदाहरण: 
मूल: साधना वंदना प्रार्थना तो करो / कामना याचना वासना को तजो                     - संजीव वर्मा 'सलिल'  
वाचिक: कुछ ठहर कर चलीं कुछ झिझक कर चलीं / लो हवा की तरंगे भी दुल्हन हुईं  -आदर्शिनी
वाचिक राधा:
रगण, तगण, मगण, यगण+२ (२१२, २२१, २२२, १२२, २) २३ मात्राओं से बना वाचिक राधा अतिजगती जातीय आधार छंद हैl उदाहरण:
वारि की बूँदें हुईं हैं घुँघरुओं के स्वर / आज चंदा कैद में है चाँदनी के घर  -आदर्शिनी
समानिका:
रगण,जगण+२ (२१२,१२१,२) ११ मात्राओं, ७ वर्णों से बना समानिका छंद उष्णिक जातीय छंद पर आधारित बह्र बहर फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं  है। उदाहरण: 
१. सत्य को न मारना  / झूठ से न हारना 
    गैर को न पूजना  / दीन से न भागना 
    बात आत्म की सुनें / सूर्य आप भी बनें  - संजीव वर्मा 'सलिल'
२. जाग जाग भोर है / पक्षियों का शोर है
    दंभ को मरोड़ दे / द्वंद आज छोड़ दे    -डॉ. वी. पी. भ्रमर
चामर:
रगण, जगण, रगण, जगण, रगण (२१२, १२१, २१२, १२१, २१२) उदाहरण:
वर्ष आज तो नया सभी प्रसन्न हो रहे / मातु सिंहवाहिनी स्वरूप पूज भी रहे  -कौशल कुमार आस
पंचचामर:
जगण, रगण, जगण, रगण, जगण + गुरु  (१२१, २१२, १२१, २१२ १२१ २) उदाहरण:
१. जवान या किसान ही महान है न भूलिए / उठाव या चढ़ाव ही न लक्ष्य मान झूलिए      - संजीव वर्मा 'सलिल'
२. किरण को ओढ़ दूर्वा हुई है और मखमली / गुलाल गाल हो गए सजा के ओस जब चली  -आदर्शिनी 
पश्चिमी उत्तर प्रदेश उपरोक्त कुछ छंदों के अतिरिक्त सवैया, कवित्त और घनाक्षरी भी बहुत लोकप्रिय छंद है l
मत्तयगयंद सवैया:
यह सात वर्णों का छंद है इसमें ७ भगण और दो गुरु होते हैं l उदाहरण:
भोर भये जब आँख खुली तब देखत हूँ हर सू अँधियारा -आदर्शिनी
दुर्मिल सवैया:
इसमें २४ वर्ण होते हैं जो आठ सगणों (११२) से बनते हैं l अंत में सम तुकांत होता है l उदाहरण:
झकझोर हवा सहकार गिरे ऋतु आज लुभावन है गुइयाँ -आदर्शिनी
किरीट सवैया:
ये आठ भगणों (२११) से बना २१ वर्णीय वर्णिक छंद है l उदाहरण:
शोर उठा सब ओर अरे यह कौन दहा बनके अति पावक  -आदर्शिनी
सुमुखी सवैया:
ये छंद सात जगण ७ (१२१) +२ में लघु गुरु जोड़ने से बनता है l उदाहरण:
अनन्य हिमांशु सदा तरुणीजन की परिरम्भण-शीतलता -अज्ञात
गंगोदक सवैया:
८ रगण ८(राजभा) से बना ये आधार छंद है l उदाहरण: 
जिंदगी से नहीं है गिला है मुझे, जो न चाहा सभी तो मिला है मुझे  -आदर्शिनी
मनहर घनाक्षरी:
ये ३१ वर्णों का छंद है l ८,८,८,७ पर यति होती है l उदाहरण:
गगन ने खोले द्वार, संदली चली बयार, डारी-डारी, क्यारी-क्यारी मतवारी हो गई  - आदर्शिनी
रूप घनाक्षरी:
ये ३२ वर्णों का छंद है ८,८,८,८, वर्ण पर यति और अंत में गुरु लघु होता है उदहारण:
सोखि लीन्हों नीर कूप सरिता तडागन को, पाटल कदम्ब चम्पकादितरु जारे देत -अज्ञात
देव घनाक्षरी:
ये ३३ वर्णों का छंद है अंत में ३३ लघु l उदहारण:
तपन के तेज से लो, सिसक किसान उठे, वसुधा बेहाल हिय, जाता है दरक-दरक  -आनंद श्रीधर  

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